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सावरकर को भाजपा और संघ से ज्यादा पॉपुलर तो खुद राहुल गांधी ने किया है!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 29 मार्च, 2023 03:55 PM
  • 29 मार्च, 2023 03:55 PM
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अपनी रैलियों में बार बार सावरकर का जिक्र करने वाले राहुल गांधी इस बात को जितना जल्दी समझ जाएं उतना बेहतर है कि, यदि वो सावरकर के नाम का इस्तेमाल सिर्फ तुष्टिकरण के लिए कर रहे हैं, तो इसका इसलिए भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे अपने आप से नहीं जोड़ पाता.

पहले संसद से सदस्यता ख़त्म होना फिर सरकारी बंगला गंवाना और अब रंजीत सावरकर की खरी खरी ... कोई शक नहीं कि, जैसा गर्दिश का आलम है. कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चुनौतियां जल्दी ख़त्म नहीं होने वाली हैं. सावरकर पर दिए गए राहुल गांधी के हालिया बयान के बाद, एक बार फिर देश की सियासत में गर्मी पैदा हो गयी और भाजपा समेत शिवसेना के निशाने पर कांग्रेस है. सावरकर को लेकर जो घमसान मचा है उसका सबसे बुरा असर हमें महाराष्ट्र में दिखाई दे रहा है जहां उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस शिवसेना गठबंधन ख़त्म करने तक की बात कह डाली है. उद्धव ने कहा है कि महाराष्ट्र में किसी भी सूरत में सावरकर का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. ध्यान रहे अभी बीते दिनों ही संसद से सदस्यता ख़त्म किये जाने के बाद राहुल गांधी मीडिया से मुखातिब हुए थे. पत्रकारों से राहुल ने कहा था कि वह सरकार से डरेंगे नहीं, सरकार उनको डरा नहीं सकती है. उन्होंने सूरत में आपराधिक मानहानि मामले में सरकार से माफी इसलिए नहीं मांगी है क्योंकि उनका नाम गांधी है, सावरकर नहीं, और गांधी किसी से माफी नहीं मांगता है.

सावरकर को जो तरजीह राहुल ने अपने भाषणों में दी उसका खामियाजा आज कांग्रेस पार्टी भोग रही है

कोई संदेह नहीं है कि सावरकर पर राहुल की राय महाराष्ट्र में उद्धव के गले में फंसी हड्डी है. लेकिन सवाल ये है कि 2014 के बाद से लगातार अपनी बातों में जिस तरह राहुल ने सावरकर को तरजीह दी है क्या उसकी जरूरत है भी? या फिर ये राहुल गांधी की विवादों के जरिये मीडिया लाइम लाइट में रहने का कोई फितूर है. इतिहास पर नजर डालें और उसे भारतीय राजनीति के परिदृश्य में देखें तो कभी सावरकर का ऐसा कद था ही नहीं किउन्हें लेकर बहुत ज्यादा जिक्र हो.

सावरकर के मामले में रोचक ये भी रहा कि 2014 से...

पहले संसद से सदस्यता ख़त्म होना फिर सरकारी बंगला गंवाना और अब रंजीत सावरकर की खरी खरी ... कोई शक नहीं कि, जैसा गर्दिश का आलम है. कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चुनौतियां जल्दी ख़त्म नहीं होने वाली हैं. सावरकर पर दिए गए राहुल गांधी के हालिया बयान के बाद, एक बार फिर देश की सियासत में गर्मी पैदा हो गयी और भाजपा समेत शिवसेना के निशाने पर कांग्रेस है. सावरकर को लेकर जो घमसान मचा है उसका सबसे बुरा असर हमें महाराष्ट्र में दिखाई दे रहा है जहां उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस शिवसेना गठबंधन ख़त्म करने तक की बात कह डाली है. उद्धव ने कहा है कि महाराष्ट्र में किसी भी सूरत में सावरकर का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. ध्यान रहे अभी बीते दिनों ही संसद से सदस्यता ख़त्म किये जाने के बाद राहुल गांधी मीडिया से मुखातिब हुए थे. पत्रकारों से राहुल ने कहा था कि वह सरकार से डरेंगे नहीं, सरकार उनको डरा नहीं सकती है. उन्होंने सूरत में आपराधिक मानहानि मामले में सरकार से माफी इसलिए नहीं मांगी है क्योंकि उनका नाम गांधी है, सावरकर नहीं, और गांधी किसी से माफी नहीं मांगता है.

सावरकर को जो तरजीह राहुल ने अपने भाषणों में दी उसका खामियाजा आज कांग्रेस पार्टी भोग रही है

कोई संदेह नहीं है कि सावरकर पर राहुल की राय महाराष्ट्र में उद्धव के गले में फंसी हड्डी है. लेकिन सवाल ये है कि 2014 के बाद से लगातार अपनी बातों में जिस तरह राहुल ने सावरकर को तरजीह दी है क्या उसकी जरूरत है भी? या फिर ये राहुल गांधी की विवादों के जरिये मीडिया लाइम लाइट में रहने का कोई फितूर है. इतिहास पर नजर डालें और उसे भारतीय राजनीति के परिदृश्य में देखें तो कभी सावरकर का ऐसा कद था ही नहीं किउन्हें लेकर बहुत ज्यादा जिक्र हो.

सावरकर के मामले में रोचक ये भी रहा कि 2014 से पहले कभी भाजपा ने भी उन्हें बहुत अधिक गंभीरता से नहीं लिया. लेकिन जिस तरह राहुल ने बार बार अपनी राजनीति चमकाने के लिए सावरकर के नाम को कैश किया भाजपा ने पलटवार करने में कहीं भी चूक नहीं की और मौके का पूरा फायदा उठाते हुए राहुल गांधी और कांग्रेस को जवाब उन्हीं भाषा में दिया.

जिक्र महाराष्ट्र और उद्धव ठाकरे के गठबंधन तोड़ने का हुआ है तो ये बता देना भी बहुत जरूरी है कि 2014 से पहले तक सावरकर को महाराष्ट्र से बाहर देश के दूसरे राज्यों में राजनीतिक पहचान और सियासी अहमियत नहीं मिली लेकिन जिस तरह राहुल गांधी ने बार बार लगातार अपने भाषणों में सावरकर का जिक्र किया है क्या उत्तर प्रदेश और बंगाल क्या हिमाचल और कर्नाटक आज देश की सियासत में सावरकर सर्वत्र हैं.

चूंकि महाराष्ट्र में आम मराठी मानस के बीच सावरकर को लेकर एक सलग सेंटीमेंट है इसलिए भले ही राहुल गांधी इस बात को न समझ रहे हों या फिर वो न समझना चाहते हों लेकिन उद्धव जानते हैं कि यदि सावरकर के तिरस्कार पर चुप्पी साधी गयी तो इसका खामियाजा उन्हें आने वाले चुनावों में भोगना पड़ेगा.

इसके अलावा उद्धव ठाकरे इस बात को भी बखूबी जानते हैं कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राहुल गांधी के पास खोने को कुछ बचा नहीं है. लेकिन बतौर राजनेता अगर वो राहुल गांधी द्वारा सावरकर के अपमान पर चुप रहते हैं तो यकीनन उनकी सियासत प्रभावित होगी. बताते चलें कि चाहे वो बीजेपी हो या फिर उद्धव ठाकरे इन्होने हमेशा ही सावरकर को महान स्वतंत्रता सेनानी बताया है. जबकि कांग्रेस और राहुल गांधी का जैसा रुख सावरकर के प्रति रहा है उन्होंने हमेशा ही सावरकर की भूमिका को लेकर सवाल किया.

बहरहाल, अपनी रैलियों में, भाषणों में बार बार सावरकर का जिक्र करने वाले राहुल गांधी इस बात को जितना जल्दी समझ जाएं उतना बेहतर है कि, यदि वो सावरकर के नाम का इस्तेमाल सिर्फ तुष्टिकरण के लिए कर रहे हैं. तो इसका इसलिए भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे अपने आप से नहीं जोड़ पाता.

बात जब सावरकर के सन्दर्भ में भाजपा या आरएसएस की आती है तो अगर आज सावरकर पूरे देश में छाए हैं तो इसकी भी वहज राहुल ही हैं. भाजपा और संघ ने वही किया जो राहुल चाह रहे थे. जाते जाते राहुल गांधी से हम एक बात और कहेंगे कि जितना जल्दी हो सके वो अपने भाषणों में सावरकर का जिक्र करना छोड़ दें. बतौर राजनेता उनका राजनीतिक भविष्य क्या होता है इसका फैसला तो वक़्त करेगा लेकिन अगर आने वाले समय में सावरकर के मुद्दे पर राहुल बेवजह की बहस बंद कर देते हैं तो इसका फायदा एक पार्टी के रूप में कांग्रेस को होगा कम से कम मुश्किल वक़्त में दोस्तों का साथ उसे मिल जाएगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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