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गुलाम नबी आजाद की पार्टी कैसी होगी - कैप्टन अमरिंदर जैसी या शरद पवार जैसी?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 30 अगस्त, 2022 05:17 PM
  • 30 अगस्त, 2022 05:17 PM
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कांग्रेस की लंबी राजनीतिक पारी के बाद ही कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt. Amrinder Singh) और शरद पवार (Sharad Pawar) ने अलग अलग समय पर अपनी राजनीतिक पार्टियां बनायीं - गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) भी ऐसा ही करने जा रहे हैं, लेकिन वो कौन सी राह चलने वाले हैं?

कांग्रेस छोड़ने के साथ ही गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) ने नयी पार्टी बनाने की घोषणा भी कर दी है. न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, गुलाम नबी आजाद नया राजनीतिक दल बनाने जा रहे हैं जिसका दायरा जम्मू-कश्मीर तक ही होगा. हो सकता है आजाद के इस्तीफे की टाइमिंग घाटी में तैयार होते चुनावी माहौल को लेकर तय किया गया हो.

अब अगर दिल्ली में कांग्रेस नेताओं को लगता है कि गुलाम नबी आजाद के पार्टी छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, तो एक बार जम्मू कश्मीर के हिसाब से भी सोच और समझ लेना चाहिये. जेके कांग्रेस पर आजाद के इस्तीफे का प्रभाव अभी से नजर आने लगा है. आजाद के सपोर्ट में अब तक कांग्रेस के आठ नेता इस्तीफा दे चुके हैं. इस्तीफा देने वालों में दो कांग्रेस सरकार में मंत्री रह चुके हैं - जीएम सरूरी और आरएस चिब. जम्मू कश्मीर कांग्रेस अध्यक्ष वी. रसूल वानी ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया है कि निश्चित तौर पर आजाद के इस्तीफे का पार्टी पर असर पड़ेगा. काफी लोग कांग्रेस छोड़ कर उनके साथ जा सकते हैं.

जम्मू कश्मीर के क्षेत्रीय दलों का गुपकार गठबंधन भी नेताओं के मतभेद का शिकार हो गया है. गुपकार गठबंधन का हाल भी तकरीबन वैसा ही है जैसे दिल्ली में विपक्षी दल. कांग्रेस का जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस से पुराना गठबंधन रहा है. एक महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी भी है - और ऐसे ही माहौल में बीजेपी अपने पांव जमाने की कोशिश कर रही है.

गुलाम नबी आजाद के पार्टी बनाने से कांग्रेस का तो सबसे ज्यादा नुकसान होगा, लेकिन नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी पर भी कोई कम असर नहीं पड़ेगा - मान कर चलना होगा कि बीजेपी की भी नजर गुलाम नबी आजाद की पार्टी पर ही टिकी होगी.

देखा जाये तो गुलाम नबी आजाद ने भी करीब करीब वैसे ही कांग्रेस...

कांग्रेस छोड़ने के साथ ही गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) ने नयी पार्टी बनाने की घोषणा भी कर दी है. न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, गुलाम नबी आजाद नया राजनीतिक दल बनाने जा रहे हैं जिसका दायरा जम्मू-कश्मीर तक ही होगा. हो सकता है आजाद के इस्तीफे की टाइमिंग घाटी में तैयार होते चुनावी माहौल को लेकर तय किया गया हो.

अब अगर दिल्ली में कांग्रेस नेताओं को लगता है कि गुलाम नबी आजाद के पार्टी छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, तो एक बार जम्मू कश्मीर के हिसाब से भी सोच और समझ लेना चाहिये. जेके कांग्रेस पर आजाद के इस्तीफे का प्रभाव अभी से नजर आने लगा है. आजाद के सपोर्ट में अब तक कांग्रेस के आठ नेता इस्तीफा दे चुके हैं. इस्तीफा देने वालों में दो कांग्रेस सरकार में मंत्री रह चुके हैं - जीएम सरूरी और आरएस चिब. जम्मू कश्मीर कांग्रेस अध्यक्ष वी. रसूल वानी ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया है कि निश्चित तौर पर आजाद के इस्तीफे का पार्टी पर असर पड़ेगा. काफी लोग कांग्रेस छोड़ कर उनके साथ जा सकते हैं.

जम्मू कश्मीर के क्षेत्रीय दलों का गुपकार गठबंधन भी नेताओं के मतभेद का शिकार हो गया है. गुपकार गठबंधन का हाल भी तकरीबन वैसा ही है जैसे दिल्ली में विपक्षी दल. कांग्रेस का जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस से पुराना गठबंधन रहा है. एक महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी भी है - और ऐसे ही माहौल में बीजेपी अपने पांव जमाने की कोशिश कर रही है.

गुलाम नबी आजाद के पार्टी बनाने से कांग्रेस का तो सबसे ज्यादा नुकसान होगा, लेकिन नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी पर भी कोई कम असर नहीं पड़ेगा - मान कर चलना होगा कि बीजेपी की भी नजर गुलाम नबी आजाद की पार्टी पर ही टिकी होगी.

देखा जाये तो गुलाम नबी आजाद ने भी करीब करीब वैसे ही कांग्रेस छोड़ी है जैसे पंजाब चुनाव से पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt. Amrinder Singh) ने किया था. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस छोड़ने के बाद पंजाब लोक कांग्रेस के नाम से पार्टी बनायी थी और उसका बीजेपी के साथ चुनावी गठबंधन हुआ था. लेकिन कैप्टन बुरी तरह पिट गये और बीजेपी का भी वही हाल रहा.

कांग्रेस छोड़ने वाले ज्यादातर नेता जब भी पार्टी बनाते हैं नाम में कांग्रेस शब्द जरूर रहता है. जैसे शरद पवार (Sharad Pawar) ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनायी है, ममता बनर्जी की पार्टी का नाम भी तृणमूल कांग्रेस ही है. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी पंजाब और कांग्रेस के बीच लोक रख कर पार्टी बना ली - हो सकता है गुलाम नबी आजाद के मन में भी ऐसे ही ख्यालात चल रहे हों.

भले ही कैप्टन अमरिंदर सिंह और शरद पवार ने अपनी पार्टियों में कांग्रेस नाम जोड़ रखा हो, लेकिन दोनों की राजनीतिक लाइन बिलकुल अलग लगती है. शरद पवार की एनसीपी पर जहां कांग्रेस की विचारधारा का असर है, वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस राष्ट्रवाद से प्रभावित नजर आती है - ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि गुलाम नबी आजाद कैप्टन अमरिंदर सिंह की राह पकड़ते हैं या शरद पवार के रास्ते ही कांग्रेस की विचारधारा के साथ नयी पारी शुरू करते हैं?

राजनीति की कौन सी राह पकड़ेंगे आजाद

कांग्रेस से निकल कर कई पार्टियां देश के अलग अलग हिस्सों में बनती रही हैं. कई नेताओं ने तो पार्टी बनाने के बाद जब असफल रहे तो वापस लौट कर कांग्रेस में ही विलय भी कर लिया - लेकिन शरद पवार की पार्टी एनसीपी और ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों का प्रदर्शन बेहतर रहा है.

गुलाम नबी आजाद का हाल भी राजनीतिक पार्टी बनाने के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसा तो नहीं होने वाला है?

नयी राजनीतिक पार्टी तो पंजाब चुनावों के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी बनायी थी, लेकिन वो पिट गयी. हां, कैप्टन अमरिंदर सिंह ये सोच कर जरूर खुश हुए होंगे कि कांग्रेस छोड़ने के बाद उसकी सरकार तो नहीं ही बनने दिये. पंजाब चुनाव में भी दिल्ली की ही तरह प्रदर्शन करते हुए अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने जीत हासिल की और भगवंत मान मुख्यमंत्री बने हैं.

अगर शरद पवार और कैप्टन अमरिंदर सिंह के कांग्रेस से अलग होने की तुलना करें तो दोनों के सामने अलग अलग परिस्थितियां रहीं. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जिन हालात में पार्टी बनायी, शरद पवार की स्थिति तो तब उनसे भी खराब रही. सोनिया गांधी विदेशी मूल पर सवाल उठाने की वजह से शरद पवार को कांग्रेस से बाहर कर दिया गया था. कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से जरूर हटाया गया था, लेकिन कांग्रेस उन्होंने खुद छोड़ी थी.

कैप्टन अमरिंदर सिंह के पार्टी बनाने से पहले ही उनकी राजनीतिक लाइन साफ हो गयी थी. कुछ इस तरह की कैप्टन की पार्टी बीजेपी से गठबंधन के लिए ही बनी थी. जबकि शरद पवार खुद बता चुके हैं कि कांग्रेस की विचारधारा का उन पर गहरा असर रहा है, इसलिए नयी पार्टी बनाने के बावजूद वो अपनी पॉलिटिकल लाइन वो नहीं बदले.

गांधी परिवार के व्यवहार के कारण कैप्टन अमरिंदर सिंह की राजनीति धीरे धीरे कांग्रेस से ही नहीं बल्कि उसकी विचारधारा से भी दूर होती चली गयी और राष्ट्रवाद की तरफ शिफ्ट हो गयी थी - और ये शायद संघ और बीजेपी के बनाये हुए राजनीतिक माहौल का असर भी हो कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने वही राह चुनी जिसमें बीजेपी के साथ चलना संभव हो सके. वैसे सेना की पृष्ठभूमि होने के चलते कैप्टन की राजनीति को पाकिस्तान और कश्मीर के मुद्दे पर हमेशा ही बीजेपी के साथ खड़े देखा गया.

कांग्रेस में कैप्टन अमरिंदर सिंह ही एकमात्र ऐसे नेता रहे जिनको कांग्रेस ने अध्यक्ष बनाया होता तो स्थिति काफी बेहतर होती. ऐसा इसलिए भी क्योंकि बीजेपी के लिए कैप्टन पर हमले करना बाकी नेताओं की तुलना में मुश्किल हो सकता था. बहरहाल, ये सारी चीजें तो अब दफन हो चुकी हैं, इसलिए इन बातों का कोई मतलब भी नहीं रहा.

इधर आजाद का इस्तीफा, उधर बीजेपी की बैठक: कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे की टाइमिंग पर सवाल खड़ा किया है - और कुछ अटकलें आजाद के इस्तीफे के इर्द गिर्द बुलायी गयी बीजेपी की बैठक को लेकर भी लगायी जाने लगीं.

हुआ ये कि जैसे ही गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे की खबर आयी, कुछ ही देर बाद अमित शाह की तरफ से जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ बैठक की खबर आने लगी. तस्वीर तब जाकर साफ हुई जब गुलाम नबी आजाद ने ऐलान किया कि वो जम्मू-कश्मीर में अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं.

पीटीआई के मुताबिक, गुलाम नबी आजाद ने कहा - 'मुझे अभी राष्ट्रीय पार्टी बनाने की कोई हड़बड़ी नहीं है... लेकिन जम्मू कश्मीर में होने जा रहे चुनाव को देखते हुए क्षेत्रीय स्तर पर मैंने एक पार्टी बनाने का फैसला जरूर किया है.'

बाद में बीजेपी को सफाई देनी पड़ी कि उनकी मीटिंग पहले से तय थी और उसका गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे से कोई लेना देना नहीं है. बैठक में शामिल बीजेपी नेताओं ने मीडिया से बातचीत में बताया कि बैठक का मुख्य एजेंडा जम्मू कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी को मजबूत करने पर बातचीत हुई. बताते हैं कि अमित शाह ने भी नेताओं को जम्मू कश्मीर में बीजेपी को मजबूत करने के लिए सक्रियता बढ़ाने का निर्देश दिया है.

क्या आजाद कश्मीर पर स्टैंड बदलेंगे?

अलग हो जाने के बाद भी गुलाम नबी आजाद अगर कांग्रेस की विचारधारा के साथ बने रहते हैं तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वो बीजेपी के साथ जाने का कोई इरादा रखते हैं तो काफी मुश्किल हो सकती है.

जम्मू कश्मीर पर गुलाम नबी आजाद का स्टैंड अब तक वही रहा है जो कांग्रेस का है. ऐसे भी समझ सकते हैं कि कश्मीर पर कांग्रेस ने जो राजनीतिक लाइन तय की है उसके सूत्रधार भी गुलाम नबी आजाद ही रहे होंगे - और वो मंजूर भी आसानी से इसीलिए हो गया होगा क्योंकि राहुल गांधी को उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध की झलक पहले ही दिख गयी होगी.

इसी साल यूपी चुनाव से पहले जब तमाम कश्मीरी नेताओं को प्रधानमंत्री मोदी से मिलाने के लिए दिल्ली बुलाया गया था, तो कांग्रेस की तरफ से गुलाम नबी आजाद ने ही जम्मू कश्मीर का प्रतिनिधित्व किया था - प्रधानमंत्री मोदी के साथ मीटिंग में जम्मू कश्मीर में चुनाव कराये जाने से लेकर फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा वापस दिये जाने जैसे तमाम मुद्दों पर बात हुई. बैठक में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा भी शामिल थे.

मोदी सरकार का कहना रहा कि पहले चुनाव फिर स्टेटहुड यानी पूर्ण राज्य का दर्जा फिर से देने पर विचार किया जाएगा, लेकिन गुलाम नबी आजाद सहित सारे ही कश्मीरी नेताओं ने बार बार यही दोहराया कि पहले जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस दिया जाये फिर चुनाव कराये जायें. ये नेता अमित शाह को उनके वादे दिलाते हुए अपनी मांग रख रहे थे, लेकिन चुनाव और स्टेटहुड के क्रम पर दोनों पक्षों की राय अलग अलग रही.

गुलाम नबी आजाद को कुछ वक्त पहले जम्मू कश्मीर से काफी एक्टिव देखा गया था. तब वो जगह जगह जाकर लोगों से मिल रहे थे - और कई जगह पब्लिक मीटिंग भी कर रहे थे. लोग भी अच्छी खासी संख्या में उनके साथ देखे भी जा रहे थे.

तब तो गुलाम नबी आजाद की सक्रियता को कांग्रेस के पक्ष देखा जा रहा था, लेकिन अब साफ हो रहा है कि ये सब वो तब भी अपने लिये ही कर रहे थे - क्योंकि अब तो वो खुद ही बता चुके हैं कि जल्दी ही अपनी राजनीतिक पार्टी भी बनाने जा रहे हैं.

ये सब ऐसे दौर में हो रहा है जब जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है. चुनाव कराये जाने में पहले कम से कम दो अड़चनें थीं. एक डीलिमिटेशन की प्रक्रिया जो अब पूरी हो चुकी है. दूसरी, राज्य का आतंकवाद से प्रभावित माहौल भी आड़े आ रहा था.

राज्य का माहौल सुधारने और राजनीतिक संवाद स्थापित करने के मकसद से ही बीजेपी नेता मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल बनाया गया है - हालात में कोई खास सुधार तो अब तक नहीं दिखा है, लेकिन ये भी ठीक है कि चुनाव को आखिर कब तक टाला जा सकेगा?

अगर गुलाम नबी आजाद क्षेत्रीय स्तर पर नये सिरे से अपनी राजनीति शुरू करते हैं तो उनके सामने कम से कम दो रास्ते तो हैं ही. एक तो ये है कि वो गुपकार सम्मेलन का हिस्सा बन जायें. दूसरा ये कि वो कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह बीजेपी के मददगार बन जायें - लेकिन ध्यान रहे ऐसा करने के लिए गुलाम नबी आजाद को कश्मीर पर अपने मौजूदा स्टैंड से कदम पीछे खींचने ही होंगे क्योंकि तभी कोई बात बन सकेगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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