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कांग्रेस, कन्हैया और ‘कुर्सी’ का संकट

    • शशिधर उपाध्याय
    • Updated: 07 अप्रिल, 2016 07:40 PM
  • 07 अप्रिल, 2016 07:40 PM
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सोचिए, एक राष्ट्रीय दल इस स्तर पर आ चुका है, कि उसे अपने नेताओं की कमी को पूरा करने के लिए राष्ट्र-विरोधी नारा लगाने वाले छात्रों का सहारा का सहारा लेना पड़ रहा है.

एक लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों का बहुत महत्व है. फिलहाल भाजपा की केंद्र में सरकार है, और कांग्रेस एक लंबे शासन के बाद विपक्ष की भूमिका में है. होना यह चाहिए था कि कांग्रेस नीतिगत आलोचना के द्वारा एक स्वस्थ विपक्ष की भूमिका निभाती, लेकिन परिस्थितियां ऐसी नहीं लग रही हैं. एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस लड़खड़ा रही है और खुद पतन की राह पर आगे बढ़ रही है. अब देखते हैं कि ऐसी नौबत क्यों आई? कांग्रेस की सबसे बड़ी दुविधा यह है कि उसे ‘कुर्सी’ यानि सत्ता की आदत है, और वह इस दूरी को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है, इसलिए कांग्रेस द्वारा अकारण विरोध और असहयोग की राजनीति की जा रही है. कांग्रेस के पास इस समय कोई प्रभावशाली नेता भी नहीं दिखाई दे रहा है. राहुल गांधी एक कमजोर नेता साबित हो रहे हैं. खुद पार्टी के भीतर से इस बात की आवाज उठ रही है कि प्रियंका गांधी को पार्टी की कमान सौंपी जाए.

ये भी पढ़ें- कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति का रिजल्ट है एनआईटी की घटना

उत्तराखंड में जब कांग्रेस को चाहिए था कि अपने दल पर ध्यान दे, उस समय राहुल गांधी कन्हैया से मिलने में व्यस्त थे. सोचिए, एक राष्ट्रीय दल इस स्तर पर आ चुका है, कि उसे अपने नेताओं की कमी को पूरा करने के लिए राष्ट्र-विरोधी नारा लगाने वाले छात्रों का सहारा का सहारा लेना पड़ रहा है. वह भी ऐसे छात्रों का, जिन्हें खुद ही नहीं पता कि उनकी वास्तविक विचारधारा क्या है? उन्हें किस पार्टी के साथ कार्य करना है? उनका भविष्य क्या है? वे खुद संकट से ग्रस्त हैं.

एक लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों का बहुत महत्व है. फिलहाल भाजपा की केंद्र में सरकार है, और कांग्रेस एक लंबे शासन के बाद विपक्ष की भूमिका में है. होना यह चाहिए था कि कांग्रेस नीतिगत आलोचना के द्वारा एक स्वस्थ विपक्ष की भूमिका निभाती, लेकिन परिस्थितियां ऐसी नहीं लग रही हैं. एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस लड़खड़ा रही है और खुद पतन की राह पर आगे बढ़ रही है. अब देखते हैं कि ऐसी नौबत क्यों आई? कांग्रेस की सबसे बड़ी दुविधा यह है कि उसे ‘कुर्सी’ यानि सत्ता की आदत है, और वह इस दूरी को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है, इसलिए कांग्रेस द्वारा अकारण विरोध और असहयोग की राजनीति की जा रही है. कांग्रेस के पास इस समय कोई प्रभावशाली नेता भी नहीं दिखाई दे रहा है. राहुल गांधी एक कमजोर नेता साबित हो रहे हैं. खुद पार्टी के भीतर से इस बात की आवाज उठ रही है कि प्रियंका गांधी को पार्टी की कमान सौंपी जाए.

ये भी पढ़ें- कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति का रिजल्ट है एनआईटी की घटना

उत्तराखंड में जब कांग्रेस को चाहिए था कि अपने दल पर ध्यान दे, उस समय राहुल गांधी कन्हैया से मिलने में व्यस्त थे. सोचिए, एक राष्ट्रीय दल इस स्तर पर आ चुका है, कि उसे अपने नेताओं की कमी को पूरा करने के लिए राष्ट्र-विरोधी नारा लगाने वाले छात्रों का सहारा का सहारा लेना पड़ रहा है. वह भी ऐसे छात्रों का, जिन्हें खुद ही नहीं पता कि उनकी वास्तविक विचारधारा क्या है? उन्हें किस पार्टी के साथ कार्य करना है? उनका भविष्य क्या है? वे खुद संकट से ग्रस्त हैं.

 कांग्रेस के लिए हर तरफ ‘कुर्सी’ का संकट

उत्तराखंड में किसी भी बड़े नेता ने अपनी पार्टी के विद्रोह और उसके कारणों पर ध्यान देने की बजाय भाजपा पर आरोप लगाना शुरू कर दिया. जबकि एक पत्रकार द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन में यह साबित हो गया कि खुद हरीश रावत हॉर्स ट्रेडिंग में लिप्त थे, जिसकी पुष्टि चंडीगढ़ के FSL लैब से हुई.

बात सिर्फ यहीं तक नहीं सीमित है. हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह घोटालों से जूझ रहे हैं. मनी लांड्रिंग के एक मामले में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उनकी 7 करोड़ की संपत्ति जब्त की जा चुकी है. उनकी भ्रष्टाचार में लिप्तता को देखते हुए कांग्रेस के भीतर से ही इस बात की आवाज उठने लगी है कि नेतृत्व परिवर्तन किया जाए.

ये भी पढ़ें- ..तो क्या राहुल गांधी से भी बड़ा नेता है कन्हैया?

कांग्रेस इस हद तक बौखला चुकी है कि अपने बचाव में उसके नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया है कि अब हिमाचल प्रदेश की बारी है, जहां पर कांग्रेस की सरकार को गिराने का प्रयास भाजपा कर रही है. उधर केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी भी सोलर घोटाले की आंच से गिर चुके हैं. कुल मिलाकर कांग्रेस अपनी आंतरिक कमजोरी और अक्षम नेतृत्व को छिपाने के लिए खोखले आरोपों का सहारा ले रही है.

कांग्रेस इस हालत में क्यों पहुंच चुकी है? दरअसल कांग्रेस के सामने कोई असली मुद्दा नहीं है. वह और वह इस स्तर पर आ चुकी है, कि उसके अंतर्विरोध बढ़ते जा रहे हैं. इसलिए केंद्रीय सत्ता के छिनने के बाद से कांग्रेस राज्यों में भी सत्ता के संकट से जूझ रही है. और खुद पार्टी की आंतरिक सत्ता भी लड़खड़ा चुकी है.

मतलब साफ है, कांग्रेस के लिए हर तरफ ‘कुर्सी’ का संकट है, और कांग्रेस है कि इन कमजोरियों को दूर करने के बजाय महज मोदी विरोध में व्यस्त है. उसके कार्यकर्ताओं का भरोसा खत्म होता जा रहा है. कांग्रेस खोखले विरोध के रास्ते पर कब तक चल सकती है? नकारात्मकता का पर्याय बन चुकी कांग्रेस को ऐसा लगता है कि इन सभी बातों का खामियाजा, हालिया विधानसभा चुनावों में भुगतना पड़ेगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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