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अभिव्यक्ति के अधिकार का झूठा दावा!

    • सन्‍नी कुमार
    • Updated: 17 फरवरी, 2016 02:42 PM
  • 17 फरवरी, 2016 02:42 PM
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याद रखिए कि हमारी स्वतंत्रता वहीं खत्म हो जाती है जहां से दूसरे की नाक शुरू हो जाती है. कोई अधिकार निरापद और निरंकुश नहीं हो सकता. सबसे बढ़कर देश को बर्बाद करने का तो अधिकार किसी को भी नहीं है.

भारत का संविधान हम सबको बोलने अर्थात अभिव्यक्ति की आजादी देता है. सबसे बढ़कर संविधान का अनुच्छेद -19(1)(क) जिसके तहत हमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त होती है वह एक मौलिक अधिकार है. यह अधिकार इसलिए दिया गया है ताकि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश में सबको अपनी बात कहने का मौका मिले. जाहिर है कि भारत जैसे विविधता वाले राष्ट्र में विचार और उसको अभिव्यक्त करने के तरीके भी भिन्न भिन्न प्रकार के होंगे. इसलिए आवश्यक है कि अधिकारों में परस्पर सामंजस्य हो न कि विरोध, अन्यथा बोलने की आजादी के नाम पर अराजकता को बढ़ावा मिलेगा. यही वजह है कि इस आजादी पर कुछ युक्ति युक्त निर्बंधन भी आरोपित किए गए हैं.

अगर वर्तमान संदर्भ में देखें तो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी बोल देने का चलन आम हो चला है. फिर बुद्धिजीवियों का एक खास समूह तुरंत अनुच्छेद 19(1)(क)  की आड़ लेकर उसके समर्थन में जुट जाते हैं और न केवल समर्थन करते हैं बल्कि चिल्ला-चिल्ला कर यह भी कहते हैं यह अधिकार उन्हें संविधान से मिला है. दरअसल, ये झूठ बोलते हैं और अपने झूठ को चतुराई की चासनी में भिगो कर सच साबित करने की कोशिश करते हैं.

वस्तुतः ये उन संवैधानिक प्रावधानों की चर्चा नहीं करते हैं जिनमें यह बताया गया है कि किन-किन आधारों पर बोलने की आजादी को प्रतिबंधित किया गया है. संविधान की नजर से देखें तो अनुच्छेद 19(2) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्ति युक्त निर्बंधन आरोपित करता है. यह अनुच्छेद ऐसे आठ आधारों की चर्चा करता है जिसके तहत उपरोक्त अधिकार को सीमित किया जा सकता है. इनमें से कई आधार अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये राज्य की सुरक्षा से जुड़े हुए हैं. अब अगर इन आधारों पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटी वर्तमान घटना और इस जैसी अन्य घटनाओं को देखा जाए तो इतना तो साफ है कि ये न केवल असंवैधानिक हैं बल्कि राज्य की अखंडता को चुनौती देने वाले हैं. अब प्रतिबंधों की बात करें पहला आधार ही यही है कि ऐसी अभिव्यक्ति जो आंतरिक अशांति, राज्य के विरुद्ध युद्ध या व्यापक नुकसान वाले हिंसा को बढ़ावा देने वाली हों तो उसे रोका जाए.

भारत का संविधान हम सबको बोलने अर्थात अभिव्यक्ति की आजादी देता है. सबसे बढ़कर संविधान का अनुच्छेद -19(1)(क) जिसके तहत हमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त होती है वह एक मौलिक अधिकार है. यह अधिकार इसलिए दिया गया है ताकि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश में सबको अपनी बात कहने का मौका मिले. जाहिर है कि भारत जैसे विविधता वाले राष्ट्र में विचार और उसको अभिव्यक्त करने के तरीके भी भिन्न भिन्न प्रकार के होंगे. इसलिए आवश्यक है कि अधिकारों में परस्पर सामंजस्य हो न कि विरोध, अन्यथा बोलने की आजादी के नाम पर अराजकता को बढ़ावा मिलेगा. यही वजह है कि इस आजादी पर कुछ युक्ति युक्त निर्बंधन भी आरोपित किए गए हैं.

अगर वर्तमान संदर्भ में देखें तो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी बोल देने का चलन आम हो चला है. फिर बुद्धिजीवियों का एक खास समूह तुरंत अनुच्छेद 19(1)(क)  की आड़ लेकर उसके समर्थन में जुट जाते हैं और न केवल समर्थन करते हैं बल्कि चिल्ला-चिल्ला कर यह भी कहते हैं यह अधिकार उन्हें संविधान से मिला है. दरअसल, ये झूठ बोलते हैं और अपने झूठ को चतुराई की चासनी में भिगो कर सच साबित करने की कोशिश करते हैं.

वस्तुतः ये उन संवैधानिक प्रावधानों की चर्चा नहीं करते हैं जिनमें यह बताया गया है कि किन-किन आधारों पर बोलने की आजादी को प्रतिबंधित किया गया है. संविधान की नजर से देखें तो अनुच्छेद 19(2) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्ति युक्त निर्बंधन आरोपित करता है. यह अनुच्छेद ऐसे आठ आधारों की चर्चा करता है जिसके तहत उपरोक्त अधिकार को सीमित किया जा सकता है. इनमें से कई आधार अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये राज्य की सुरक्षा से जुड़े हुए हैं. अब अगर इन आधारों पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटी वर्तमान घटना और इस जैसी अन्य घटनाओं को देखा जाए तो इतना तो साफ है कि ये न केवल असंवैधानिक हैं बल्कि राज्य की अखंडता को चुनौती देने वाले हैं. अब प्रतिबंधों की बात करें पहला आधार ही यही है कि ऐसी अभिव्यक्ति जो आंतरिक अशांति, राज्य के विरुद्ध युद्ध या व्यापक नुकसान वाले हिंसा को बढ़ावा देने वाली हों तो उसे रोका जाए.

इस प्रावधान के अनुसार क्या ‘भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जारी ' जैसा नारा लगाना राज्य के विरुद्ध युद्ध नहीं है? फिर एक आधार यह है कि यदि कोई अभिव्यक्ति अश्लील प्रकृति का है तो उसे प्रतिबंध किया जाए. अब सवाल ये है कि कुछ दिन पूर्व ऐसे ही छद्म अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा प्रधानमंत्री के लिए आपत्तिजनक संबोधनों का इस्तेमाल करना अश्लील अभिव्यक्ति का उदाहरण नहीं था? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तब भी प्रतिबंधित किया जा सकता है यदि कोई जानबूझकर न्यायाधीशों पर पक्षपात का आरोप लगाता है. इस हिसाब से यह कहना अफजल गुरु और याकूब मेमन को जानबूझकर फांसी दी गई क्या परोक्ष रूप से न्यायाधीशों की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठाता? फिर यदि कोई व्यक्ति किसी को अपराध करने के लिए उकसाये तो ऐसी अभिव्यक्ति को रोका जा सकता है. इस दृष्टिकोण से लोगों को ‘भारत की बर्बादी तक जंग लड़ने को' प्रोत्साहित करना क्या अपराध की श्रेणी में नहीं आता?

सबसे बढ़कर यदि कोई अभिव्यक्ति भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर राज्य की सर्वोच्चता को चुनौती दे या भारत के किसी क्षेत्र को संघ से पृथक होने के लिए उकसाये तो उसे अपराध माना जाएगा. तो क्या ‘इंडिया गो बैक' और ‘आजादी लेकर रहेंगे' जैसे नारे अपराध की श्रेणी में नहीं आते? आखिर किससे आजादी चाहिए? जिसके अधीन रहकर हम ये सब बोल रहे हैं? फिर ऐसा भी नहीं है कि ये प्रतिबंध कोई आज लगे हों. अधिकांश प्रतिबंध प्रथम संविधान संशोधन -1951 के तहत और राज्य की संप्रभुता को बनाये रखने के लिए अभिव्यक्ति को सीमित करने का प्रावधान 16वें संविधान संशोधन -1963 द्वारा जोड़ा गया है.  फिर ये दोनों ही संशोधन जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते ही हुआ है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक तो थे लेकिन ‘भारत की बर्बादी ' नहीं चाहते थे. साथ ही संवैधानिक प्रावधानों से इतर देखें तो भी हमें ऐसा कुछ क्यों बोलना चाहिए जो अव्यवस्था उत्पन्न करता हो.

कहने का तात्पर्य यह है कि ये कहना गलत है कि संविधान हमें ये सब बोलने की आजादी देता है. वास्तव में ये कहना चाहिए कि संविधान हमें ये सब बोलने की आजादी नहीं देता है लेकिन हम बोलेंगे. इस तरह की अफवाहों का काफी बुरा असर पड़ता है. तथाकथित असहिष्णुता की बात भी यहीं से जन्म लेती है. दरअसल, जब कोई इस झूठी बात का लगातार प्रचार करता है कि उसे बोलने नहीं दिया जा रहा है तो सच में लगने लगता है कि माहौल खराब हो रहा है. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि दूसरा पक्ष बिल्कुल निर्दोष है किन्तु जिस तरीके से विचारों की विविधता के नाम पर अराजकता को बढ़ावा दिया जा रहा है वो गलत है. कानून तो एक पक्ष है कि दोषियों को चिन्हित कर उसे सजा दी जाए आदि-आदि. किन्तु सवाल यह है कि आखिर हम किन प्रतीकों को गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं? आखिर विचारों का कौन सा आयाम देश की संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को ‘गुरु' बनाने की बात कर सकता है? फिर ऐसा कौन सा तर्क है जो ‘मैं याकूब हूं' को सही साबित कर सकता हो? ऐसे प्रतीक गढ़कर आखिर हम कैसे राष्ट्र का निर्माण करना चाह रहे हैं जहां हमारे आतंकवादी को हीरो बनाया जा रहा है?

जब पूरा विश्व आतंकवाद से त्रस्त है तब किसी आतंकवादी का यूं महिमामंडन करना अपनी बर्बादी को न्यौता देना है. विचार अलग-अलग हों इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं है किन्तु यदि विचार ऐसे हों जो भारत के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न कर रहे हों तो ठहरकर हमें सोचना चाहिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं. आतंकवादियों को हीरो साबित बनाना एक खतरनाक शुरूआत है और उससे भी खतरनाक है कुछ विशेष समूहों द्वारा इसे शह प्रदान कर इसका औचित्य को सिद्ध करने का प्रयास करना. इतना बड़ा राष्ट्र है तो यहां स्वाभाविक रूप से असहमतियां होंगी किन्तु क्या इसका निदान अफजल और याकूब बनकर होगा?

विध्वंस की बुनियाद पर टिका कोई भी विचार मानवता के लिए खतरा है और इससे सिर्फ राज्य की औपचारिक संस्थाओं को ही नहीं लड़ना है बल्कि एक ऐसे सामाजिक सहमति की भी आवश्यकता है जो इसे गलत कहे. आजादी के बाद से काफी कुछ है इस देश में अभी लम्बी यात्रा तय करनी है किन्तु इस तरह के व्यवधान राष्ट्र के विकास को बाधित करते हैं. हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारी स्वतंत्रता वहीं खत्म हो जाती है जहां से दूसरे की नाक शुरू हो जाती है. कोई अधिकार निरापद और निरंकुश नहीं हो सकता. सबसे बढ़कर देश को बर्बाद करने का तो अधिकार किसी को भी नहीं है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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