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Delhi Election 2020: केजरीवाल-प्रशांत किशोर का 'गठबंधन' और मोदी की चुनौती

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 28 मार्च, 2020 05:20 PM
  • 26 दिसम्बर, 2019 06:20 PM
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2015 के चुनाव के बाद अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने सिर्फ बवाना का उपचुनाव जीता है. AAP को जिताने के लिए प्रशांत किशोर (Delhi Election and Prashant Kishor) को फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को काउंटर करने की तरकीब खोजनी होगी.

2020 के मुहाने पर खड़ी भारतीय राजनीति में पांच साल पुराने कई समीकरण बदल चुके हैं, लेकिन चुनौतियां जस की तस बनी हुई हैं. अगर राजनीति के केंद्र में दिल्ली और बिहार को रख कर देखें तो बदलावों के बावजूद बहुत कुछ मिलता जुलता नजर आता है.

जिस तरह बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर (Bihar Election and Prashant Kishor) 2015 में जेडीयू की रणनीति तैयार कर रहे थे - और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती बन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) खड़े हो गये थे, दिल्ली 2020 में भी फिलहाल वैसी ही सियासी स्थिति देखी जा सकती है. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार मोदी के सामने जो मुख्यमंत्री सत्ता में वापसी के लिए जूझ रहा है वो नीतीश कुमार नहीं बल्कि AAP नेता अरविंद केजरीवाल (Narendra Modi) हैं.

फिर पांच साल केजरीवाल

2015 में आम आदमी पार्टी का स्लोगन था - पांच साल केजरीवाल. केजरीवाल को लोगों ने इतनी ताकत दी कि पांच साल शिद्दत से सरकार चलाते रहे. बीच में जब संसदीय सचिव बनाये गये विधायकों की सदस्यता जाने जैसे वाकये नजर आ रहे थे तब भी दिल्ली सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं दिखाया क्योंकि बंपर बहुमत हासिल था.

2015 में तो अरविंद केजरीवाल ने आशीष खेतान को जिम्मेदारी देकर डेल्ही डायलॉग कमीशन बनाया था, साथ ही, लोगों से सीधे कनेक्ट होने के कई तरीके अपनाये थे - अब आम आदमी पार्टी का IPAC के साथ चुनाव अभियान को लेकर करार हुआ है. तकनीकी जानकारी ये है कि संस्था अपने से काम करती है और प्रशांत किशोर इसके सलाहकार हैं. मतलब, अगर समझना हो कि ये IPAC को राह कौन दिखाता है तो मार्गदर्शक मंडल में प्रशांत किशोर ही नजर आएंगे, लेकिन वो सीधे सीधे नहीं क्योंकि वो नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के उपाध्यक्ष हैं जिसकी बीजेपी के साथ बिहार में गठबंधन की सरकार है. बहरहाल, आम आदमी पार्टी के ताजा चुनाव प्रचार के तौर तरीकों पर ध्यान दें तो कदम कदम पर प्रशांत किशोर की रणनीति की झलक मिल रही है. आप का चुनावी स्लोगन पुराने वाले का भी थोड़ा बदला हुआ रूप है.

2015 में...

2020 के मुहाने पर खड़ी भारतीय राजनीति में पांच साल पुराने कई समीकरण बदल चुके हैं, लेकिन चुनौतियां जस की तस बनी हुई हैं. अगर राजनीति के केंद्र में दिल्ली और बिहार को रख कर देखें तो बदलावों के बावजूद बहुत कुछ मिलता जुलता नजर आता है.

जिस तरह बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर (Bihar Election and Prashant Kishor) 2015 में जेडीयू की रणनीति तैयार कर रहे थे - और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती बन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) खड़े हो गये थे, दिल्ली 2020 में भी फिलहाल वैसी ही सियासी स्थिति देखी जा सकती है. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार मोदी के सामने जो मुख्यमंत्री सत्ता में वापसी के लिए जूझ रहा है वो नीतीश कुमार नहीं बल्कि AAP नेता अरविंद केजरीवाल (Narendra Modi) हैं.

फिर पांच साल केजरीवाल

2015 में आम आदमी पार्टी का स्लोगन था - पांच साल केजरीवाल. केजरीवाल को लोगों ने इतनी ताकत दी कि पांच साल शिद्दत से सरकार चलाते रहे. बीच में जब संसदीय सचिव बनाये गये विधायकों की सदस्यता जाने जैसे वाकये नजर आ रहे थे तब भी दिल्ली सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं दिखाया क्योंकि बंपर बहुमत हासिल था.

2015 में तो अरविंद केजरीवाल ने आशीष खेतान को जिम्मेदारी देकर डेल्ही डायलॉग कमीशन बनाया था, साथ ही, लोगों से सीधे कनेक्ट होने के कई तरीके अपनाये थे - अब आम आदमी पार्टी का IPAC के साथ चुनाव अभियान को लेकर करार हुआ है. तकनीकी जानकारी ये है कि संस्था अपने से काम करती है और प्रशांत किशोर इसके सलाहकार हैं. मतलब, अगर समझना हो कि ये IPAC को राह कौन दिखाता है तो मार्गदर्शक मंडल में प्रशांत किशोर ही नजर आएंगे, लेकिन वो सीधे सीधे नहीं क्योंकि वो नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के उपाध्यक्ष हैं जिसकी बीजेपी के साथ बिहार में गठबंधन की सरकार है. बहरहाल, आम आदमी पार्टी के ताजा चुनाव प्रचार के तौर तरीकों पर ध्यान दें तो कदम कदम पर प्रशांत किशोर की रणनीति की झलक मिल रही है. आप का चुनावी स्लोगन पुराने वाले का भी थोड़ा बदला हुआ रूप है.

2015 में प्रशांत किशोर को सामने खड़े प्रधानमंत्री मोदी के चैलेंज से जूझते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार को दोबारा बिठाने की चुनौती थी. 2020 के लिए भी सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं और प्रशांत किशोर की संस्था को अरविंद केजरीवाल को फिर से सत्ता पर कब्जा दिलाने की चुनौती है. नीतीश कुमार के लिए प्रशांत किशोर ने नारा गढ़ा था - 'बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो.'

अरविंद केजरीवाल के लिए भी प्रशांत किशोर ने वही शैली अपनाये रखी है और केजरीवाल के पुराने स्लोगन में थोड़ी तब्दीली कर दी है - 'अच्छे बीते पांच साल, लगे रहो केजरीवाल.'

केजरीवाल के लिए भी मिलता जुलता ही कार्यक्रम बनाया गया है जहां मुख्यमंत्री लोगों के सामने हों और वे उनसे सवाल पूछ सकें - टाउनहाल. दिल्ली में टाउनहाल की शुरुआत नयी दिल्ली लोक सभा क्षेत्र से हो रही है. इस क्षेत्र से फिलहाल मीनाक्षी लेखी बीजेपी की सांसद हैं.

टाउनहाल में केजरीवाल के साथ इलाके 10 विधानसभाओं के विधायक और आप नेता होंगे जिनसे लोग सवाल पूछ सकें. टाउनहाल में पहले सरकार का रिपोर्ट पेश किया जाता है और फिर सवाल जवाब का सिलसिला. दिल्ली में टाउनहाल की 7 मीटिंग होने जा रही है यानी हर लोक सभा क्षेत्र में एक मीटिंग. ये मीटिंग 7 जनवरी तक होनी हैं.

मोदी से मुकाबले के लिए प्रशांत किशोर की सलाह, '...लगे रहो केजरीवाल'

खास बात ये है कि आम आदमी पार्टी के नेता एक राउंड घर घर दस्तक दे चुके हैं - और देखा जाये तो प्रशांत किशोर के कमान संभालने से पहले राउंड का प्रचार कार्य सभी 70 विधानसभा क्षेत्रों में पूरा भी हो चुका है. वैसे प्रचार का ये तरीका किसी जीत की गारंटी नहीं है, आम चुनाव में आम आदमी पार्टी प्रचार के ऐसे दो-तीन दौर चला चुकी थी और तब तक बीजेपी या कांग्रेस के उम्मीदवार भी तय नहीं हो पाये थे - लेकिन नतीजे आये तो मालूम हुआ की सभी सातों सीटें बीजेपी की झोली में लोगों ने डाल दी थीं.

केजरीवाल का रिपोर्ट कार्ड मोदी के निशाने पर

दिल्ली के लोगों के सामने अपनी सरकार के पांच साल का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए केजरीवाल कहते हैं - ‘मैंने पाइपलाइन बिछाकर पिछले पांच साल में दिल्ली में हर घर को पानी मुहैया कराया. हमारे पास अगले पांच साल की योजना है...'

लेकिन रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी ने जब नागरिकता कानून और NRC पर कांग्रेस, ममता बनर्जी और देश भर में प्रदर्शन कर रहे लोगों को नसीहत देने से फुरसत पाये तो केजरीवाल की दिल्ली सरकार पर फोकस हो गये. मोदी ने कहा, 'दिल्ली सरकार शहर की सबसे बड़ी समस्या को लेकर आंखें मूंदे हुए है. ये है पेयजल की समस्या...' मोदी ने ये भी समझाया कि किस तरह केजरीवाल और पार्टी लोगों को बता रही है कि दिल्ली की नलों से बिसलेरी जैसा पानी आने लगा है.

केजरीवाल का कहना है - '5 साल पहले जब AAP की सरकार बनी थी, 58 फीसदी दिल्ली को नल से पानी मिलता था लेकिन अब 93 फीसदी दिल्ली में पाइपलाइन से पानी पहुंचाया जा रहा है... केवल 7 फीसदी दिल्ली ही बची है, जहां पर नल से पानी नहीं आता.'

केजरीवाल का दावा है कि आने वाले एक से डेढ़ साल में 100 फीसदी दिल्ली में नल से पानी आ जाएगा. हर घर में पानी आ सकेगा. अब शर्त ये है कि ऐसा मुमकिन तो तभी होगा जब केजरीवाल की सत्ता में वापसी संभव हो पाये.

अरविंद केजरीवाल का कहना है कि जिस तरह पांच साल पहले दिल्ली की जनता ने ऐतिहासिक बहुमत दिया था, ठीक उसी तरह से AAP सरकार ने काम भी किया है. अन्ना आंदोलन की याद दिलाते हुए केजरीवाल कहते हैं जब जनता ने देखा कि लड़के इमानदार हैं, डरते नहीं हैं साहसी हैं तो सोचा इन्हें मौका मिलना चाहिये और इतनी बड़ी जिम्मेदारी दे दी - 54 फीसदी वोटों के साथ 70 में से 67 सीटें. केजरीवाल फिर कहते हैं कि - सरकार ने अपने काम से दिल्ली की जनता का सीना चौड़ा कर दिया है.

और, इसलिए, 'अबकी बार 67 पार' का टारगेट रखा गया है.

बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल के सामने भी परिस्थितियां बिलकुल वैसी ही हैं जैसा स्वाद देवेंद्र फडणवीस, मनोहर लाल खट्टर और रघुवर दास सत्ता विरोधी फैक्टर के चलते चख चुके हैं. ये ठीक है कि बीजेपी शासन वाले उन तीनों ही राज्यों में मोदी का जादू नहीं चला, लेकिन ये भी जरूरी तो नहीं मोदी के सामने रहने पर नतीजे भी बिहार जैसे ही आयें.

2015 में 70 में से 67 सीटें अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने झटक जरूर लिये थे, लेकिन उसके बाद हुए MCD चुनाव और आम चुनाव में क्या हुआ? दिल्ली नगर निगम चुनावों में बीजेपी ने अपने खिलाफ सत्ता विरोधी फैक्टर को नाकाम करते हुए न तो AAP न ही कांग्रेस को कहीं टिकने दिया. ये जरूर है कि आप और कांग्रेस मिल कर अपने वोट शेयर जोड़ रहे थे कि वो बीजेपी से ज्यादा था, लेकिन बावजूद उसके दोनों के बीच आम चुनाव में गठबंधन नहीं बन सका.

आम चुनाव में तो केजरीवाल की पार्टी का सबसे बुरा हाल रहा. दिल्ली में एक जगह तो आप उम्मीदवार की जमानत भी जब्त हो गयी और ज्यादातर सीटों पर वो कांग्रेस के बाद तीसरे पायदान पर रही. आम चुनाव और विधानसभा चुनाव के फर्क की दलीद दी जा सकती है, लेकिन गारंटी तो नहीं.

2015 के चुनाव के बाद AAP ने सिर्फ बवाना का उपचुनाव जीता है, वरना MCD और आम चुनाव में जो हाल हुआ सबके सामने है - अरविंद केजरीवाल को जिताने के लिए प्रशांत किशोर को फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काउंटर करने की तरकीब खोजनी होगी.

आगे क्या आसार हैं

लोकतंत्र में पांच साल बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. कह सकते हैं लोकतंत्र में पांच साल में ही चक्र पूरा हो जाता है. किसी भी राजनीतिक दल या नेता को जनता पांच साल का मौका देती है. पांच साल तक परखती है. तरह तरह से आजमाती है और फिर जैसे ही दोबारा आमना सामना होता है तत्काल प्रभाव से फैसला सुना देती है.

2019 में देश के लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'मुमकिन है' पर फैसला सुनाया तो महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस, हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर और अभी अभी झारखंड में रघुवर दास की किस्मत का भी फैसला किया है. ये पब्लिक है - अगर कोई ज्योतिषी की भविष्यवाणी के हिसाब से उम्मीद लगाये बैठा हो और ये जनता चाहे तो उस पर पानी फेर देने की ताकत हमेशा अपने हाथ में रखती है - बस बात ये है कि इस ताकत का इस्तेमाल हर पांच साल बाद ही हो पाता है.

अगर कोई ये सोचता है कि पांच साल पड़े हैं देखेंगे, तो वो बिलकुल भूल जाता है कि ये बड़े ही जागरूक और समझदार लोग हैं. कोई कितना भी रायता फैलाये या झांसा दे या फिर माफी मांगता फिरे, जनता ने एक बार फैसला ले लिया तो बस नतीजे पैरों तले जमीन भी खींच सकते हैं. अगर पांच साल में उसकी अपेक्षाओं पर ठीक नहीं उतरा तो चढ़ा कर उतार देने में ये बहुत देर नहीं लगाते.

पांच साल के समय का चक्र कुछ ऐसा है कि बिहार से ठीक पहले दिल्ली का चुनावी स्टेशन पड़ता है. पांच साल बाद एक बार फिर ऐसा संयोग बना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के सामने एक जैसे हालात और एक जैसी चुनौतियां फिर से खड़ी हो गयी हैं - अगर कुछ बदला है तो वो है किरदार - नीतीश कुमार की जगह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ले ली है.

रामलीला मैदान की धन्यवाद रैली से तो यही संकेत मिला है कि 2020 में अरविंद केजरीवाल के सामने प्रधानमंत्री मोदी ही हमेशा नजर आएंगे. मोदी के पीछे हमेशा की तरह अमित शाह और फिर मनोज तिवारी, डॉ. हर्षवर्धन और विजय गोयल अपने अपने तरीके से खुद की मौजूदगी का अहसास कराने की कोशिश करते रहेंगे. अभी तक तो साफ साफ कोई संकेत नहीं मिला है कि बीजेपी ने जैसे 2015 में किरण बेदी को मैदान में उतारा था दोबारा वैसा कोई नया प्रयोग करने का जोखिम उठाएगी. वैसे चर्चाओं की अक्सर कोई हद तो होती नहीं - दिल्ली में कुमार विश्वास का नाम भी वैसे ही लिया जा रहा है जैसे 2021 में पश्चिम बंगाल के लिए सौरभ गांगुली का.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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