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महबूबा और जम्मू कश्मीर दोनों के लिए बहुत ही बुरा रहा 2016

    • आईचौक
    • Updated: 22 सितम्बर, 2017 12:26 PM
  • 22 सितम्बर, 2017 12:26 PM
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माना जाता है कि महबूबा ने सीएम की कुर्सी संभालने का फैसला तभी लिया जब उनके पास कोई चारा नहीं बचा था. तब तक अलगाववादी भी उनसे दूरी बना चुके थे - और पीडीपी के भी टूट जाने का खतरा मंडराने लगा था.

महबूबा मुफ्ती के लिए 2016 की शुरुआत ही खराब रही. 7 जनवरी को ही उनके पिता और तब के चीफ मिनिस्टर मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया और लंबे वक्त तक वो सदमे से नहीं उबर पाईं.

तमाम सोच विचार के बाद महबूबा ने सीएम की कुर्सी संभाली लेकिन एक के बाद एक घटनाओं ने पूरे साल उन्हें चैन नहीं लेने दिया. साल बीतते बीतते उनके परम विरोधी फारूक अब्दुल्ला ने दावा किया कि वो चाहते तो पीडीपी सरकार गिरा देते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

कांटों भरी कुर्सी

महबूबा के पिता की मौत के सदमे से उबरने में लंबा वक्त लगने कि सियासी वजह भी रही. मुफ्ती के जनाजे से आम कश्मीरियों का परहेज उनके लिए बड़ा सेटबैक रहा. ये तो सब मान कर चल ही रहे थे कि पीडीपी के समर्थक सत्ता के लिए उसके बीजेपी का दामन थामने से खफा हैं लेकिन महबूबा को भी ऐसी कभी आशंका न रही.

इसे भी पढ़ें : फारूक अब्दुल्ला के हुर्रियत के सपोर्ट के पीछे क्या सिर्फ महबूबा विरोध है?

मुफ्ती सईद की बेटी, पीडीपी की प्रमुख और बीजेपी का सपोर्ट होने के कारण महबूबा के कुर्सी पर बैठने में देर होने जैसी कोई बात ही नहीं थी - लेकिन इस उधेड़बुन में उन्होंने तीन महीने लगा दिये. उस दौरान उनकी बीजेपी नेता राम माधव से लेकर कश्मीर मामलों को सीधे देख रहे गृह मंत्री राजनाथ सिंह से भी कई बार बात और मुलाकातें हुईं.

महबूबा ने अपने भाई को भी आगे करने की कोशिश की. अचानक उन्हें लेकर पार्टी की जरूरी मीटिंग में ले पहुंचीं तो कयासों के दौर भी शुरू हो गये. पीडीपी के सीनियर नेताओं की भी वैसी ही अपेक्षाएं रहीं जैसी कहीं भी होती हैं.

महबूबा मुफ्ती के लिए 2016 की शुरुआत ही खराब रही. 7 जनवरी को ही उनके पिता और तब के चीफ मिनिस्टर मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया और लंबे वक्त तक वो सदमे से नहीं उबर पाईं.

तमाम सोच विचार के बाद महबूबा ने सीएम की कुर्सी संभाली लेकिन एक के बाद एक घटनाओं ने पूरे साल उन्हें चैन नहीं लेने दिया. साल बीतते बीतते उनके परम विरोधी फारूक अब्दुल्ला ने दावा किया कि वो चाहते तो पीडीपी सरकार गिरा देते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

कांटों भरी कुर्सी

महबूबा के पिता की मौत के सदमे से उबरने में लंबा वक्त लगने कि सियासी वजह भी रही. मुफ्ती के जनाजे से आम कश्मीरियों का परहेज उनके लिए बड़ा सेटबैक रहा. ये तो सब मान कर चल ही रहे थे कि पीडीपी के समर्थक सत्ता के लिए उसके बीजेपी का दामन थामने से खफा हैं लेकिन महबूबा को भी ऐसी कभी आशंका न रही.

इसे भी पढ़ें : फारूक अब्दुल्ला के हुर्रियत के सपोर्ट के पीछे क्या सिर्फ महबूबा विरोध है?

मुफ्ती सईद की बेटी, पीडीपी की प्रमुख और बीजेपी का सपोर्ट होने के कारण महबूबा के कुर्सी पर बैठने में देर होने जैसी कोई बात ही नहीं थी - लेकिन इस उधेड़बुन में उन्होंने तीन महीने लगा दिये. उस दौरान उनकी बीजेपी नेता राम माधव से लेकर कश्मीर मामलों को सीधे देख रहे गृह मंत्री राजनाथ सिंह से भी कई बार बात और मुलाकातें हुईं.

महबूबा ने अपने भाई को भी आगे करने की कोशिश की. अचानक उन्हें लेकर पार्टी की जरूरी मीटिंग में ले पहुंचीं तो कयासों के दौर भी शुरू हो गये. पीडीपी के सीनियर नेताओं की भी वैसी ही अपेक्षाएं रहीं जैसी कहीं भी होती हैं.

2016 को तो भुलाना ही बेहतर!

माना जाता है कि महबूबा ने सीएम की कुर्सी संभालने का फैसला तभी लिया जब उनके पास कोई चारा नहीं बचा था. तब तक अलगाववादी भी उनसे दूरी बना चुके थे - और पीडीपी के भी टूट जाने का खतरा मंडराने लगा था.

आखिरकार 4 अप्रैल को महबूबा ने जम्मू और कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री के तौर पर कामकाज संभाला लेकिन वो कांटों भरी कुर्सी ही बनी रही.

सबसे लंबा कर्फ्यू

हंदवाड़ा में एक किशोरी से छेड़छाड़ को लेकर बवाल अभी थमा नहीं कि श्रीनगर में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में लोकल और बाहरी छात्रों के बीच टकराव से तनाव पैदा हो गया. फिर जैसे तैसे प्रशासन के काबू पा लेने के बाद महबूबा कुछ राहत महसूस कर रही होंगी कि कश्मीरी पंडितों के लिए कॉलोनी बसाने को लेकर विवाद होने लगा. ये मामला भी जैसे तैसे रफा दफा हुआ.

महबूबा सरकार अभी कुछ देर चैन की सांस भी नहीं ले पाई होगी कि 8 जुलाई को हिज्बुल आतंकी बुरहान वानी सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मार डाला गया. फिर क्या था, विरोध इस कदर होने लगा जैसे घाटी उबलने लगी हो.

महबूबा ने ये कह कर मरहम लगाने की कोशिश की कि उन्हें पता होता तो उनकी कोशिश होती कि उसका एनकाउंटर न हो. महबूबा की इन बातों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ.

घाटी में सबसे लंबे कर्फ्यू में अब तक 96 लोग मारे जा चुके हैं जबकि जख्मी होने वालों की तादाद 12 हजार से भी ज्यादा बताई जा रही है जिनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं. सबसे बुरा हाल तो उन डेढ़ सौ लोगों का है जो पैलेट गन के शिकार हुए हैं. उनमें से कइयों के हमेशा के लिए अंधे हो जाने का खतरा पैदा हो गया है.

आधा साल तो जैसे तैसे गुजरा लेकिन बाकी हिस्सा तो ऐसा रहा जैसा शायद ही किसी ने सोचा हो. लोगों को घरों में इस कदर कैद रहना पड़ा कि ईद की नमाज तक के लिए उन्हें घरों या ज्यादा से ज्यादा कॉलोनी बाहर जाने की छूट नहीं मिली.

लंबे कर्फ्यू के चलते बच्चों की पढ़ाई पर भी खराब असर पड़ा, बस अच्छी बात यही रही कि इम्तिहान करा लिये गये. इम्तिहान में बच्चों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया जिससे उनके घरवालों की तकलीफ थोड़ी कम जरूर हुई होगी.

...और सियासी उठापटक

मुख्यमंत्री बनने के दो महीने बाद महबूबा चुनाव में उतरीं तो कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्हें उनकी जीत तक का भरोसा नहीं हुआ. अनंतनाग सीट उनके पिता मुफ्ती सईद के निधन से खाली हुई थी - लेकिन सारी आशंकाओं को मात देते हुए महबूबा ने 12 हजार वोटों के अंतर से चुनाव जीता. लेकिन कश्मीर के हालात से निबटने में सरकार द्वारा उठाए गये कदमों को नाकाफी मानते हुए पीडीपी सांसद तारिक हमीद कर्रा ने इस्तीफा दे दिया.

स्थानीय मुश्किलों के अलावा सीमा पार से होने वाली घुसपैठ तो पूरे साल चलती रही लेकिन उरी हमला सबसे बुरा रहा जब ड्यूटी के बाद सो रहे जवानों को शहादत के लिए मजबूर होना पड़ा.

इसे भी पढ़ें : मजबूरी ही सही कश्मीर के लिए अच्छा है महबूबा का ताजा स्टैंड

बहरहाल अंत भला तो सब भला. उरी का बदला सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये लिया गया और खास बात रही शहीद जवानों के साथियों को ऑपरेशन के लिए भेजा जाना. तमाम बुरे हालात के बीच एक और अच्छी बात रही कि महबूबा और मोदी सरकार हर कदम पर साथ नजर आये. बीजेपी और पीडीपी के गठबंधन को लेकर जो आशंकाएं जताई जा रही थीं - उसका ये बेहतर जवाब रहा. वैसे अब घाटी में बैंक, पोस्ट आफिस और दूसरे कामकाज सामान्य होते जा रहे हैं, हां - नोटबंदी ने देश के बाकी जगहों की तरह वहां भी मुश्किलें बढ़ाई हैं. लोगों के लिए राहत की बात ये है कि विधायक, मंत्री और खुद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती लगातार इलाकों का दौरा कर रही हैं - और लोगों से उनकी बातें सुन रही हैं.

कुल मिलाकर देखें तो महबूबा मुफ्ती और जम्मू-कश्मीर दोनों ही के लिए 2016 बहुत बुरा रहा. अब खुद महबूबा और कश्मीर के लोगों को भी यही उम्मीद होगी कि 2017 की सुबह अमन का पैगाम लेकर दस्तक दे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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