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अमित शाह को गांधीनगर से टिकट नहीं गुजरात बचाने की जिम्मेदारी मिली है

    • आईचौक
    • Updated: 22 मार्च, 2019 06:06 PM
  • 22 मार्च, 2019 06:06 PM
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अमित शाह को गांधीनगर सीट से लोक सभा चुनाव में उतार कर बीजेपी ने एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है. गांधीनगर से अमित शाह बीजेपी के मिशन-26 के साथ साथ भविष्य की रणनीतियों की नींव मजबूत करने वाले हैं.

गांधीनगर से लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी का टिकट न दिया जाना कोई अचरज की बात नहीं लगती. आडवाणी युग की विदाई का संदेश तो 2014 से पहले ही लिखा जा चुका था. जो कसर बाकी रही उसे 2017 में राष्ट्रपति चुनाव के वक्त अमलीजामा भी पहना ही दिया गया था.

सवाल ये है कि जब राज्य सभा के जरिये अमित शाह संसद पहुंच ही चुके थे तो लोकसभा के मैदान में उन्हें उतारने की जरूरत क्यों आ पड़ी? वैसे भी उनके ऊपर तो बीजेपी को पूरे देश में जिताने की जिम्मेदारी है. ऐसी ही जिम्मेदारी के चलते मायावती ने चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी है. मायावती की तरह ही अमित शाह भी चाहते तो आम चुनाव बाद कोई भी सीट खाली करा कर सांसद बन सकते थे. मगर बीजेपी ने ऐसा नहीं किया है.

अमित शाह एक दूरगामी सोच के तहत गांधीनगर के मैदान में उतरने जा रहे हैं. ये कदम बीजेपी के सत्ता में वापसी की स्थिति में बड़े फेरबदल के संकेत भी दे रहा है.

अटल-आडवाणी की जगह मोदी-शाह पर्मानेंट हो गये!

नरेंद्र मोदी अगर बीजेपी में पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के उत्तराधिकारी हैं तो अमित शाह को भी लालकृष्ण आडवाणी का उत्तराधिकारी मान लेना चाहिये. वैसे भी जिस तरह बीजेपी को दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाने का श्रेय अटल-आडवाणी को जाता है तो बीजेपी की मौजूदा मजबूत स्थिति का क्रेडिट भी मोदी-शाह को मिलना ही चाहिये.

अगर अमित शाह को आडवाणी की गांधीनगर सीट देकर उनकी विरासत सौंपी जा रही है तो वो उस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये. ऐसा भी नहीं कि ये सब उन्हें बैठे बिठाये मिल रहा है. पांच साल तक बीजेपी के विस्तार में जिस तरह अमित शाह जुटे हुए हैं - ये उनका हक बनता है.

रही बात आडवाणी के टिकट कटने की तो खुद उन्हें भी ऐसी कोई उम्मीद नहीं बची होगी. पांच साल का एक एक पल कैसे उनकी आंखों के सामने गुजरा है ये उनका मन ही जानता होगा. एक चर्चा जरूर रही कि आडवाणी अपनी जगह बेटी प्रतिभा आडवाणी के लिए टिकट चाहते थे. प्रतिभा आडवाणी वाजपेयी सरकार के वक्त और उसके बाद 2004 से 2009 तक सक्रिय पांच साल के दौरान भी...

गांधीनगर से लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी का टिकट न दिया जाना कोई अचरज की बात नहीं लगती. आडवाणी युग की विदाई का संदेश तो 2014 से पहले ही लिखा जा चुका था. जो कसर बाकी रही उसे 2017 में राष्ट्रपति चुनाव के वक्त अमलीजामा भी पहना ही दिया गया था.

सवाल ये है कि जब राज्य सभा के जरिये अमित शाह संसद पहुंच ही चुके थे तो लोकसभा के मैदान में उन्हें उतारने की जरूरत क्यों आ पड़ी? वैसे भी उनके ऊपर तो बीजेपी को पूरे देश में जिताने की जिम्मेदारी है. ऐसी ही जिम्मेदारी के चलते मायावती ने चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी है. मायावती की तरह ही अमित शाह भी चाहते तो आम चुनाव बाद कोई भी सीट खाली करा कर सांसद बन सकते थे. मगर बीजेपी ने ऐसा नहीं किया है.

अमित शाह एक दूरगामी सोच के तहत गांधीनगर के मैदान में उतरने जा रहे हैं. ये कदम बीजेपी के सत्ता में वापसी की स्थिति में बड़े फेरबदल के संकेत भी दे रहा है.

अटल-आडवाणी की जगह मोदी-शाह पर्मानेंट हो गये!

नरेंद्र मोदी अगर बीजेपी में पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के उत्तराधिकारी हैं तो अमित शाह को भी लालकृष्ण आडवाणी का उत्तराधिकारी मान लेना चाहिये. वैसे भी जिस तरह बीजेपी को दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाने का श्रेय अटल-आडवाणी को जाता है तो बीजेपी की मौजूदा मजबूत स्थिति का क्रेडिट भी मोदी-शाह को मिलना ही चाहिये.

अगर अमित शाह को आडवाणी की गांधीनगर सीट देकर उनकी विरासत सौंपी जा रही है तो वो उस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये. ऐसा भी नहीं कि ये सब उन्हें बैठे बिठाये मिल रहा है. पांच साल तक बीजेपी के विस्तार में जिस तरह अमित शाह जुटे हुए हैं - ये उनका हक बनता है.

रही बात आडवाणी के टिकट कटने की तो खुद उन्हें भी ऐसी कोई उम्मीद नहीं बची होगी. पांच साल का एक एक पल कैसे उनकी आंखों के सामने गुजरा है ये उनका मन ही जानता होगा. एक चर्चा जरूर रही कि आडवाणी अपनी जगह बेटी प्रतिभा आडवाणी के लिए टिकट चाहते थे. प्रतिभा आडवाणी वाजपेयी सरकार के वक्त और उसके बाद 2004 से 2009 तक सक्रिय पांच साल के दौरान भी एक्टिव रहीं. सुना तो ये गया कि बीजेपी नेतृत्व प्रतिभा की जगह आडवाणी के बेटे को टिकट देने पर विचार कर रहा था.

अब गांधीनगर सीट पर अगर अमित शाह की जगह आडवाणी की बेटी या बेटे को उतारा जाता तो विरोधी परिवारवाद को लेकर सवाल खड़े करते. अगर आडवाणी के लिए भरपाई करने की ही बात है तो उसके लिए कोई भी सीट हो सकती है - ये तो जरूरी नहीं कि वो गांधीनगर ही हो. 2014 में गांधीनगर को लेकर तो खुद आडवाणी की भी दिलचस्पी कम ही लग रही थी. बल्कि वो तो मध्य प्रदेश की किसी सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे - क्योंकि तब नरेंद्र मोदी के गुजरात से ज्यादा भरोसा उन्हें शिवराज सिंह के मध्य प्रदेश में था.

1991 में आडवाणी के नामांकन के समय मौजूद मोदी और शाह

2004 से 2009 के बीच लालकृष्ण आडवाणी की छवि भी लौह पुरुष से बदल कर वाजपेयी जैसी बनाने की कोशिश महसूस की गयी थी. नरेंद्र मोदी भी दिल्ली सरदार पटेल की विरासत के साथ पहुंचे और अब भी उस पर दावेदारी कायम है. फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी सर्व स्वीकार्यता मोदी से दूर ही रही है. कभी कभी तो लगता है बीजेपी की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उस खांचे में नितिन गडकरी को फिट करने की कोशिश में है.

बीजेपी में अटल-आडवाणी के बाद गोवा से ही मोदी-राजनाथ को 2014 से पहले देखा गया था - पांच साल बाद उस जगह मोदी-शाह की हो चुकी है. अमित शाह को आडवाणी का उत्तराधिकारी बनाकर मोदी-शाह को अटल-आडवाणी की पर्मानेंट सीट सौंपने की कवायद चल रही लगती है.

सिर्फ गांधीनगर नहीं पूरा गुजरात कहिये...

2017 के चुनाव में कांग्रेस से मिली चुनौती के चलते बीजेपी को लोहे के चन चबाने पड़े थे और उसके बावजूद सीटों की संख्या 99 पर ही सिमट गयी. वैसे बाद में बीजेपी एक सीट जीत कर सीटों का शतक लगा चुकी है.

गुजरात विधानसभा चुनाव से करीब छह महीने पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को हटना पड़ा था और उनके पसंदीदा नितिन पटेल को डिप्टी सीएम की कुर्सी से संतोष करना पड़ा था. विजय रूपानी को अमित शाह के प्रतिनिधि के तौर पर देखा गया क्योंकि बीजेपी अध्यक्ष ने सत्ता में वापसी की गारंटी भी ली थी. मगर चुनावों में स्थितियां काफी प्रतिकूल हो गयीं. आखिरी वक्त में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरे दमखम और पूरी कैबिनेट के साथ मैदान में उतरना पड़ा था.

आडवाणी की जगह अमित शाह...

पुलवामा के बाद बीजेपी की ताकत में जो भी इजाफा हुआ हो दो साल में कांग्रेस की स्थिति में भी बदलाव आया है. राहुल गांधी ने गुजरात में तीन युवा नेताओं हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की मदद से बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी. अल्पेश ठाकोर तो तभी कांग्रेस में शामिल हो गये थे अब हार्दिक पटेल में साथी हो चुके हैं. जिग्नेश मेवाणी तो निर्दल होकर भी कांग्रेस के साथ ही हैं. अभी तक हार्दिक पटेल अकेले दम पर संघर्ष कर रहे थे और चुनावों के ऐन पहले कई साथियों ने साथ छोड़ दिया था - अब हार्दिक पटेल कांग्रेस के मंच से बीजेपी को चैलेंज करते नजर आएंगे.

अमित शाह के गांधीनगर से चुनाव लड़ने का पूरे गुजरात पर असर हो सकता है. ये उस स्थिति की भरपाई की भी कोशिश है जो नरेंद्र मोदी के दिल्ली और अमित शाह के गुजरात से बाहर होने के चलते गैप बन गया था. हालांकि, तब भी अमित शाह गुजरात से विधायक रहे और बाद में वहीं से राज्य सभा सांसद हैं.

अमित शाह को गांधीनगर से उतार कर बीजेपी ने लोगों को संदेश देने की कोशिश जरूर की है, लेकिन दो साल पहले चुनाव में उनकी नाराजगी बीजेपी के स्थानीय नेताओं से ही रही - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तो बिलकुल नहीं.

अब अमित शाह पर गुजरात में बीजेपी के 2014 से प्रदर्शन की जिम्मेदारी आ पड़ी है. 2014 में बीजेपी ने गुजरात की सभी 26 सीटें जीती थी. अब गुजरात से मिशन 26 का सारा दारोमदार अमित शाह के कंधों पर आ चुका है जिनमें से एक सीट पर तो वो खुद भी होंगे.

अब 2014 की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वाराणसी के साथ साथ वडोदरा से भी चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी - कहीं और की बात और है!

सत्ता में वापसी पर बीजेपी में संभावित बदलाव!

गुजरात में बीजेपी के प्रदर्शन से इतर अमित शाह के गांधीनगर से चुनाव लड़ने का क्या क्या असर होने की संभावना बनती है? ये असर बीजेपी की सत्ता में वापसी की स्थिति में ही देखने को मिल सकती है. वो भी सिर्फ तभी जब संघ और बीजेपी के अलावा एनडीए के सहयोगी नरेंद्र मोदी को ही प्रधानमंत्री बनाते हैं. शिवसेना ने तो पहले ही कह दिया है कि 2014 में बीजेपी की सरकार थी और 2019 में एनडीए की सरकार बनेगी.

अमित शाह के चुनाव जीतने और बीजेपी की सत्ता में वापसी की स्थिति में उन्हें खास पोजीशन और रैंक हासिल हो सकता है. सत्ताधारी मौजूदा बीजेपी में शोहरत और दबदबा तो मोदी-शाह की जोड़ी की है - लेकिन सरकार में तो नंबर दो राजनाथ सिंह ही माने जाते हैं. बीजेपी अध्यक्ष होने के नाते अमित शाह संगठन में सर्वेसर्वा बने हुए हैं - लेकिन उनके साथ मोदी के नाम की शर्तें भी लागू हैं. अमित शाह की ताकत भी नरेंद्र मोदी में ही छिपी हुई है. चुनाव के बाद अमित शाह को एक स्वतंत्र हैसियत देने की कवायद शुरू हो चुकी है. अमित शाह को चाणक्य कहा जाये या कुछ और, लेकिन जनाधार के मामले में उन्होंने गुजरात की एक विधानसभा का ही प्रतिनिधित्व किया है. ये बात अलग है कि 2014 में भी मोदी लहर में अमित शाह चुनाव लड़े होते तो बाकी कई नेताओं की तरह लोक सभा में ही होते.

राज्य सभा में अमित शाह को लाकर संसद में एंट्री दिलायी गयी थी - अब उसे नया आयाम देने की कोशिश हो रही है. राज्य सभा चुनाव में कांग्रेस नेता अहमद पटेल की जीत को अमित शाह की शिकस्त के तौर पर देखा गया था.

अमित शाह की नयी पारी की खबर आने के बाद से चर्चाओं नये समीकरणों की बातें होने लगी हैं. मीडिया में एक सवाल ये भी चल रहा है कि मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में वापसी की स्थिति में अमित शाह सरकार में भी नंबर दो का स्थान हासिल करने वाले हैं क्या? क्या वो चुनाव बाद राजनाथ सिंह की जगह लेने जा रहे हैं - और राजनाथ सिंह अमित शाह वाली बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी फिर से? ऐसे सारे सवालों के जवाब चुनाव नतीजों में छिपे हुए हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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