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मुफ्त की रेवड़ियां बांटने से आर्थिक अनुशासन की अनदेखी हो रही है!

    • प्रकाश कुमार जैन
    • Updated: 30 जुलाई, 2023 03:01 PM
  • 28 मई, 2023 04:21 PM
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कर्नाटक में महिलाएं बसों में टिकट खरीदने से मना कर रही हैं. लोगों ने बिजली बिल देना बंद कर दिया है. फिर रेवड़ियों की घोषणा कर लागू ना करें तो भई चुनाव तो हमारे देश में हर साल होते हैं. और एक बार विश्वास तोड़ा नहीं कि जनता दोबारा विश्वास नहीं करती. सो गजब का दुष्चक्र निर्मित हो गया है.

क्योंकि अमेरिका जैसा विकसित देश भी डिफ़ॉल्ट हो सकता है. इस कथित सबसे धनी देश की हकीकत है कि कुल कर्ज बढ़कर 31-46 ट्रिलियन डॉलर हो चुका है. इसमें से 10 ट्रिलियन डॉलर तो पिछले तीन साल में ही बढ़ा है. अमेरिका हर दिन ब्याज चुकाने में 1.3 अरब डॉलर खर्च कर रहा है. अक्सर हमारे यहां तमाम विपक्षी दल सरकार की आलोचना करने के लिए खस्ताहाल अर्थव्यवस्था का जिक्र इस बिना पर करते हैं कि हर भारतीय पर 1.16 लाख रुपये का कर्ज है.

उस तर्ज पर देखें तो हर अमेरिकी पर 94000 डॉलर का कर्ज है. ऑन ए लाइटर नोट कहें तो कहाँ मात्र 1402 डॉलर का कर्ज हर इंडियन पर और कहां 94000 डॉलर हर अमेरिकी पर. मतलब एक अमेरिकी एक भारतीय की तुलना में सत्तर गुना ज्यादा कर्जदार है. हालांकि ये एक भ्रांति ही है जिसे Fallacy of Truth ही कहें. कैसे है, इस विवेचना में नहीं जाते, विषयांतर हो जाएगा.

अमेरिका एक्सपोज़ हुआ है चूंकि सरकार के कर्ज लेने की सीमा पर फिलहाल रोक इसलिए लग गई है कि नया कर्ज लेने के लिए बाइडन सरकार को संसद से बिल पास कराना होगा.  लेकिन दिक्कत ये है कि बाइडेन डेमोक्रेट हैं और जहां से बिल पास होगा, वहां रिपब्लिकन बहुमत में हैं. कुल मिलाकर बाइडेन सरकार को कुछ न कुछ हल निकालना होगा, वरना नए पेमेंट के लिए पैसा नहीं होगा. अगर ऐसा हुआ, तो तकनीकी तौर पर अमेरिका डिफॉल्ट कर गया है माना जाएगा.

अमेरिका के हालातों का यूं तो इम्पैक्ट पूरी दुनिया पर पड़ना है और यदि कहें कि अगर अमेरिका डिफॉल्ट कर जाता है तो यह पूरी दुनिया के लिए विनाशकारी होगा. अतिशयोक्ति नहीं होगी. लेकिन भारत के लिए विशेष चिंता है चूंकि तमाम राजनीतिक पार्टियां आर्थिक अनुशासन को ताक पर रखकर खूब फ्रीबी बांट रही हैं. एक समय था आश्वासन भर से काम चल जाता था, लेकिन कम से कम सात दशकों बाद जनता इतनी तो समझदार हो...

क्योंकि अमेरिका जैसा विकसित देश भी डिफ़ॉल्ट हो सकता है. इस कथित सबसे धनी देश की हकीकत है कि कुल कर्ज बढ़कर 31-46 ट्रिलियन डॉलर हो चुका है. इसमें से 10 ट्रिलियन डॉलर तो पिछले तीन साल में ही बढ़ा है. अमेरिका हर दिन ब्याज चुकाने में 1.3 अरब डॉलर खर्च कर रहा है. अक्सर हमारे यहां तमाम विपक्षी दल सरकार की आलोचना करने के लिए खस्ताहाल अर्थव्यवस्था का जिक्र इस बिना पर करते हैं कि हर भारतीय पर 1.16 लाख रुपये का कर्ज है.

उस तर्ज पर देखें तो हर अमेरिकी पर 94000 डॉलर का कर्ज है. ऑन ए लाइटर नोट कहें तो कहाँ मात्र 1402 डॉलर का कर्ज हर इंडियन पर और कहां 94000 डॉलर हर अमेरिकी पर. मतलब एक अमेरिकी एक भारतीय की तुलना में सत्तर गुना ज्यादा कर्जदार है. हालांकि ये एक भ्रांति ही है जिसे Fallacy of Truth ही कहें. कैसे है, इस विवेचना में नहीं जाते, विषयांतर हो जाएगा.

अमेरिका एक्सपोज़ हुआ है चूंकि सरकार के कर्ज लेने की सीमा पर फिलहाल रोक इसलिए लग गई है कि नया कर्ज लेने के लिए बाइडन सरकार को संसद से बिल पास कराना होगा.  लेकिन दिक्कत ये है कि बाइडेन डेमोक्रेट हैं और जहां से बिल पास होगा, वहां रिपब्लिकन बहुमत में हैं. कुल मिलाकर बाइडेन सरकार को कुछ न कुछ हल निकालना होगा, वरना नए पेमेंट के लिए पैसा नहीं होगा. अगर ऐसा हुआ, तो तकनीकी तौर पर अमेरिका डिफॉल्ट कर गया है माना जाएगा.

अमेरिका के हालातों का यूं तो इम्पैक्ट पूरी दुनिया पर पड़ना है और यदि कहें कि अगर अमेरिका डिफॉल्ट कर जाता है तो यह पूरी दुनिया के लिए विनाशकारी होगा. अतिशयोक्ति नहीं होगी. लेकिन भारत के लिए विशेष चिंता है चूंकि तमाम राजनीतिक पार्टियां आर्थिक अनुशासन को ताक पर रखकर खूब फ्रीबी बांट रही हैं. एक समय था आश्वासन भर से काम चल जाता था, लेकिन कम से कम सात दशकों बाद जनता इतनी तो समझदार हो ही गई है कि रेवड़ियां बंटवा ही लेती है.

मसलन ताजा ताजा कर्नाटक में महिलाएं बसों में टिकट खरीदने से मना कर रही हैं. लोगों ने बिजली बिल देना बंद कर दिया है. फिर रेवड़ियों की घोषणा कर लागू ना करें तो भई चुनाव तो हमारे देश में हर साल होते हैं. और एक बार विश्वास तोड़ा नहीं कि जनता दोबारा विश्वास नहीं करती. सो गजब का दुष्चक्र निर्मित हो गया है. खर्च करने के लिए आय बढ़ानी होगी और आय बढ़नी नहीं है तो कर्ज लेना ही पड़ेगा और कर्ज लेने के लिए विधि विधान है नहीं. और यदि आय बढ़ाने के लिए कर लगाए या अन्यान्य उपाय किये तो जनता पर ही बोझ पड़ेगा, कहने का मतलब एक हाथ दिया और दूसरे हाथ से वापस ले लिया चूंकि जनता अब इस गणित को भी खूब जो समझने लगी है.

अमेरिका में तो विपक्षी रिपब्लिक अड़ गया है, यहां तो अड़ना भिड़ना दीगर चीजों पर होता है, जात पात है, ऊंच नीच है, हिंदू मुस्लिम है, मंदिर मस्जिद है एवं कौन क्या और कितना देगा, उसपर है. कहां से देगा, इसपर अड़ना भिड़ना है ही नहीं; हां, जब वित्तीय हालात बदतर हो जाएंगे, ब्लेम गेम खूब होगा. विडंबना ही है कारक को पनपाओं और पनपने दो काल बनने बनाने के लिए ताकि जब काल बन जाए, तो अड़ना भिड़ना उस पर चालू कर दो. खर्चों में कटौती की, फ्रीबी को रोकने की, कोई बात नहीं करता.

किसी ने फुसफुसाया भी तो वोट बैंक खिसका जैसा हालिया चुनावों में देखने को मिला भी. 'मुफ्त की रेवड़ियां' सरीखा टर्म ईजाद हुआ और जिक्र भर क्या करने लगी मोदी सरकार, मुंह की खानी पड़ गई. दरअसल खजाना खिसक जाए, राजनीतिक पार्टियों को फर्क नहीं पड़ता, वोट बैंक नहीं खिसकना चाहिए. सत्ता बरकरार रहे तो पावरफुल बने रहेंगे और पावर है तो स्टेटस सिंबल कायम है.  अमेरिका में तो सरकार को आर्थिक अनुशासन में रखने के लिए संविधान में व्यवस्था है लेकिन भारत में नहीं है. अमेरिकी सरकार ने तय व्यवस्था का पालन नहीं किया तो संकट उपजा है. देखा जाय तो अमेरिकी संविधान में सरकार पर आर्थिक अंकुश रखने का प्रावधान इसीलिए किया गया है ताकि वह संसद की अनुमति लिए बगैर मनमाना कर्ज न ले सके. अपनी कल्याणकारी योजनाओं का खर्च पूरा करने के लिए बाइडन सरकार लगातार कर्ज लेती रही है जिस वजह से अमेरिका का कर्ज जनवरी महीने में ही तय सीमा को छू चुका था. आगामी चुनाव के मद्देनजर बाइडन सरकार खर्च करना ज़ारी रखना चाहती है जबकि रिपब्लिकन सांसदों का मत है कि सरकार का लगातार इतना पैसा खर्च करना जारी नहीं रह सकता.  लेकिन यहां हमारे देश में क्या हो रहा है? उल्टा हो रहा है. सत्ताधारी पार्टी के लोक लुभावन वादों के लिए किये जा रहे खर्चों पर कोई सवाल नहीं है बल्कि जनता से कहा जा रहा है कि हमें वोट दो हम तुम्हें कहीं ज्यादा देंगे, फलाना देंगे, ढिमकाना देंगे. यक़ीनन डेडलाइन जून के पहले ही अमेरिका में कर्ज संकट को लेकर समाधान निकल आएगा, लेकिन भारत की केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक सबक है, जो राजनैतिक फायदे के लिए कल्याणकारी योजनाओं में मुफ्त सुविधाओं पर सरकारी खजाना लुटाने में जुटी रहती है. 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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