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गुप्तेश्वर पांडेय की सारी उपलब्धियां सुशांत सिंह राजपूत केस तक ही क्यों सिमट जा रही हैं?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 25 सितम्बर, 2020 10:55 PM
  • 25 सितम्बर, 2020 10:55 PM
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गुप्तेश्वर पांडेय (Gupteshwar Pandey) पर अब राजनीति का रंग पूरी तरह चढ़ने और निखरने लगा है. अपने VRS की सफाई में वो सुशांत सिंह राजपूत केस (Sushant Singh Rajput Case) को चुनाव आयोग (Election Commission) से जोड़ देते हैं - और कोशिश है कि सुशांत केस की सीबीआई जांच के श्रेय में उनकी भी हिस्सेदारी हो - क्या BJP ऐसा होने देगी?

गुप्तेश्वर पांडेय (Gupteshwar Pandey) अचानक 'गरीब' होने का दावा करने लगे हैं. नजदीकियां तो उनकी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जोड़ कर देखी जा रही हैं, लेकिन उनके चुनावी जुमले लालू प्रसाद यादव की तरह लगते हैं - बताते हैं कि वो कभी भैंस चराया करते थे. गुस्से को काबू में रखते हुए पूछते हैं, ‘हर कोई पूछ रहा था कि क्या मैं चुनाव लड़ूंगा? मैं अभी तक किसी भी राजनीतिक पार्टी में शामिल नहीं हुआ हूं - मैं सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि क्या चुनाव लड़ना एक पाप है? क्या मैं वीआरएस लेने के बाद चुनाव लड़ने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा? क्या ऐसा करना असंवैधानिक, गैरकानूनी या अनैतिक है?’

नहीं. ऐसा बिलकुल नहीं है, लेकिन बातों बातों में ही वो बता डालते हैं कि वो खास बात कौन है जिसके चलते वो मजबूरन वीआरएस लेने को मजबूर हुए और फिर पूछते हैं - 'चुनाव आयोग (Election Commission) हटा देता तो?'

गुप्तेश्वर पांडेय के इर्द गिर्द एक सवाल जरूर मंडरा रहा है और वो है सुशांत सिंह राजपूत केस (Sushant Singh Rajput Case) - गौर करने वाली बात ये भी है कि वो खुद भी चाहते हैं कि उनको इससे जोड़े रखा जाये. कम से कम चुनाव तक तो बिलकुल ऐसा ही हो.

गुप्तेश्वर पांडेय के राजनीतिक तेवर तो उसी दिन नजर आ गये थे जिस दिन सुशांत सिंह राजपूत केस में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच को मंजूरी दी, लेकिन अब वो बिलकुल एक मंझे हुए नेता की तरह अपनी दावेदारी पेश करने लगे हैं, 'अगर मौका मिला और इस योग्य समझा गया कि मुझे राजनीति में आना चाहिए तो मैं आ सकता हूं लेकिन वे लोग निर्णय करेंगे जो हमारी मिट्टी के हैं... बिहार की जनता है - और उसमें पहला हक तो बक्सर के लोगों का है जहां मैं पला-बढ़ा हूं.' हक की ये बात तो बिलकुल सही है.

ये कैसे कैसे ऑफर मिल रहे हैं?

बिहार के डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडेय काफी हद तक कंगना रनौत की तरह सुर्खियां बटोर रहे हैं. बिलकुल अलहदा फील्ड से आने के बावजूद कॉमन बात ये है कि दोनों सुशांत सिंह केस में मजबूत आवाज बने हुए हैं. राजनीति को लेकर...

गुप्तेश्वर पांडेय (Gupteshwar Pandey) अचानक 'गरीब' होने का दावा करने लगे हैं. नजदीकियां तो उनकी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जोड़ कर देखी जा रही हैं, लेकिन उनके चुनावी जुमले लालू प्रसाद यादव की तरह लगते हैं - बताते हैं कि वो कभी भैंस चराया करते थे. गुस्से को काबू में रखते हुए पूछते हैं, ‘हर कोई पूछ रहा था कि क्या मैं चुनाव लड़ूंगा? मैं अभी तक किसी भी राजनीतिक पार्टी में शामिल नहीं हुआ हूं - मैं सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि क्या चुनाव लड़ना एक पाप है? क्या मैं वीआरएस लेने के बाद चुनाव लड़ने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा? क्या ऐसा करना असंवैधानिक, गैरकानूनी या अनैतिक है?’

नहीं. ऐसा बिलकुल नहीं है, लेकिन बातों बातों में ही वो बता डालते हैं कि वो खास बात कौन है जिसके चलते वो मजबूरन वीआरएस लेने को मजबूर हुए और फिर पूछते हैं - 'चुनाव आयोग (Election Commission) हटा देता तो?'

गुप्तेश्वर पांडेय के इर्द गिर्द एक सवाल जरूर मंडरा रहा है और वो है सुशांत सिंह राजपूत केस (Sushant Singh Rajput Case) - गौर करने वाली बात ये भी है कि वो खुद भी चाहते हैं कि उनको इससे जोड़े रखा जाये. कम से कम चुनाव तक तो बिलकुल ऐसा ही हो.

गुप्तेश्वर पांडेय के राजनीतिक तेवर तो उसी दिन नजर आ गये थे जिस दिन सुशांत सिंह राजपूत केस में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच को मंजूरी दी, लेकिन अब वो बिलकुल एक मंझे हुए नेता की तरह अपनी दावेदारी पेश करने लगे हैं, 'अगर मौका मिला और इस योग्य समझा गया कि मुझे राजनीति में आना चाहिए तो मैं आ सकता हूं लेकिन वे लोग निर्णय करेंगे जो हमारी मिट्टी के हैं... बिहार की जनता है - और उसमें पहला हक तो बक्सर के लोगों का है जहां मैं पला-बढ़ा हूं.' हक की ये बात तो बिलकुल सही है.

ये कैसे कैसे ऑफर मिल रहे हैं?

बिहार के डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडेय काफी हद तक कंगना रनौत की तरह सुर्खियां बटोर रहे हैं. बिलकुल अलहदा फील्ड से आने के बावजूद कॉमन बात ये है कि दोनों सुशांत सिंह केस में मजबूत आवाज बने हुए हैं. राजनीति को लेकर भी दोनों के दावे करीब करीब मिलते जुलते लगते हैं.

अव्वल तो गुप्तेश्वर पांडेय कह रहे हैं कि राजनीति में आने को लेकर अब तक वो कोई फैसला नहीं कर पाये हैं, लेकिन लगे हाथ वो ये भी बता देते हैं कि उनके पास कैसे कैसे ऑफर आ रहे हैं. कंगना रनौत ने भी उर्मिला मातोंडकर को खरी खोटी सुनाने के दौरान कहा था कि बीजेपी के लिए टिकट हासिल करना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं है.

राजनीतिक को लेकर गुप्तेश्वर पांडेय एक ही वक्त इंकार और इकरार दोनों करते हैं, कहते हैं, ‘राजनीति में आने का अब मेरा मन हो गया है... अब स्थिति ऐसी बन गयी है कि मुझे लगता है कि अब इसमें आ जाना चाहिए.’

बिहार चुनाव से पहले गुप्तेश्वर पांडेय VRS नहीं लिये होते तो मालूम भी नहीं होता कि वो कभी भैंस भी चराया करते थे!

बड़े गर्व से बताते भी हैं, 'बिहार की जनता मुझे पसंद करती है,' अगर किसी को ऐसा लगता है तो ये बताना बनता भी है. जनता के मन में गुप्तेश्वर पांडेय को लेकर जो भी बात हो, लेकिन वो ये जरूर मानती है कि गुप्तेश्वर पांडेय को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार निश्चित तौर पर पसंद करते हैं. 'चट मंगनी पट ब्याह' वाले अंदाज में जिस तरह से गुप्तेश्वर पांडेय का वीआरएस मंजूर हुआ है, ये साबित भी करता है - और रिया चक्रवर्ती के वकील सतीश मानशिंदे ने भी यही सवाल उठाया है.

लेकिन ऐन उसी वक्त गुप्तेश्वर पांडेय एक ऐसा दावा भी करते हैं जो उनके सारे दावों के प्रति संदेह पैदा करता है - 'मैं कहीं से भी चुनाव जीत सकता हूं... मुझे 14 सीटों से चुनाव लड़ने का ऑफर मिल रहा है.'

गुप्तेश्वर पांडेय को ऐसा क्यों लगता है कि उनकी लोकप्रियता आसमान में कुलांचे भर रही है. जिस नीतीश कुमार के बूते वो राजनीति के ख्वाब संजो रखे हैं, खुद उनकी लोकप्रियता में भारी गिरावट दर्ज की गयी है और ये ज्यादा दिन पहले की बात नहीं है. बीजेपी के एक आंतरिक सर्वे के मुताबिक नीतीश कुमार के सामने सत्ता विरोधी लहर भी चुनौती बन कर खड़ी है. फिर गुप्तेश्वर पांडेय को ऐसा क्यों लगता है कि वो बिहार में इतने लोकप्रिय हो चुके हैं?

कहीं गुप्तेश्वर पांडेय को ये गलतफहमी या इस बात का गुमान तो नहीं हो गया है कि सुशांत सिंह राजपूत केस में सीबीआई जांच सिर्फ उनकी कोशिशों का नतीजा है? अगर ऐसी कोई बात मन में है तो ध्यान रहे, बीजेपी ये श्रेय नीतीश कुमार के साथ भी शेयर करने वाली नहीं है.

बक्सर की किसी सीट तक तो ठीक है - या फिर बिहार की एक लोक सभा सीट के लिए होने जा रहे उप चुनाव को लेकर भी संभावना हो सकती है. हो सकता है नीतीश कुमार उप चुनाव में गुप्तेश्वर पांडेय को जेडीयू का उम्मीदवार भी बना दें, लेकिन ये बिहार के 14 इलाके कौन कौन से हैं जहां से गुप्तेश्वर पांडेय चुनाव लड़ने के लिए ऑफर मिलने की बात कर रहे हैं?

फुल टाइम राजनीति करने वाले जीतन राम मांझी और चिराग पासवान के लिए भी ऐसा टास्क मुश्किल हो सकता है. जीतन राम मांझी तो खुद एमएलसी की सीट चाह रहे हैं, ये तो नीतीश कुमार है जो चाहते हैं कि वो विधानसभा का चुनाव लड़ें. सुनने में तो ये भी आ रहा है कि चिराग पासवान भी विधानसभा चुनाव लड़ सकते हैं, ताकि नीतीश कुमार पर भी प्रत्यक्ष चुनाव के लिए दबाव बना सकें. चिराग पासवान फिलहाल जमुई से लोक सभा सदस्य हैं.

सवाल ये भी है कि चुनाव लड़ने के ऑफर के जो दावे गुप्तेश्वर पांडेय कर रहे हैं वो कौन कर रहा है? क्या कोई एक ही राजनीतिक दल गुप्तेश्वर पांडेय को 14 विधानसभा क्षेत्रों में से किसी भी जगह से चुनाव लड़ने की पेशकश किया है - या अलग अलग राजनीतिक दलों से गुप्तेश्वर पांडेय को ऐसे ऑफर मिल रहे हैं?

सबसे दिलचस्प तो है ऐसे लंबे चौड़े दावों के दरम्यान गुप्तेश्वर पांडेय का एक डर - और वो भी चुनाव आयोग से!

अभी चुनाव आयोग तो नहीं, लेकिन इंडियन पुलिस फाउंडेशन ने एक वीडियो को ट्वीट कर कहा है- 'एक राज्य के पुलिस महानिदेशक अगर ऐसे वीडियो बनाते हैं तो उनकी पसंद बेहद खराब है - वो अपने पद और वर्दी दोनों को बदनाम कर रहे हैं.' वीडियो में गुप्तेश्वर पांडेय को रॉबिन हुड के तौर पर पेश किया गया है.

ऐसे कोई यूं ही तो नहीं डर जाता है?

VRS यानी स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने के बाद गुप्तेश्वर पांडेय ने फेसबुक लाइव और टीवी इंटरव्यू में अपने मन की बातें खुल कर की है - और इस दौरान चुनाव आयोग को लेकर एक ऐसी बात भी कह डाली है जो अलग से कई सवालों को जन्म दे रही है.

भारत में तो चुनाव आयोग की अहमियत लोगों को टीएन शेषन ने समझायी, लेकिन बिहार के लोगों की नजर में हीरो केजे राव रहे हैं. वही केजे राव जिनके डर से बिहार के बाहुबली और बूथ कैप्चर करने वाले थर्र थर्र कांपते थे. 2005 के विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने केजे राव को बिहार में चुनाव पर्यवेक्षक बना कर भेजा था. ये उसी साल की बात है जब लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन के बाद बिहार की कमान नीतीश कुमार के हाथ में आयी - और तब से लेकर अब तक बनी हुई है. आगे के फैसले का अधिकार एक बार फिर चुनाव आयोग जनता के हाथों में सौंपने वाला है.

सुशांत सिंह राजपूत के केस को लेकर बिहार में अगर सबसे पहले कोई एक्टिव दिखा तो वे तेजस्वी यादव और चिराग पासवान हैं, नीतीश कुमार तो बहुत बाद में सक्रिय हुए हैं जब उनको इसकी अहमियत समझ में आयी है. गुप्तेश्वर पांडेय भी तब हरकत में आये हैं जब सुशांत सिंह राजपूत के पिता की तरफ से पटना में एफआईआर दर्ज करायी गयी है.

जिस दिन सुप्रीम कोर्ट से सीबीआई जांच को हरी झंडी दिखायी गयी, फील्ड में सबसे ऊंची आवाज गुप्तेश्वर पांडेय की ही गूंज रही थी. पटना में गुप्तेश्वर पांडेय को कैमरे के सामने चीख चीख कर बोलते देखा गया - 'रिया चक्रवर्ती की इतनी औकात नहीं है कि वो मुख्यमंत्री पर टिप्पणी करें...'

अब तो गुप्तेश्वर पांडेय की बातों से ऐसा ही लगता है जैसे उनको डर था कि उनकी ये हरकत चुनाव आयोग की नजर में उनके खिलाफ जा सकती थी. असल में गुप्तेश्वर पांडेय ये भी समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि सुशांत सिंह राजपूत केस में उनकी भूमिका को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा था - और उनके वीआरएस लेने की सबसे बड़ी वजह भी यही है, ऐसा खुद उनका ही दावा है.

कहते हैं, 'चुनाव सामने है. ऐसी स्थिति में अगर मैं चुनाव कराता तो विपक्ष मेरी शिकायत करता - और अगर चुनाव आयोग हटा देता तो कितनी बेइज्जती होती...मेरा 34 साल का कॅरियर बेदाग रहा है... आखिरी पड़ाव पर मैं इसमें दाग नहीं लगने दे सकता था. मेरे खिलाफ इस तरह का माहौल बना दिया गया था कि निर्वाचन आयोग को मुझे हटाना पड़े. मेरे खिलाफ साजिश हो रही थी और इसी के चलते मैंने वीआरएस लेने का फैसला किया.'

तो असल बात ये है. मतलब, गुप्तेश्वर पांडेय खुद स्वीकार कर रहे हैं कि वर्दी पहन कर जो कुछ वो किये हैं वो तटस्थ व्यवहार तो नहीं ही है. ऐसा व्यवहार जो किसी सरकारी अफसर से ड्यूटी के दौरान अपेक्षा की जानी चाहिये.

ये तो नहीं कहा जा सकता कि ये पहला वाकया है. अफसरों को राजनीतिक दवाब में ऐसा करना पड़ता है. वरना, यूपी के तत्कालीन डीजीपी गैंग रेप के केस में तत्कालीन उन्नाव के बीजेपी विधायक के लिए 'माननीय' शब्द के साथ संबोधन तो नहीं ही किये होते, अगर कोई निजी श्रद्धा न हो तो.

बतौर डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय भी अगर चुपचाप अपना काम किये होते. जरूरत पड़ने पर काम भर जानकारी दिये होते और एक पुलिस अफसर की तरह पेश आये होते तो ऐसा सोचने की भी नौबत नहीं आती - लेकिन कैमरे के सामने खाकी में भी खादी जैसी बातें करने लगे तो एक दिन सोचना तो होगा ही.

सवाल ये है कि क्या गुप्तेश्वर पांडेय अपने वीआरएस की असली वजह बता रहे हैं या उसे एक गैर सियासी अफेयर साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. या बार बार बोल कर लोगों को अलर्ट कर रहे हैं - 'ना भूले हैं, ना भूलने देंगे!'

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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