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भारत को भारी पड़ती नेहरु की ऐतिहासिक भूलें

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 14 नवम्बर, 2018 04:18 PM
  • 14 नवम्बर, 2018 04:17 PM
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जवाहरलाल नेहरु कश्मीर में गलती पर गलती करते ही रहे. वे कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले गए. इसीलिए तो पाकिस्तान बार-बार कहता है कि कश्मीर विवाद को भारत ही इस मंच पर लेकर गया था.

पंडित जवाहर लाल नेहरु के दौर में भारत–चीन संबंध और डोकलम विवाद पर एशिया के दोनों देशों के बीच, जिस तरह से तनातनी का माहौल बनने के बाद, चीन अंतत: पीछे हटा, उसे गौर से समझने की आवश्यकता है. पंडित नेहरु की पिलपिली चीन नीति का परिणाम ही यह रहा कि देश को अपने पड़ोसी से 1962 में युद्ध लड़ना पड़ा और युद्ध में मुंह की खानी भी पड़ी थी. चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को गले लगाने और 'हिंदी चीनी भाई-भाई' के नेहरु के उदारवादी नारों को घूर्त चीन ने भारत की कमजोरी समझा. उस युद्ध के 56 सालों के बाद आज भी, चीन ने हमारे महत्वपूर्ण अक्साई चिन पर अपना कब्ज़ा जमा रखा है. चीन की तरफ से कब्जाये हुए भारतीय इलाके क्षेत्रफल 37,244 वर्ग किलोमीटर है. जितना क्षेत्रफल कश्मीर घाटी का है, उतना ही बड़ा है अक्साई चिन.

यह सच है कि विदेश विभाग पंडित नेहरू ने अपने कार्यक्षेत्र में ही रखा था, परंतु कई बार उपप्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में सरदार पटेल को भी शामिल किया जाता. सरदार पटेल की दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म ही नहीं होता. पटेल ने 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में चीन तथा उसकी तिब्ब्त के प्रति नीति से सावधान रहने को कहा था. अपने पत्र में पटेल ने चीन को भावी शत्रु तक कह दिया था. लेकिन, नेहरु किसी की सुनते ही कहां थे.

जवाहरलाल नेहरू की भूलें भारत आज भुगत रहा है

नहीं झेल पाते थे आलोचना

चीन से पराजय के बाद 14 नवंबर,1963 यानी नेहरू के जन्मदिन पर संसद में युद्ध के बाद की स्थिति पर चर्चा हुई. नेहरु ने प्रस्ताव पर अपनी बात रखते हुए कहा- 'मुझे दुख और हैरानी होती है कि अपने को विस्तारवादी शक्तियों से लड़ने का दावा करने वाला चीन खुद विस्तारवादी ताकतों के नक्शेकदम पर...

पंडित जवाहर लाल नेहरु के दौर में भारत–चीन संबंध और डोकलम विवाद पर एशिया के दोनों देशों के बीच, जिस तरह से तनातनी का माहौल बनने के बाद, चीन अंतत: पीछे हटा, उसे गौर से समझने की आवश्यकता है. पंडित नेहरु की पिलपिली चीन नीति का परिणाम ही यह रहा कि देश को अपने पड़ोसी से 1962 में युद्ध लड़ना पड़ा और युद्ध में मुंह की खानी भी पड़ी थी. चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को गले लगाने और 'हिंदी चीनी भाई-भाई' के नेहरु के उदारवादी नारों को घूर्त चीन ने भारत की कमजोरी समझा. उस युद्ध के 56 सालों के बाद आज भी, चीन ने हमारे महत्वपूर्ण अक्साई चिन पर अपना कब्ज़ा जमा रखा है. चीन की तरफ से कब्जाये हुए भारतीय इलाके क्षेत्रफल 37,244 वर्ग किलोमीटर है. जितना क्षेत्रफल कश्मीर घाटी का है, उतना ही बड़ा है अक्साई चिन.

यह सच है कि विदेश विभाग पंडित नेहरू ने अपने कार्यक्षेत्र में ही रखा था, परंतु कई बार उपप्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में सरदार पटेल को भी शामिल किया जाता. सरदार पटेल की दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म ही नहीं होता. पटेल ने 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में चीन तथा उसकी तिब्ब्त के प्रति नीति से सावधान रहने को कहा था. अपने पत्र में पटेल ने चीन को भावी शत्रु तक कह दिया था. लेकिन, नेहरु किसी की सुनते ही कहां थे.

जवाहरलाल नेहरू की भूलें भारत आज भुगत रहा है

नहीं झेल पाते थे आलोचना

चीन से पराजय के बाद 14 नवंबर,1963 यानी नेहरू के जन्मदिन पर संसद में युद्ध के बाद की स्थिति पर चर्चा हुई. नेहरु ने प्रस्ताव पर अपनी बात रखते हुए कहा- 'मुझे दुख और हैरानी होती है कि अपने को विस्तारवादी शक्तियों से लड़ने का दावा करने वाला चीन खुद विस्तारवादी ताकतों के नक्शेकदम पर चलने लगा.' नेहरु बता रहे थे कि चीन ने किस तरह से भारत की पीठ पर छुरा घोंपा. वे बोल ही रहे थे कि करनाल से सांसद स्वामी रामेश्वरनंद ने व्यंग्य भरे अंदाज में कहा, ‘चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा.’ इस टिप्पणी पर नेहरु नाराज हो गए. कहने लगे, 'अगर माननीय सदस्य चाहें तो उन्हें सरहद पर भेजा जा सकता है. सदन को भी नेहरु जी की यह बात समझ नहीं आई.' पंडित नेहरु प्रस्ताव पर बोलते ही जा रहे थे. तब एक और सदस्य एच.वी.कामथ ने कहा, 'आप बोलते रहिए. हम बीच में व्यवधान नहीं डालेंगे.' अब नेहरुजी विस्तार से बताने लगे कि चीन ने भारत पर हमला करने से पहले कितनी तैयारी की हुई थी. इसी बीच, स्वामी रामेश्वरानंद ने फिर तेज आवाज में कहा, ‘मैं तो यह जानने में उत्सुक हूं कि जब चीन तैयारी कर रहा था, तब आप क्या कर रहे थे?' अब नेहरु जी आपा खो बैठे और कहने लगे, ‘मुझे लगता है कि स्वामी जी को कुछ समझ नहीं आ रहा. मुझे अफसोस है कि सदन में इतने सारे सदस्यों को रक्षा मामलों की पर्याप्त समझ नहीं है.’

यानी जिस नेहरु जी को बहुत डेमोक्रेटिक व्यक्ति सिद्ध करने की कोशिश होती रही है, वह दरअसल छोटी सी आलोचना झेलने का माद्दा भी नहीं रखते थे. अपने को गुट निरपेक्ष आंदोलन का मुखिया बताने वाले नेता चीन के साथ संबंधों को मजबूत करना तो छोडिए, संबंधों को सामान्य बनाने में भी मात खा गए. कहां चली गई थी उनकी विदेश मामलों में कथित पकड़?

भारत-चीन युद्ध (1962) के दौरान पं. नेहरूफर्क तो देखिए

नेहरु के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान चीन से सम्मान और अपनी भूमि खोने वाले मोदी जी के नेतृत्व वाले भारत ने डोकलाम में चीन की औकात समझा दी थी. डोकलम विवाद पर भारत को 1962 की बार-बार याद दिलाने वाला चीन पीछे मुड़ गया था. याद नहीं आता जब चीन ने इस तरह से कभी रक्षात्मक रुख अपनाया हो. वो डोकलम पर मात खाने के बाद चुप हो गया. इसे कहते हैं पुनर्मुसिको भाव! उसे समझ में आ गया था कि यदि उसने तनातनी की तो इस बार बहुत कसकर मार पड़ेगी. इस बार उसे समझा दिया गया था भारत अब तो उसकी जान निकाल देगा.

डोकमाल पर चीन को शिकस्त देना भारत की अब तक की सबसे बड़ी ऐतिहासिक सफलता थी. विस्तारवादी चीन तोयुद्ध की पूर्व भूमिका बना रहा था. लेकिन, भारत को पीछा हटता न देखकर चीन की आंखें फटी रह गईं. फिर चीन के ऊपर भी देश के भीतर से भारत में काम कर रही चीनी कंपनियों का भारी दबाव था कि वो भारत से जंग ना करे. आखिरकार उस स्थिति में चीन को ही हजारों करोड़ की आर्थिक नुकसान होता.

कश्मीर पर अक्ष्मय भूल

कश्मीर का विवाद तो नेहरू के सरासर जिद्दीपन की ही देन रहा है. पाकिस्तानी सेना ने 22 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर पर हमला बोला. कश्मीर सरकार के बार-बार आग्रह के बाद भी नेहरु जी कश्मीर को पाकिस्तान से बचाने में देरी करते रहे. अंत में 27 अक्तूबर, 1947 को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई. भारतीय सेना ने कबाइलियों को खदेड़ दिया. सात नवम्बर को बारामूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु तब ही नेहरु ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर युद्ध विराम कर दिया. अगर नेहरु ने वह ऐतिहासिक गलती न की होती तो सारा कश्मीर हमारे पास होता. यह बात पहेली ही है कि जब पाकिस्तान के कबाइली हमलावरों को कश्मीर से खदेड़ा जा रहा था तब नेहरु को संघर्ष विराम करने की इतनी जल्दी ही क्या थी. नेहरु की उसी भूल के कारण आज भी मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र पाकिस्तान के पास हैं. ये सभी क्षेत्र आज पाकिस्तान में आजाद कश्मीर के नाम से जाने जाते हैं. कश्मीर को पाकिस्तान से बचाने वाली भारतीय सेना की उस टुकड़ी का नेतृत्व भारतीय सेना के अफसर एस के सिन्हा ही कर रहे थे, जो बाद में जनरल और कश्मीर और असम के गवर्नर भी बने.

उन्होंने मुझे स्वयं एक बार बताया था कि नेहरू ने 1947 में सेनाओं को मुज़फ़्फ़राबाद जाने से रोक दिया था. मुज़फ़्फ़राबाद अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की राजधानी है. जनरल सिन्हा ने यह भी बताया था कि भारतीय सेना उड़ी तक पहुंच गई थी, लेकिन नेहरु जी ने फैसला किया कि पुंछ को छुड़ाया जाना ज़रूरी है. इसलिए भारतीय सेना मुज़फ़्फ़राबाद नहीं गई.

कश्मीर विवाद तो नेहरू के जिद्दीपन की ही देन रहा है

बहरहाल, नेहरु कश्मीर में गलती पर गलती करते ही रहे. वे कश्मीर के मुद्धे को संयुक्त राष्ट्र में ले गए. इसीलिए तो पाकिस्तान बार-बार कहता है कि कश्मीर विवाद को भारत ही इस मंच पर लेकर गया था.

नेहरु ने बाबा साहेब अम्बेडकर की सलाह की अनदेखी करते हुए भारतीय संविधान में धारा 370 को जुड़वा दिया था. यह उन्होंने अपने परम प्रिय मित्र शेख अब्दुल्ला की सलाह पर किया था. इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा. यानी उन्होंने देश में दो संविधान का रास्ता बनाया. तो देश के पहले प्रधानमंत्री ने देश को कई असाध्य समस्याओं में फंसा दिया.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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