• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

आम आदमी पार्टी ये 10 बातें और कर लेती, तो...

    • धीरेंद्र राय
    • Updated: 05 फरवरी, 2015 03:35 PM
  • 05 फरवरी, 2015 03:35 PM
offline
आम आदमी पार्टी के नेता खुद पूछते फिर रहे हैं कि क्या माहौल है? कैसा लग रहा है? यानी कुछ शंकाएं हैं. आइए नजर डालते हैं, उन बातों पर यदि वे हुई होतीं तो सत्ता तक आप की राह आसान हो जाती-

यदि मीडिया सर्वे के नतीजों को देखें तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत होने वाली है, लेकिन मामला इतना नजदीकी है कि पिछली बार की तरह फिर त्रिशंकु विधानसभा भी मिल सकती है. आप के नेता खुद पूछते फिर रहे हैं कि क्या माहौल है? कैसा लग रहा है? यानी कुछ शंकाएं हैं. प्रचार का आज अंतिम दिन है. इसलिए सिलसिलेवार नजर डालते हैं, उन बातों पर यदि वे हुई होतीं तो सत्ता तक आप की राह आसान हो जाती-

1. शुरुआत लोगों की भावना और प्रेस कवरेज से करते हैं. यूपीए के लिए यह निगेटिव थी तो सरकार चली गई. पिछले चुनाव में यह आप के पक्ष में थी तो उसे अच्छी-खासी सीटें मिलीं. लेकिन इस बार मामला रहस्यमय है, क्योंकि आम आदमी पार्टी ने अपने पत्ते खोलने में देर कर दी.

2. फरवरी 2014 में इस्तीफा देने के बाद से केजरीवाल ने मीडिया को अपना दुश्मन मान लिया. वे कई बार उसे बिकाऊ कह चुके हैं. लोकसभा चुनाव के कुछ पहले उन्होंने थोड़ा संवाद कायम किया, फिर दूर चले गए. विधानसभा की घोषणा तक उनके तेवर तीखे ही थे. उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं थी और इसका फायदा उन्हें आप के पक्ष में माहौल को मजबूत करने के लिए ही मिलता. जैसा पिछले चुनाव में मिला था.

3. राज्य दर राज्य जीत हासिल कर जिस तरह भाजपा ने यह साबित किया कि देश में वही सत्ता का पर्याय है और राष्ट्रीय मुद्दों पर उससे बेहतर पकड़ और किसी की नहीं. आम आदमी पार्टी दिल्ली के मामले में ऐसा ही रुख शुरू से अपना सकती थी.

4. दिल्ली में भी मुकाबला केजरीवाल और मोदी के ही बीच है. लेकिन बनारस के मुकाबले यहां आप का आधार बहुत मजबूत है. जबकि भाजपा में कई गुट है. केजरीवाल के प्रचार का फोकस आखिर तक यदि इसी गुटबाजी पर रहता तो उन्हें और ताकत मिलती.

5. किरण बेदी पर हमलावर रुख के मामले में केजरीवाल ने नरमी अपनाई. जबकि उनके पास मुद्दे भी थे और समय भी. वे चाहते तो दिल्ली के बाकी भाजपा नेताओं की तरह उन्हें भी बैकफुट पर लाकर मुकाबला एकतरफा बना सकते थे. जैसा...

यदि मीडिया सर्वे के नतीजों को देखें तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत होने वाली है, लेकिन मामला इतना नजदीकी है कि पिछली बार की तरह फिर त्रिशंकु विधानसभा भी मिल सकती है. आप के नेता खुद पूछते फिर रहे हैं कि क्या माहौल है? कैसा लग रहा है? यानी कुछ शंकाएं हैं. प्रचार का आज अंतिम दिन है. इसलिए सिलसिलेवार नजर डालते हैं, उन बातों पर यदि वे हुई होतीं तो सत्ता तक आप की राह आसान हो जाती-

1. शुरुआत लोगों की भावना और प्रेस कवरेज से करते हैं. यूपीए के लिए यह निगेटिव थी तो सरकार चली गई. पिछले चुनाव में यह आप के पक्ष में थी तो उसे अच्छी-खासी सीटें मिलीं. लेकिन इस बार मामला रहस्यमय है, क्योंकि आम आदमी पार्टी ने अपने पत्ते खोलने में देर कर दी.

2. फरवरी 2014 में इस्तीफा देने के बाद से केजरीवाल ने मीडिया को अपना दुश्मन मान लिया. वे कई बार उसे बिकाऊ कह चुके हैं. लोकसभा चुनाव के कुछ पहले उन्होंने थोड़ा संवाद कायम किया, फिर दूर चले गए. विधानसभा की घोषणा तक उनके तेवर तीखे ही थे. उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं थी और इसका फायदा उन्हें आप के पक्ष में माहौल को मजबूत करने के लिए ही मिलता. जैसा पिछले चुनाव में मिला था.

3. राज्य दर राज्य जीत हासिल कर जिस तरह भाजपा ने यह साबित किया कि देश में वही सत्ता का पर्याय है और राष्ट्रीय मुद्दों पर उससे बेहतर पकड़ और किसी की नहीं. आम आदमी पार्टी दिल्ली के मामले में ऐसा ही रुख शुरू से अपना सकती थी.

4. दिल्ली में भी मुकाबला केजरीवाल और मोदी के ही बीच है. लेकिन बनारस के मुकाबले यहां आप का आधार बहुत मजबूत है. जबकि भाजपा में कई गुट है. केजरीवाल के प्रचार का फोकस आखिर तक यदि इसी गुटबाजी पर रहता तो उन्हें और ताकत मिलती.

5. किरण बेदी पर हमलावर रुख के मामले में केजरीवाल ने नरमी अपनाई. जबकि उनके पास मुद्दे भी थे और समय भी. वे चाहते तो दिल्ली के बाकी भाजपा नेताओं की तरह उन्हें भी बैकफुट पर लाकर मुकाबला एकतरफा बना सकते थे. जैसा कि लोकसभा चुनाव में मोदी ने राहुल गांधी के साथ किया.

6. आप की ओर से यह बात भी उतनी उभर के नहीं आई कि यदि दिल्ली में केजरीवाल मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होते तो किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी तो क्या भाजपा का टिकट भी नहीं मिलता. यदि वे मुख्यमंत्री बन भी गईं तो मोदी के लिए उसी तरह होंगी, जैसे सोनिया के मनमोहन सिंह थे.

7. पिछले चुनाव में केजरीवाल ने सीधे-सीधे शीला दीक्षित और कांग्रेस को कठघरे में रखा और सीधा हमला बोला. लेकिन इस चुनाव में उन्होंने अनावश्यक रूप से अपना आत्मविश्वास कमजोर किया और भाजपा से बराबरी से लड़ रहे हैं. मानो उनके खिलाफ कोई एंटी-इनकंबेंसी हो.

8. जब भाजपा प्रचार कर रही है कि केंद्र और राज्य में एक पार्टी की सरकार होने से फायदा मिलेगा, तो केजरीवाल इसे भाजपा की धमकी के रूप में प्रचारित कर सकते थे. और चुनौती दे सकते थे कि मोदी दिल्ली तो क्या किसी भी राज्य का हक नहीं छीन सकते.

9. वे सवाल उठा सकते थे कि देश का प्रधानमंत्री एक राज्य में पार्टी का प्रचार क्यों कर रहा है. क्या यदि विरोधी पार्टी जीती तो वह विपक्ष की भूमिका निभाएगा. वे मोदी को दबाव में डालने के लिए यह भी कह सकते थे कि शायद यह हमेशा चुभने वाला अनुभव होता कि जिस लुटियंस में बैठकर वे केंद्र सरकार चला रहे हैं, उस शहर में उनकी सरकार नहीं है.

10. आम आदमी पार्टी ने दो कैंपेन अलग-अलग चलाए. पहले इस्तीफा देने को लेकर केजरीवाल माफी रहे. बाद में बताया गया कि उनकी 49 दिन की सरकार में क्या-क्या काम हुए. यदि ये कैंपेन एकसाथ चलते तो प्रचार मुद्दों पर और भावनात्मक साथ-साथ होता.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲