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Covid-19 मौतों पर मुआवजा न दे पाने की मजबूरी, क्रूरता ही है!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 23 जून, 2021 02:03 PM
  • 23 जून, 2021 02:03 PM
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सुप्रीम कोर्ट ने उन याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है, जिनमें अधिकारियों को कोविड के शिकार हुए लोगों के परिवारों को मुआवजा देने का निर्देश देने की मांग की गई है. सुनवाई के दौरान केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि मुआवजे के भुगतान से ज्यादा जरूरी अभी कोविड प्रबंधन है. सवाल ये है कि क्या सरकार के तर्क हजम किये जाने लायक हैं ?

2021 में आई Covid 19 की ये दूसरी लहर पहले स्ट्रेन के मुकाबले कहीं ज्यादा विनाशकारी कहीं ज्यादा जानलेवा है. चाहे दोस्त और सहकर्मी हों या फिर परिजन हममें से तमाम लोग ऐसे हैं जिन्होंने कोरोना की इस दूसरी लहर में किसी न किसी अपने को खोया है. चाहे वो सरकारी प्रयास हों या फिर मूलभूत चिकित्सीय सुविधाओं की कमीआज इस लेख को लिखते हुए भी हालात पर रंज करने के कारण हमारे पास तमाम हैं.

ध्यान रहे कोरोना वायरस एक महामारी है जिसकी घोषणा सरकार ने पहले ही कर दी थी बाद में ये भी हुआ कि जो भी कोविड 19 की चपेट में आता है और यदि उसकी मौत होती है तो सरकार मुआवजे के नाम पर 4 लाख रुपये दे. बताते चलें कि कोरोना की चपेट में आने के चलते मरने वाले लोगों के परिजनों को मुआवजा देने की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा था. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट देकर अपना जवाब दिया है.

हलफनामे में केंद्र की मोदी सरकार ने कहा है कि कोरोना से जान गंवाने वाले लोगों के परिजनों को 4 लाख रूपये का मुआवजा नहीं दिया सकता है. सरकार मानती है कि हर कोरोना संक्रमित मरीज की मौत पर मुआवजा राज्यों के वित्तीय सामर्थ्य से बाहर है.

कोविड से हुई मौतों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने जो बातें कहीं हैं वो आम आदमी के लिए कोढ़ पर खाज है

हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को क्या बताया है केंद्र सरकार ने.

देश की सर्वोच्च अदालत के सामने अपना पक्ष रखते हुए केंद्र ने कहा है कि आपदा कानून के तहत अनिवार्य मुआवजा केवल प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूकंप, बाढ़ आदि पर ही लागू होता है. बीमारी के मद्देनजर अपने बचाव करते हुए केंद्र सरकार ने बड़ी ही साफगोही के साथ हलफनामे में इस बात का वर्णन किया है कि यदि एक बीमारी से होने वाली मौत पर...

2021 में आई Covid 19 की ये दूसरी लहर पहले स्ट्रेन के मुकाबले कहीं ज्यादा विनाशकारी कहीं ज्यादा जानलेवा है. चाहे दोस्त और सहकर्मी हों या फिर परिजन हममें से तमाम लोग ऐसे हैं जिन्होंने कोरोना की इस दूसरी लहर में किसी न किसी अपने को खोया है. चाहे वो सरकारी प्रयास हों या फिर मूलभूत चिकित्सीय सुविधाओं की कमीआज इस लेख को लिखते हुए भी हालात पर रंज करने के कारण हमारे पास तमाम हैं.

ध्यान रहे कोरोना वायरस एक महामारी है जिसकी घोषणा सरकार ने पहले ही कर दी थी बाद में ये भी हुआ कि जो भी कोविड 19 की चपेट में आता है और यदि उसकी मौत होती है तो सरकार मुआवजे के नाम पर 4 लाख रुपये दे. बताते चलें कि कोरोना की चपेट में आने के चलते मरने वाले लोगों के परिजनों को मुआवजा देने की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा था. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट देकर अपना जवाब दिया है.

हलफनामे में केंद्र की मोदी सरकार ने कहा है कि कोरोना से जान गंवाने वाले लोगों के परिजनों को 4 लाख रूपये का मुआवजा नहीं दिया सकता है. सरकार मानती है कि हर कोरोना संक्रमित मरीज की मौत पर मुआवजा राज्यों के वित्तीय सामर्थ्य से बाहर है.

कोविड से हुई मौतों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने जो बातें कहीं हैं वो आम आदमी के लिए कोढ़ पर खाज है

हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को क्या बताया है केंद्र सरकार ने.

देश की सर्वोच्च अदालत के सामने अपना पक्ष रखते हुए केंद्र ने कहा है कि आपदा कानून के तहत अनिवार्य मुआवजा केवल प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूकंप, बाढ़ आदि पर ही लागू होता है. बीमारी के मद्देनजर अपने बचाव करते हुए केंद्र सरकार ने बड़ी ही साफगोही के साथ हलफनामे में इस बात का वर्णन किया है कि यदि एक बीमारी से होने वाली मौत पर मुआवजा दिया जाता है और दूसरी पर नहीं तो यह गलत होगा.

ध्यान रहे कोविड 19 से हुई एक के बाद एक मौतों के बाद सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल डाली गई थी और कहा गया था कि जो भी लोग भारत में कोरोना की चपेट में आए हैं और उनकी मौत हुई है, ऐसे में देश की सरकार का ये फर्ज बनता है कि मरने वाले लोगों के परिजनों को 4 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए.

कमी सरकार की है उसे भरपाई करनी तो चाहिए.

भले ही आज केंद्र तमाम तरह के बहाने कर ले और शीर्ष अदालत के सामने फंड्स का रोना रो ले मगर हलफनामे में जो भी बातें है यदि उसपर नजर डालें और गहनता से उसका अवलोकन करें तो मिलेगा कि इस पूरे मामले में सरकार का रवैया शर्मनाक है. ऐसा बिलकुल नहीं था कि सरकार इस बात से अवगत नहीं थी कि यदि मामले बढ़ते हैं तो क्या होगा? आखिर क्यों नहीं अस्पतालों को चाक चौबंद किया गया? क्योंकि एक्सपर्ट्स ने सरकार को बहुत पहले ही इस बात से अवगत करा दिया था कि दूसरी वेव में देश ऑक्सीजन संकट का सामना करेगा तो आखिर क्यों नहीं सरकार इसके प्रति गंभीर हुई ?

क्यों नहीं इसके लिए कोई ठोस कदम उठाए गए? साफ है कि अगर देश ने अपनी एक बड़ी आबादी को खोया है तो इसका एक बड़ा कारण सरकार भी है. ऐसे में भरपाई करने की जिम्मेदारी सरकार की है और उसे आगे आना ही चाहिए.

आखिर क्यों नहीं हुआ चिकित्सा का राष्ट्रीयकरण

50 के दशक से पहले देश में बैंकों की क्या स्थिति थी ये किसी से छिपा नहीं है. कहा जा सकता है कि यदि 50 के दशक से लेकर अब तक बैंक सुचारू रूप से काम कर रहे हैं तो उसके पीछे की एक बड़ी वजह बैंकों का राष्ट्रीयकरण है. कह सकते हैं कि राष्ट्रीकरण होने से बैंकों का आधार मजबूत हुआ और उनकी स्थिति संभाली. अब इन बातों को यदि हम चिकित्सा के मद्देनजर देखें तो इस बात से हम आपको पहले ही अवगत करा चुके हैं कि हर बीतते दिन के साथ भारत की चिकित्सा व्यवस्था बद से बदतर हो रही है.

दिलचस्प ये कि इस बात को सरकार भी बेहतर ढंग से जानती है. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि आखिर बैकों की तरह ही अस्पतालों को भी क्यों नहीं राष्ट्रीकृत किया गया. हम ये सवाल सिर्फ इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि कोविड की इस दूसरी लहर में हम अस्पतालों की हालत बखूबी देख चुके हैं.

साथ ही हमने ये भी देखा है कि आम से लेकर खास तक देश के लोगों को इलाज कराने में किन किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है.

एक उम्मीद थी जिसे सरकार ने चकना चूर कर दिया.

जैसा कि हम इस बात से भी अवगत करा चुके हैं कि कोरोना के इलाज ने आम से लेकर खास लोगों की कमर को तोड़कर रख दिया है. इसलिए लोगों विशेषकर टैक्स पेयर्स को ये उम्मीद थी कि इस मुश्किल वक़्त में सरकार उसके साथ आएगी और आपदा के नाम पर उसे मुआवजा मिलेगा. मगर अब जबकि सरकार ने मुआवजे के मद्देनजर अपने हाथ खड़े कर दिये हैं तो कहा यही जा सकता है कि उम्मीद की एक धुंधली सी किरण दिखाई दे रही थी जिसे केंद्र सरकार ने चकनाचूर कर जनता को ठेंगा दिखा दिया है.

सरकार 19 तो बीमा कंपनियां 21 निकलीं

कहते हैं कि जब वक़्त खराब होता है तो ऊंची डाल पर बैठे व्यक्ति को भी कुत्ता काट लेता है. कोरोना की इस दूसरी लहर ने हमारे साथ कुछ ऐसा ही किया है. वो तमाम लोग, जिन्होंने अपना बीमा कराया था और अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा बतौर प्रीमियम कटवाया उन्हें मुंह की खानी पड़ी है. कंपनियों से जो बन पड़ा है उन्होंने बहाना कर दिया है और पैसे बचा लिए हैं. लोग बेचारे जो ये सोच रहे थे कि जब कोई नहीं होगा तो बीमा कंपनियां होंगी अपना सा मुंह लेकर रह गए हैं.

वित्तीय दवाब का हवाला दिया है केंद्र ने.

गौरतलब है कि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने उत्तर में कहा कि प्राकृतिक आपदाओं के लिए मुआवजे को कोरोना महामारी पर लागू करना किसी भी तरह से जायज नहीं है.सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार और राज्य पहले ही राजस्व में कमी और स्वास्थ्य खर्च में बढ़ोतरी के कारण गंभीर वित्तीय दबाव में हैं. मुआवजा देने के लिए संसाधनों का उपयोग महामारी के खिलाफ कार्यवाही और स्वास्थ्य व्यय को प्रभावित कर सकता है.

कोरोना महामारी के कारण अबतक 3,85,000 से अधिक मौतें हुई हैं जिनके और भी बढ़ने की संभावना है. सवाल ये है कि क्या सरकार द्वारा मुआवजे पर दिये गए ये तर्क जायज हैं? सीधा जवाब है नहीं लेकिन चूंकि हमें झेलना है और साथ ही हमें झेलते रहने की आदत है तो कहीं न कहीं सरकार भी इस बात को जानती है कि देश और देश की जनता उसका दिया हुआ लॉलीपॉप आसानी के साथ थाम लेगी और कोई चूं तक न करेगा.

अंत में हम हिंदी के लोकप्रिय कवि विष्णु प्रभाकर की उन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देते हैं जिनमें उन्होंने कहा था कि

त्रास देता है जो वह हंसता है,

त्रसित है जो वह रोता है.

कितनी निकटता है...रोने और हंसने में.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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