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मध्य प्रदेश में यदि गवर्नर आनंदीबेन 'किंगमेकर' बनीं तो...

    • आईचौक
    • Updated: 11 दिसम्बर, 2018 09:44 PM
  • 11 दिसम्बर, 2018 09:44 PM
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देखा जाये तो राजस्थान और मध्य प्रदेश की सियासी स्क्रिप्ट आपस में तो मिलती जुलती तो है ही, बीते हुए वाकयों को याद करें तो गोवा, मणिपुर और कर्नाटक से भी काफी हद तक मेल भी खाती है.

छत्तीसगढ़ में जनता का फैसला शीशे की तरह साफ है, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सियासी पेंच जरूर फंसे हुए हैं. छत्तीसगढ़ में डॉक्टर रमन सिंह रेस से पूरी तरह बाहर हो चुके हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सरकार बनाने की दावेदारी की रेस में बने हुए हैं.

कांग्रेस को साफ बहुमत न मिल पाने की हालत में केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी मध्य प्रदेश और राजस्थान में सियासी जौहर दिखाने से बाज नहीं आएगी, कांग्रेस भी ये मान कर चल ही रही होगी. वैसे राहुल गांधी अपने आदमियों को बीजेपी की संभावित हरकतों को लेकर पहले ही आगाह कर चुके हैं.

राजस्थान और मध्य प्रदेश के मामले में शर्त सिर्फ ये है कि बीजेपी अगर दिल से इरादा कर ले और पूरी कायनात सरकार बनवाने की साजिशों में हिस्सेदार बन जाये.

राजभवनों का रोल

स्पष्ट जनादेश के अभाव में जोड़-तोड़ की कवायद शुरू हो जाती है और तभी गेंद उछल कर राजभवन के पाले में चली जाती है. फिर सबकुछ महामहिम के विवेकाधिकर पर आ टिकता है. ये ठीक है कि उसकी डोर केंद्र में सत्ताधारी दल के नेता के हाथ में होती है. अगर बीजेपी चाल और चरित्र के पैमाने पर तौलें तो गोवा और मणिपुर मिसाल हैं तो कर्नाटक सबसे बड़ा नमूना है.

राज्यपाल के पाले में जाती लग रही सत्ता की गेंद

जैसे नतीजे मध्य प्रदेश और राजस्थान में नजर आ रहे हैं, वे यूपी और पंजाब चुनावों के साथ हुए मणिपुर और गोवा के चुनाव नतीजों के काफी करीब लगते हैं. सबसे बड़ी पार्टी होकर भी कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठी रह गयी. तब दिग्विजय सिंह गोवा के प्रभारी हुआ करते थे. दिग्विजय सिंह फिलहाल तो अपने ही राज्य मध्य प्रदेश में हैं लेकिन उनका दायरा काफी सीमित है. गोवा और मणिपुर की कामयाबी के जोश से लबालब बीजेपी ने कर्नाटक में भी हाथ आजमाया लेकिन...

छत्तीसगढ़ में जनता का फैसला शीशे की तरह साफ है, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सियासी पेंच जरूर फंसे हुए हैं. छत्तीसगढ़ में डॉक्टर रमन सिंह रेस से पूरी तरह बाहर हो चुके हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सरकार बनाने की दावेदारी की रेस में बने हुए हैं.

कांग्रेस को साफ बहुमत न मिल पाने की हालत में केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी मध्य प्रदेश और राजस्थान में सियासी जौहर दिखाने से बाज नहीं आएगी, कांग्रेस भी ये मान कर चल ही रही होगी. वैसे राहुल गांधी अपने आदमियों को बीजेपी की संभावित हरकतों को लेकर पहले ही आगाह कर चुके हैं.

राजस्थान और मध्य प्रदेश के मामले में शर्त सिर्फ ये है कि बीजेपी अगर दिल से इरादा कर ले और पूरी कायनात सरकार बनवाने की साजिशों में हिस्सेदार बन जाये.

राजभवनों का रोल

स्पष्ट जनादेश के अभाव में जोड़-तोड़ की कवायद शुरू हो जाती है और तभी गेंद उछल कर राजभवन के पाले में चली जाती है. फिर सबकुछ महामहिम के विवेकाधिकर पर आ टिकता है. ये ठीक है कि उसकी डोर केंद्र में सत्ताधारी दल के नेता के हाथ में होती है. अगर बीजेपी चाल और चरित्र के पैमाने पर तौलें तो गोवा और मणिपुर मिसाल हैं तो कर्नाटक सबसे बड़ा नमूना है.

राज्यपाल के पाले में जाती लग रही सत्ता की गेंद

जैसे नतीजे मध्य प्रदेश और राजस्थान में नजर आ रहे हैं, वे यूपी और पंजाब चुनावों के साथ हुए मणिपुर और गोवा के चुनाव नतीजों के काफी करीब लगते हैं. सबसे बड़ी पार्टी होकर भी कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठी रह गयी. तब दिग्विजय सिंह गोवा के प्रभारी हुआ करते थे. दिग्विजय सिंह फिलहाल तो अपने ही राज्य मध्य प्रदेश में हैं लेकिन उनका दायरा काफी सीमित है. गोवा और मणिपुर की कामयाबी के जोश से लबालब बीजेपी ने कर्नाटक में भी हाथ आजमाया लेकिन बेइज्जती के अलावा कुछ भी हासिल न हुआ. गोवा-मणिपुर और कर्नाटक के नतीजों में एक बड़ा फर्क था. गोवा-मणिपुर में राज्यपाल ने नंबर 1 पार्टी कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया. कर्नाटक में गवर्नर ने नंबर 2 पार्टी के नेता को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला डाली. वो तो सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी शर्तें रख दीं कि बीएस येदियुरप्पा भाग खड़े हुए.

मध्य प्रदेश में अगर कांग्रेस को साफ बहुमत नहीं मिलता तो राज्यपाल की भूमिका तो बढ़ेगी ही, बीएसपी जैसी पार्टियों और निर्दलियों का भी भाव चढ़ना पक्का है.

मायावती किधर जाएंगी?

मायावती ने कांग्रेस के साथ चुनावों से पहले गठबंधन को नकार दिया था. अब मायावती का कहना है कि वो बीजेपी को सपोर्ट नहीं करेंगी. हालांकि, फिलहाल ये भी मानकर नहीं चला जा सकता कि बीजेपी को सपोर्ट नहीं करने का मतलब ये हुआ कि वो कांग्रेस को सरकार बनाने में मदद करेंगी. छत्तीसगढ़ में जब ऐसे सवाल उठे तो मायावती ने कहा था कि वो विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी. इस बात को लेकर अजीत जोगी के साथ उनका विरोधाभास भी रहा, लेकिन जोगी बाद में पलटी मार गये.

क्या वास्तव में विपक्ष में ही बैठने की तैयारी है?

चुनाव नतीजों के रुझानों के बीच मायावती ने ऐलान किया है कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में अगर सरकार के बनाने के लिए बीएसपी के विधायकों की जरूरत पड़ी तो वह भाजपा को कतई सपोर्ट नहीं करेंगी.

रुझानों में बीएसपी राजस्थान में चार सीटों पर, मध्य प्रदेश में तीन सीटों पर और छत्तीसगढ़ में एक सीट पर आगे है. मायावती को उम्मीद है कि बीएसपी के 7-8 विधायक तो चुनाव जीत ही जाएंगे. बीएसपी और निर्दलीय उम्मीदवारों को मिलाकर मध्य प्रदेश में विधायकों की संख्या एक दर्जन जबकि राजस्थान में दो दर्जन तक पहुंच सकती है.

मायावती की ही तरह समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने भी अपना इरादा ट्विटर पर पहले ही जाहिर कर दिया है.

हिसाब बराबर करने का मौका भी तो है

मध्य प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल गुजरात से भोपाल आयी हैं. राजस्थान के राज्यपाल यूपी से जयपुर पहुंचे हैं. दोनों ही अपने अपने राज्यों में मुख्यमंत्री रह चुके हैं.

आनंदी बेन पटेल को बीजेपी नेतृत्व ने गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था. मोदी ने अपनी कुर्सी आनंदी बेन को ही सौंपी थी, लेकिन अमित शाह ने छीन कर अपने खास आदमी विजय रुपाणी को दे दिया. विजय रुपाणी यानी एक ऐसा नेता जो अपने बूते अपनी सरकार बचाने में भी बेबस नजर आ रहा था और मोदी के गुजरात में बीजेपी को सौ का आंकड़ा भी पार करना संभव न हुआ.

बीजेपी का कितना कल्याण हो पाएगा

जो कल्याण सिंह कभी बीजेपी के प्रमुख एजेंडे अयोध्या के हीरो हुआ करते रहे बीजेपी ने उन्हें मार्गदर्शक मंडल तो नहीं लेकिन राजभवन में फंसा ही दिया. कल्याण सिंह की बोयी फसल आज योगी आदित्यनाथ काट रहे हैं - और वो बैठे बैठे टीवी पर तमाशा देखने को मजबूर हैं.

कर्नाटक का मामला तो ताजातरीन ही है. कर्नाटक में महामहिम ने विवेकाधिकार का जो नमूना दिखाया था. क्या जरूरी है कि आनंदी बेन पटेल और कल्याण सिंह भी वैसे ही 'मोदी-मोदी' करने लगें. क्या उनके सामने हिसाब बराबर करने का मौका नहीं है? ऐसा मौका तो विरले ही मिलता है.

आखिर सत्यपाल मलिक तो लेटेस्ट उदाहरण बने हैं जो डंके की चोट पर कह रहे हैं कि वो केंद्र की सुनते तो सज्जाद लोन को मुख्यमंत्री बना चुके होते. अब तबादले की जो लटकती हुई तलवार वो महसूस जरूर कर रहे हैं, आनंदी बेन पटेल और कल्याण सिंह के सामने भी बिलकुल वही परिस्थितियां है - मगर, फैसले का पूरा अधिकार तो उनके हाथ में है ही.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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