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दिल्ली के विधायकों के पास पैसा नहीं है!

    • कुमार कुणाल
    • Updated: 20 अगस्त, 2016 12:18 PM
  • 20 अगस्त, 2016 12:18 PM
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19 अगस्त की सुनवाई में 21 में से लगभग एक दर्जन विधायक अपने वकीलों के साथ आये. लेकिन बाकी बचे विधायकों की दलील अनूठी थी. दलील ये दी गयी कि उनके पास वकील करने के लिए पैसा नहीं है...

जी बिलकुल, दिल्ली के विधायकों का यही रोना है. मजेदार बात तो ये है कि जब 21 विधायकों की सदस्यता ख़तरे में है, और उनका मामला केंद्रीय चुनाव आयोग के सामने पेंडिंग है. ऐसे में इन विधायकों की इस दलील के पीछे मकसद क्या है. ये वाकई एक टेढ़ा सवाल है. ख़ास तौर पर तब जबकि उनकी सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव आया, विधानसभा में पारित भी हुआ, लेकिन केंद्र के साथ लड़ाई कुछ ऐसी चली कि प्रस्ताव की हवा बीच में ही निकल गयी.

ऐसे में जब इसी बीच चुनाव आयोग के सामने 21 विधायकों की सदस्यता को लेकर मामला पिछले कई महीनों से चल रहा है, उसमें सुनवाई के बीच अचानक इस मुद्दे को उठा देना क्या इस मामले को और लंबा खींचने की एक सोची समझी रणनीति है या वाकई दिल्ली के विधायकों की आर्थिक हालत खस्ताहाल है?

कैसे आया ये मामला?

संसदीय सचिव लाभ का पद है या नहीं इस पर केंद्रीय चुनाव आयोग में सुनवाई जुलाई से ही चल रही है. पहली दो सुनवाई में तो आयोग ये ही तय करने में लगा रहा कि पूरे मामले में दिल्ली सरकार, दिल्ली बीजेपी और दिल्ली कांग्रेस को पार्टी बनाया जाए या नहीं. क्योंकि 21 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की याचिका एक वकील प्रशांत पटेल ने डाली है.

 अजब! विधायकों के पास पैसे नहीं है...

खैर, दो सुनवाई के बाद आयोग ने ये तो तय कर लिया है कि न तो केजरीवाल सरकार, और न ही कांग्रेस या बीजेपी इसमें पार्टी होंगे. बल्कि जब भी उनकी सहायता की जरूरत आयोग को पड़ेगी वो उन्हें सुनवाई में शामिल करेगा.

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जी बिलकुल, दिल्ली के विधायकों का यही रोना है. मजेदार बात तो ये है कि जब 21 विधायकों की सदस्यता ख़तरे में है, और उनका मामला केंद्रीय चुनाव आयोग के सामने पेंडिंग है. ऐसे में इन विधायकों की इस दलील के पीछे मकसद क्या है. ये वाकई एक टेढ़ा सवाल है. ख़ास तौर पर तब जबकि उनकी सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव आया, विधानसभा में पारित भी हुआ, लेकिन केंद्र के साथ लड़ाई कुछ ऐसी चली कि प्रस्ताव की हवा बीच में ही निकल गयी.

ऐसे में जब इसी बीच चुनाव आयोग के सामने 21 विधायकों की सदस्यता को लेकर मामला पिछले कई महीनों से चल रहा है, उसमें सुनवाई के बीच अचानक इस मुद्दे को उठा देना क्या इस मामले को और लंबा खींचने की एक सोची समझी रणनीति है या वाकई दिल्ली के विधायकों की आर्थिक हालत खस्ताहाल है?

कैसे आया ये मामला?

संसदीय सचिव लाभ का पद है या नहीं इस पर केंद्रीय चुनाव आयोग में सुनवाई जुलाई से ही चल रही है. पहली दो सुनवाई में तो आयोग ये ही तय करने में लगा रहा कि पूरे मामले में दिल्ली सरकार, दिल्ली बीजेपी और दिल्ली कांग्रेस को पार्टी बनाया जाए या नहीं. क्योंकि 21 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की याचिका एक वकील प्रशांत पटेल ने डाली है.

 अजब! विधायकों के पास पैसे नहीं है...

खैर, दो सुनवाई के बाद आयोग ने ये तो तय कर लिया है कि न तो केजरीवाल सरकार, और न ही कांग्रेस या बीजेपी इसमें पार्टी होंगे. बल्कि जब भी उनकी सहायता की जरूरत आयोग को पड़ेगी वो उन्हें सुनवाई में शामिल करेगा.

यह भी पढ़ें- दिल्ली की जंग जारी है!

अब मामला सीधे सीधे इस बात पर आ गया कि 21 विधायक लाभ के पद पर हैं या नहीं और अगर हैं तो उनकी सदस्यता रद्द करने पर चुनाव आयोग फैसला कब तक लेगा. हर विधायक को अपना पक्ष या तो खुद रखना था या फिर अपने वकील के जरिए. 19 अगस्त की सुनवाई में 21 में से लगभग एक दर्जन विधायक तो अपने वकीलों के साथ आये और अपना पक्ष रखा भी लेकिन बाकी बचे विधायकों की दलील अनूठी थी.

दलील ये दी गयी कि उनके पास वकील करने के लिए पैसा नहीं है लिहाजा केंद्रीय चुनाव आयोग उन्हें वकील मुहैया कराए.

ऐसा मसला किसी विधायक की तरफ से शायद ही देश के इतिहास में पहले कभी आया हो. हालांकि चुनाव आयोग ने उनकी बात में दम नहीं पाया और कहा कि ऐसी सुविधा सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को ही मुहैया कराई जाती है. लिहाजा वो अगली सुनवाई यानि 29 अगस्त को या तो खुद अपना पक्ष रखें या फिर अपने वकील को साथ ले कर आएं. और ये उनके लिए सुनवाई का आखिरी मौका होगा.

पहले विधायकों ने आयोग की सुनवाई पर ही खड़ा किया था सवाल

मामले को थोड़ा और खींचने का ये पहला मौका नहीं है. इससे पहले भी पिछले हफ्ते हुई सुनवाई में विधायकों ने ये तक कहा था कि सदस्यता के मसले पर चुनाव आयोग को सुनवाई का अधिकार ही नहीं है. इसलिए उनके खिलाफ लगी याचिका पर चुनाव आयोग सुनवाई बंद कर दे. लेकिन वहां पर भी उनकी एक न चली.

यह भी पढ़ें- दिल्ली सरकार Vs केंद्र: तू डाल डाल, मैं पात पात...

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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