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किसान आंदोलन को अन्ना हजारे के रामलीला आंदोलन से कितना अलग समझा जाएगा?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 10 दिसम्बर, 2021 06:30 PM
  • 10 दिसम्बर, 2021 06:30 PM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के कृषि कानूनों (Farm Laws) के वापस लेने की घोषणा के बाद तीन हफ्ते बाद किसानों का धरना (Farmers Protest) खत्म हो रहा है और जनवरी, 2022 में समीक्षा होनी है - मतलब, चुनावों से पहले किसान फिर से अंगड़ाई ले सकते हैं.

11 दिसंबर से किसान दिल्ली की सीमाओं पर अपना धरना खत्म कर देंगे, लेकिन किसान आंदोलन (Farmers Protest) अभी खत्म नहीं हुआ है - किसान नेताओं के मुताबिक, किसान आंदोलन को अभी सिर्फ स्थगित करने का फैसला लिया गया है. किसानों का ये धरना 26 नवंबर, 2020 को शुरू हुआ था.

19 नवंबर, 2021 को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने प्रकाश पर्व के मौके पर तीनो कृषि कानून (Farm Laws) वापस लेने की घोषणा किये थे, ये कहते हुए कि वो किसानों को कृषि कानूनों की अहमियत समझा नहीं पाये - "...तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी!

साल भर से ज्यादा चले किसान आंदोलन में दस साल पहले हुए अन्ना हजारे के रामलीला आंदोलन की भी कई बार झलक देखने को मिली. दोनों आंदोलनों में एक कॉमन नाम रहा योगेंद्र यादव का - और एक बार फिर उनके साथ वैसी ही ट्रेजेडी हुई.

अन्ना हजारे ने भी किसानों के समर्थन में फिर से आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया था, लेकिन देवेंद्र फडणवीस और बीजेपी नेताओं की टीम ने समझा बुझा कर मना भी लिया. हो सकता है दस साल पहले भी अन्ना हजारे को कांग्रेस नेता भी मना लेते, लेकिन तब उनके साथ अरविंद केजरीवाल जैसा एक मजबूत और स्मार्ट सूत्रधार भी हुआ करता था.

किसान आंदोलन काफी लंबा चला, लेकिन किसान आंदोलन की तरह हिंसा के दाग से नहीं बचा रह सका और शायद ये हिंसा के बाद के ही वाकये रहे जो किसान नेता राकेश टिकैत के लिए आंदोलन को न टूटने देने का अवसर भी उपलब्ध कराये.

दोनों आंदोलनों के प्रभाव की तुलना करें तो निश्चित रूप से किसान आंदोलन तीनों...

11 दिसंबर से किसान दिल्ली की सीमाओं पर अपना धरना खत्म कर देंगे, लेकिन किसान आंदोलन (Farmers Protest) अभी खत्म नहीं हुआ है - किसान नेताओं के मुताबिक, किसान आंदोलन को अभी सिर्फ स्थगित करने का फैसला लिया गया है. किसानों का ये धरना 26 नवंबर, 2020 को शुरू हुआ था.

19 नवंबर, 2021 को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने प्रकाश पर्व के मौके पर तीनो कृषि कानून (Farm Laws) वापस लेने की घोषणा किये थे, ये कहते हुए कि वो किसानों को कृषि कानूनों की अहमियत समझा नहीं पाये - "...तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी!

साल भर से ज्यादा चले किसान आंदोलन में दस साल पहले हुए अन्ना हजारे के रामलीला आंदोलन की भी कई बार झलक देखने को मिली. दोनों आंदोलनों में एक कॉमन नाम रहा योगेंद्र यादव का - और एक बार फिर उनके साथ वैसी ही ट्रेजेडी हुई.

अन्ना हजारे ने भी किसानों के समर्थन में फिर से आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया था, लेकिन देवेंद्र फडणवीस और बीजेपी नेताओं की टीम ने समझा बुझा कर मना भी लिया. हो सकता है दस साल पहले भी अन्ना हजारे को कांग्रेस नेता भी मना लेते, लेकिन तब उनके साथ अरविंद केजरीवाल जैसा एक मजबूत और स्मार्ट सूत्रधार भी हुआ करता था.

किसान आंदोलन काफी लंबा चला, लेकिन किसान आंदोलन की तरह हिंसा के दाग से नहीं बचा रह सका और शायद ये हिंसा के बाद के ही वाकये रहे जो किसान नेता राकेश टिकैत के लिए आंदोलन को न टूटने देने का अवसर भी उपलब्ध कराये.

दोनों आंदोलनों के प्रभाव की तुलना करें तो निश्चित रूप से किसान आंदोलन तीनों कृषि कानूनों की वापसी के अपने मकसद में कामयाब रहा - जबकि जन लोकपाल की डिमांड के साथ चलाये गये अन्ना आंदोलन को लेकर ऐसा नहीं कहा जा सकता. देर से ही सही, सुप्रीम कोर्ट के दबाव में लोकपाल की नियुक्ति तो हुई, लेकिन बिलकुल वैसा ही बिना दांत का जिसकी आशंका अरविंद केजरीवाल तब जताया करते थे - हालांकि, बाद में समझ में आया कि अरविंद केजरीवाल ने तो अन्ना आंदोलन को मुख्यधारा की राजनीति में आने के लिए महज एक टूल के तौर पर इस्तेमाल किया था.

किसान आंदोलन खत्म क्यों नहीं हुआ?

केंद्र सरकार से बातचीत के लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने पांच सदस्यों की एक कमेटी बनायी थी. किसान आंदोलन को लेकर मोर्चे के फैसले की जानकारी देने के लिए कमेटी के सदस्यों के साथ राकेश टिकैत और योगेंद्र यादव भी प्रेस कांफ्रेंस में मौजूद थे.

किसान दिल्ली की सीमाओं से लौट जाएंगे, लेकिन महीने भर बाद मांगें नहीं मानी गयी तो किसान नेता आंदोलन की नयी रणनीति बनाएंगे

योगेंद्र यादव ने कहा कि किसानों ने अपना खोया हुआ आत्मसम्मान हासिल किया है... किसानों ने एकता बनायी है और किसानों ने राजनैतिक ताकत का एहसास किया है. फिर बताये, '11 दिसंबर से पूरे देश में जहां कहीं भी किसान धरने पर बैठे हैं वो उठा लिया जाएगा.'

1. महीने भर बाद होगी आंदोलन की समीक्षा: किसान नेताओं के मुताबिक, अगले साल 15 जनवरी को एक बार फिर वे स्थिति की समीक्षा करेंगे - और अगर केंद्र सरकार वादे पूरे नहीं करती तो वे फिर आंदोलन करेंगे.

ध्यान देने वाली बात ये है कि किसानों ने अगला कदम उठाने के लिए महीने भर से थोड़ा ज्यादा का वक्त लिया है - और समीक्षा की जो तारीख रखी है वो विधानसभा चुनावों से पहले की ही है. मतलब ये कि वो भी ऐसा वक्त होगा जब सरकार चुनाव को लेकर काफी दबाव में होगी.

किसान नेता बताते हैं कि सरकार की तरफ से संयुक्त किसान मोर्चा को एक पत्र मिला है. सरकार के उस पत्र पर कृषि सचिव संजय अग्रवाल के हस्ताक्षर हैं. पत्र में किसानों की पांच प्रमुख मांगों का भी जिक्र है, जिसमें एमएसपी, किसानों के खिलाफ मुकदमों की वापसी, मुआवजा, बिजली बिल और पराली का मामला शामिल है.

किसान मोर्चा की पांच सदस्यों वाली समिति के सदस्य बलबीर राजेवाल ने कहा है, 'अहंकारी सरकार को झुकाकर जा रहे हैं, लेकिन यह मोर्चे का अंत नहीं है... हमने इसे स्थगित किया है. 15 जनवरी को फिर संयुक्त किसान मोर्चा की फिर मीटिंग होगी जिसमें आंदोलन की समीक्षा करेंगे.'

2. अन्ना आंदोलन भी पहले होल्ड हुआ था: 2011 में अन्ना हजारे का आंदोलन भी दो चरणों में पूरा हुआ था. पहले चरण में चार दिन बाद ही केंद्र सरकार की तरफ से एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके बाद अन्ना हजारे को एक छोटी बच्ची ने मंच पर नींबू पानी पिलाया और अनशन खत्म हो गया.

हालांकि, तभी अन्ना हजारे ने ये घोषणा भी कर दी थी कि 15 अगस्त तक अगर लोकपाल विधेयक पास नहीं किया जाता तो वो फिर से आंदोलन शुरू करेंगे. जैसी आंशका थी, विधेयक पास नहीं होन पर अन्ना हजारे अपनी टीम के साथ 16 अगस्त को फिर से धरने पर बैठ गये.

देखते ही देखते पूरे देश में अन्ना हजारे के समर्थन में माहौल बन गया. जगह जगह लोग 'मैं भी अन्ना' वाली सफेद टोपी पहन कर टीम अन्ना को समर्थन देने लगे. दबाव बढ़ने पर सरकार को लोकपाल बिल लोक सभा में पेश करना पड़ा और तभी अन्ना हजारे का आंदोलन खत्म हुआ.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की राजनीति तो अन्ना आंदोलन के नतीजे के तौर पर फल फूल रही है, लेकिन राकेश टिकैत अभी तक मुख्यधारा की राजनीति से दूरी बना कर चल रहे हैं. ऐसा भी नहीं कि शुरू से ही अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत की ही तरह वो राजनीति से दूर रहे हैं - राकेश टिकैत चुनाव भी लड़ चुके हैं.

अरविंद केजरीवाल की नजर तो अब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टिकी हुई लगती है, देखना है राकेश टिकैत कब तक खुद को रोक पाते हैं - जाहिर ये सब 15 जनवरी की बैठक के बाद ही सामने आ सकेगा.

बेदाग रहा अन्ना आंदोलन, लेकिन किसान आंदोलन

दोनों आंदोलनों को देखें तो योगेंद्र यादव का नाम एक कड़ी के तौर पर जुड़ा नजर आता है. पहली बार की ही तरह योगेंद्र यादव के साथ एक बार फिर मिलता जुलता ही व्यवहार हुआ. रामलीला आंदोलन के बाद जब बंटवारा हुआ तो योगेंद्र यादव ने अन्ना हजारे के साथ न जाकर अरविंद केजरीवाल के साथ हो लिये थे, जबकि किरण बेदी और अनुपम खेर जैसी शख्सियतों ने नयी राजनीतिक राह पकड़ने की जगह अन्ना हजारे की लाइन पर फैसला लिया - शायद ये उनकी पहले से वैचारिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता के चलते भी हुआ होगा.

जैसे कुछ ही दिन बाद अरविंद केजरीवाल ने योगेंद्र यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया था, संयुक्त किसान मोर्चा ने भी योगेंद्र यादव को सस्पेंड कर दिया था. योगेंद्र यादव के खिलाफ एक्शन की वजह मानी गयी - लखीमपुर खीरी हिंसा में मारे गये बीजेपी कार्यकर्ताओं से मिलने जाना.

1. दिल्ली हिंसा, 26 जनवरी, 2021: रामलीला मैदान के मंच से अक्सर अन्ना हजारे को लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करते देखा जाता रहा. वो हर बार कहा करते कि किसी के उकसावे में नहीं आना है और हर हाल में हिंसा से बचना है. गांधीवादी होने के नाते अन्ना हजारे का अहिंसक आंदोलन पर ही जोर हुआ करता - और यही वजह रही कि अन्ना हजारे का आंदोलन पर हिंसा का कोई दाग नहीं लगा.

ये भी संयोग ही है कि 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के शांतिपूर्ण होने का दावा करने वालों में भी योगेंद्र यादव ही आगे दिखे, लेकिन जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा था, किसान आंदोलन के बीच से निकले उपद्रवियों का सड़क पर तांडव देखने को मिला.

बेशक योगेंद्र यादव और दूसरे किसान नेताओं ने उपद्रवियों से खुद को अलग किया और हिंसा की निंदा की, लेकिन वे आंदोलन पर इतना कंट्रोल नहीं रख पाये कि ऐसी घटनाओं को रोक पायें. दिल्ली हिंसा के बाद एक बार लगा कि आंदोलन एक बुरे तरीके से खत्म हो गया, लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ कि राकेश टिकैत के लाइव टीवी पर आंसू निकल आये और किसान आंदोलन नये सिरे से खड़ा हो गया.

2. लखीमपुर खीरी हिंसा: किसान आंदोलन के दौरान ही लखीमपुर खीरी में भी एक हिंसक वाकया हुआ जिसमें चार किसानों सहित आठ लोगों की मौत हो गयी. जिसे लेकर केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे आशीष पर किसानों को कुचल कर मार डालने का आरोप लगा - और पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया.

दोनों ही घटनाओं की परिस्थितियां भले ही अलग रही हों, लेकिन ये तो कहेंगे ही कि हिंसा की वजह से किसान आंदोलन, अन्ना आंदोलन की तरह बेदाग नहीं रहा.

आंदोलनों के पीछे की राजनीति

किसान आंदोलन के पीछे तो कांग्रेस का खुला सपोर्ट ही नजर आया है, लेकिन अन्ना आंदोलन के दौरान पर्दे के पीछे चल रही राजनीति छन छन कर ही सामने आती रही. आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की तरफ से कारसेवा की चर्चा रही, लेकिन कभी खुल कर कोई बात नहीं कही गयी.

अरसा बाद सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील प्रशांत भूषण ने एक इंटरव्यू में दावा किया कि अन्ना आंदोलन को बीजेपी और संघ का समर्थन हासिल था. अगर बीती कड़ियों को जोड़ें तो आंदोलन के मंच पर किरण बेदी और अनुपम खेर जैसे लोगों में उस राजनीति की झलक तो देखी ही जा सकती है.

वैसे भी जिस तरह से आंदोलन के बाद 2013 में अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीते और साल भर बाद ही आम चुनाव में कांग्रेस को हराकर बीजेपी सत्ता में आयी, राजनीति के तार आसानी से जोड़े जा सकते हैं.

रामलीला आंदोलन के पीछे बीजेपी और संघ के सपोर्ट की बात से प्रशांत भूषण ने अन्ना हजारे को अलग रखा. प्रशांत भूषण के मुताबिक अरविंद केजरीवाल ये सब जरूर जानते थे, लेकिन अन्ना हजारे को ऐसे किसी समर्थन के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

कैप्टन अमरिंदर सिंह के पंजाब के मुख्यमंत्री रहते तो किसान आंदोलन को सरकार का सपोर्ट महसूस किया ही जाता रहा, चरणजीत सिंह चन्नी ने तो दिल्ली हिंसा के आरोपियों को दो-दो लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा कर सब कुछ सामने ही ला दिया. चन्नी सरकार ने दिल्ली पुलिस की तरफ से आरोपी बनाये गये पंजाब के 83 लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा की थी.

और लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद तो जिस तरीके से प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपनी राजनीति चमकायी है हर कोई देख ही रहा है!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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