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सख्त कानून कायदों का क्या मतलब यदि कानून की आंखों की पट्टी सरक गई हो

    • प्रकाश कुमार जैन
    • Updated: 30 जुलाई, 2023 02:57 PM
  • 30 जुलाई, 2023 02:57 PM
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कहने को कहा जाता है कानून सबके लिए समान होता है या क़ानून की नजरों में सब समान है. हकीकत में क्या स्थिति इतनी आदर्श है ? कम से कम भारत में तो नहीं है. यहाँ तो गणमान्यों व नेताओं के लिए नियम, कायदे कानून बने ही हैं 'सारे नियम तोड़ दो' के लिए !

कहने को कहा जाता है कानून सबके लिए समान होता है या क़ानून की नजरों में सब समान है. हर अधिकारी, प्रधानमंत्री से लेकर एक सिपाही या कर संग्रह करने वाला, किसी अवैध कार्य के लिए उतना ही जिम्मेदार है, जितना कोई दूसरा नागरिक. हकीकत में क्या स्थिति इतनी आदर्श है ? कम से कम भारत में तो नहीं है. यहां तो कुर्सी पर बैठे लोगों के लिए, उच्च पदों पर आसीन ब्यूरोक्रेट्स के लिए न क़ानून कोई मायने रखता है और न ही नियम कायदे. ऑन ए लाइटर नोट वे तो बने ही हैं 'सारे नियम तोड़ दो' के लिए. विडंबना ही है कि यदि कोई आरोप लगे भी तो अधिवक्ता की दलील होती है चूंकि आरोपी गणमान्य है, रियायत मिलनी चाहिए.

पिछले दिनों ही भारत की संसद ने सजायाफ्ता अतीक अहमद को मरणोपरांत श्रद्धांजलि दी गई थी चूंकि वह दिवंगत पूर्व सांसद था. वाह ! क्या संसदीय नियम है ? सजायाफ्ता लालू यादव को क्या खूब सम्मान मिल रहा है ? अभिप्राय यह है कि नैतिकता और मर्यादा के मानदंडों पर व्यक्ति का नेता होना भारी पड़ता है. सजायाफ्ता रेपिस्ट और खूनी राम रहीम, चूंकि पोलिटिकल बाबा है, जब देखो पैरोल पर बाहर रहता है.

न्यूजीलैंड में जो न्याय मंत्री के साथ हुआ वो कई मायनों में हैरान करता है

और तो और, देश की शीर्ष न्यायालय तक तो आम आदमी की पहुंच है ही नहीं. एक और महत्वपूर्ण बात है जिस पर चर्चा नहीं होती. एक से ज़ुर्म के लिए मिली समान सजा की पालना में फर्क है यदि कनविक्टेड नेता है या धनाढ्य है या कभी प्रतिष्ठित जर्नलिस्ट या एक्टिविस्ट या अन्यथा बड़ा आदमी. कहने का मतलब यदि दोषी गणमान्य है तो सजा भी स्वर्ग है वरना सजा नर्क है ही. कह सकते हैं खुद को क़ानून से ऊपर समझने की फितरत रखने वालों की जमात है.

लेकिन न्यूजीलैंड सरीखे छोटे से देश की एकदम ताजा खबर नसीहत है इस जमात के लिए. वहां की न्याय मंत्री...

कहने को कहा जाता है कानून सबके लिए समान होता है या क़ानून की नजरों में सब समान है. हर अधिकारी, प्रधानमंत्री से लेकर एक सिपाही या कर संग्रह करने वाला, किसी अवैध कार्य के लिए उतना ही जिम्मेदार है, जितना कोई दूसरा नागरिक. हकीकत में क्या स्थिति इतनी आदर्श है ? कम से कम भारत में तो नहीं है. यहां तो कुर्सी पर बैठे लोगों के लिए, उच्च पदों पर आसीन ब्यूरोक्रेट्स के लिए न क़ानून कोई मायने रखता है और न ही नियम कायदे. ऑन ए लाइटर नोट वे तो बने ही हैं 'सारे नियम तोड़ दो' के लिए. विडंबना ही है कि यदि कोई आरोप लगे भी तो अधिवक्ता की दलील होती है चूंकि आरोपी गणमान्य है, रियायत मिलनी चाहिए.

पिछले दिनों ही भारत की संसद ने सजायाफ्ता अतीक अहमद को मरणोपरांत श्रद्धांजलि दी गई थी चूंकि वह दिवंगत पूर्व सांसद था. वाह ! क्या संसदीय नियम है ? सजायाफ्ता लालू यादव को क्या खूब सम्मान मिल रहा है ? अभिप्राय यह है कि नैतिकता और मर्यादा के मानदंडों पर व्यक्ति का नेता होना भारी पड़ता है. सजायाफ्ता रेपिस्ट और खूनी राम रहीम, चूंकि पोलिटिकल बाबा है, जब देखो पैरोल पर बाहर रहता है.

न्यूजीलैंड में जो न्याय मंत्री के साथ हुआ वो कई मायनों में हैरान करता है

और तो और, देश की शीर्ष न्यायालय तक तो आम आदमी की पहुंच है ही नहीं. एक और महत्वपूर्ण बात है जिस पर चर्चा नहीं होती. एक से ज़ुर्म के लिए मिली समान सजा की पालना में फर्क है यदि कनविक्टेड नेता है या धनाढ्य है या कभी प्रतिष्ठित जर्नलिस्ट या एक्टिविस्ट या अन्यथा बड़ा आदमी. कहने का मतलब यदि दोषी गणमान्य है तो सजा भी स्वर्ग है वरना सजा नर्क है ही. कह सकते हैं खुद को क़ानून से ऊपर समझने की फितरत रखने वालों की जमात है.

लेकिन न्यूजीलैंड सरीखे छोटे से देश की एकदम ताजा खबर नसीहत है इस जमात के लिए. वहां की न्याय मंत्री किरी एलान को अपने पद से इस्तीफा इसलिए देना पड़ गया चूंकि हद से ज्यादा नशे की हालत में वाहन चलाते हुए उन्होंने वेलिंग्टन में एक खड़ी हुई कार को सिर्फ टक्कर भर मार दी थी. जो हादसा हुआ वह यों तो सामान्य लगता है और भारत में तो ऐसा किसी मंत्री क्या उसके किसी रिश्तेदार ने भी कर दिया होता तो मामला रिपोर्ट ही नहीं होता. लेकिन प्रतिक्रिया के रूप में न्यूजीलैंड की न्याय मंत्री को पद छोड़ने की नौबत आ जाए तो क्या कहा जाएगा?

यही न कि न्यूजीलैंड में न केवल कानून सख्त है बल्कि नैतिकता और मर्यादा के मामले में राजनेता दूसरे देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा सतर्क हैं. प्रधानमंत्री हॉप्किंस ने जानकारी दी कि टक्कर के बाद एलन को लापरवाही से गाड़ी चलाने और गिरफ्तारी का विरोध करने के आरोप में वेलिंगटन सेंट्रल पुलिस स्टेशन में रखा गया और सुबह करीब एक बजे रिहा कर दिया गया. तो देश की न्याय मंत्री को तक़रीबन तीन चार घंटे पुलिस स्टेशन में रहना पड़ा.

कल्पना कीजिए यदि घटना भारत में हुई होती, मामला पुलिस तक पहुंच भी जाता और पुलिस ने तीन चार घंटे तक ऑनरेबल मिनिस्टर को थाने में रोक लिया होता तो...! प्रधानमंत्री ने न्याय मंत्री का इस्तीफ़ा स्वीकार भी कर लिया है और संतुलित बयान दिया कि 'वह किरी के फैसले से सहमत हैं, किरी घर जा रही हैं और राजनीति में अपने भविष्य पर विचार करने के लिए समय ले रही हैं.' ऐसा नहीं है कि न्यूजीलैंड की पहली घटना नजीर बन रही है दुनिया के लिए.

इसी साल के शुरू में वहां की तत्कालीन पीएम जेसिंडा ने यह कहते हुए पद से इस्तीफे का ऐलान कर दिया था कि अब उनके पास काम करने के लिए ऊर्जा नहीं बची है, जबकि दुनिया की सबसे कम उम्र में महिला प्रधानमंत्री बनने वाली जेसिंडा ने न केवल कोरोना महामारी बल्कि अपने देश में आतंकी हमलों का बहादुरी से मुकाबला किया था. एक छोटा सा देश, लेकिन उसकी क़ानून की सख्त पालना की आदर्श स्थिति ने वास्तव में बड़े बड़े देशों को आईना दिखाते हुए बड़ी बड़ी नसीहतें भी दी हैं.

भारत जैसे देश के लिए तो ये ज्यादा सीख देने वाली हैं, जहां कुर्सी पर बैठे लोगों के लिए क़ानून, नियम कायदे बेमानी है. मामूली सड़क हादसों में तो हर कोई पहुंच की धौंस देता नजर आता है. नैतिकता की बातें सिर्फ किताबी है हमारे यहां, वे जगहें पाती हैं पोलिटिकल पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्रों में. इतना ही नहीं, बड़े बड़े घोटालों में नाम आने पर भी राजनेता सत्ता का रोब दिखाते नजर आते हैं, चूंकि उन्हें पता है मामले बने भी तो उनका क्या हश्र होना है न्यायलयों में ?

हां, अपवाद स्वरूप इक्के दुक्के नैतिकता के उदाहरण जरूर हैं मसलन लाल बहादुर शास्त्री ने रेल हादसे के लिए अपनी जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. आज तो नैतिकता की परिभाषा कुछ यूं है कि 'पद छोड़कर मैं अपनी नैतिक जिम्मेदारी से भाग रहा हूं !' क्या यही नहीं कर रहे हैं मणिपुर के मुख्यमंत्री? चलते चलते एक बात और, न्यूजीलैंड की दो घटनाओं से स्पष्ट है कि राजनीति में महिलाएं नैतिकता और मर्यादा के मानदंडों पर खरी उतरती है बनिस्पत पुरुषों के. लेकिन, भारत की बात करें तो यहां महिला नेत्रियां पुरुष प्रधान राजनीतिक पार्टियों और कम्युनिटी से ऊपर उठकर स्वतंत्र स्टैंड नहीं ले पाती. हालिया मणिपुर त्रासदी इस बात का ज्वलंत उदाहरण है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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