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दिग्विजय जी, आतंकवाद पर ये काली सियासत क्यों?

    • अरविंद जयतिलक
    • Updated: 02 नवम्बर, 2016 06:20 PM
  • 02 नवम्बर, 2016 06:20 PM
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दिग्विजय सिंह ने कहा है कि उनको एनआइए पर भरोसा नहीं है. तर्क दिया है कि सरकार ने एनआईए निदेशक को सेवा विस्तार दिया है लिहाजा वह निष्पक्ष जांच नहीं कर सकते...

एक कहावत है कि सत्य की अनदेखी वही करता है जिसे असत्य से लाभ हो. ऐसे ही एक सत्य की अनदेखी फिर देश के कतिपय सियासतदानों द्वारा की जा रही है जो जांच से पहले ही इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि भोपाल के केंद्रीय जेल से फरार प्रतिबंधित संगठन सिमी (स्टूडेंट इस्लामिक मुवमेंट ऑफ इंडिया) के आठ आतंकियों से पुलिस की हुई मुठभेड़ फर्जी है. हो सकता है कि मुठभेड़ के बाद का परिदृश्य कुछ ऐसा ही नजर आ रहा हो. पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि जांच से पहले ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचकर असत्य का प्रसार किया जाए.

विडंबना है कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह सरीखे कई अन्य सियासतदान कुछ ऐसा ही संदेश प्रसारित करते नजर आ रहे हैं. जबकि वे इस सत्य से भलीभांति सुपरिचित हैं कि सिमी के इन आतंकियों ने फरार होने से पहले जेल में ड्यूटी पर तैनात गार्ड की गला रेतकर हत्या की. वे इस तथ्य से भी अवगत है कि इन आठ आतंकियों में से चार आतंकी 2013 में खंडवा जेल से भी फरार हुए थे. उन्हें यह भी पता है जेल से फरार इन आतंकियों के बारे में गांव वालों से सूचना मिलने के बाद ही पुलिस ने उन्हें मुठभेड़ मार गिराया.

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आतंकियों के पास से कुछ हथियार भी बरामद हुए हैं. ऐसे में मामले की जांच से पहले मुठभेड़ को साजिश करार देना देश को गुमराह करने जैसा है. निःसंदेह यह जांच का विषय होना चाहिए कि जेल की इलेक्ट्रॉनिक निगरानी के बावजूद भी आतंकी जेल से फरार होने में कामयाब कैसे हुए. उनकी फरारी की भनक जेल प्रशासन को क्यों नहीं लगी. सवाल यह भी कि यह जानते हुए भी कि ये आतंकी बेहद खतरनाक हैं फिर भी सभी को एक ही बैरक में क्यों रखा गया. आशंका यह भी जताई जा रहा है कि कहीं उनकी फरारी में जेलकर्मियों की संलिप्तता तो नहीं रही.

बेशक इन सभी आशंकाओं की गहनता से जांच होनी चाहिए....

एक कहावत है कि सत्य की अनदेखी वही करता है जिसे असत्य से लाभ हो. ऐसे ही एक सत्य की अनदेखी फिर देश के कतिपय सियासतदानों द्वारा की जा रही है जो जांच से पहले ही इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि भोपाल के केंद्रीय जेल से फरार प्रतिबंधित संगठन सिमी (स्टूडेंट इस्लामिक मुवमेंट ऑफ इंडिया) के आठ आतंकियों से पुलिस की हुई मुठभेड़ फर्जी है. हो सकता है कि मुठभेड़ के बाद का परिदृश्य कुछ ऐसा ही नजर आ रहा हो. पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि जांच से पहले ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचकर असत्य का प्रसार किया जाए.

विडंबना है कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह सरीखे कई अन्य सियासतदान कुछ ऐसा ही संदेश प्रसारित करते नजर आ रहे हैं. जबकि वे इस सत्य से भलीभांति सुपरिचित हैं कि सिमी के इन आतंकियों ने फरार होने से पहले जेल में ड्यूटी पर तैनात गार्ड की गला रेतकर हत्या की. वे इस तथ्य से भी अवगत है कि इन आठ आतंकियों में से चार आतंकी 2013 में खंडवा जेल से भी फरार हुए थे. उन्हें यह भी पता है जेल से फरार इन आतंकियों के बारे में गांव वालों से सूचना मिलने के बाद ही पुलिस ने उन्हें मुठभेड़ मार गिराया.

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आतंकियों के पास से कुछ हथियार भी बरामद हुए हैं. ऐसे में मामले की जांच से पहले मुठभेड़ को साजिश करार देना देश को गुमराह करने जैसा है. निःसंदेह यह जांच का विषय होना चाहिए कि जेल की इलेक्ट्रॉनिक निगरानी के बावजूद भी आतंकी जेल से फरार होने में कामयाब कैसे हुए. उनकी फरारी की भनक जेल प्रशासन को क्यों नहीं लगी. सवाल यह भी कि यह जानते हुए भी कि ये आतंकी बेहद खतरनाक हैं फिर भी सभी को एक ही बैरक में क्यों रखा गया. आशंका यह भी जताई जा रहा है कि कहीं उनकी फरारी में जेलकर्मियों की संलिप्तता तो नहीं रही.

बेशक इन सभी आशंकाओं की गहनता से जांच होनी चाहिए. अगर जांच में कोई दोषी पाया जाता है तो उसके विरुद्ध कठोर से कठोर कार्रवाई भी होनी चाहिए. इसलिए कि इस घटना से जेल की सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है. इसलिए और भी कि भोपाल का केंद्रीय कारागार राज्य का सबसे आधुनिक और अतिसुरक्षित कारागार माना जाता है. बावजूद इसके आतंकी फरार हो जाने में कामयाब हो जाते हैं तो ये चिंता पैदा करने वाला है. अच्छी बात यह है कि मुठभेड़ की सच्चाई पर सवाल उठने के बाद मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने इसकी जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दी है. निःसंदेह इस जांच से सच सामने आ जाएगा.

 आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई से दूर नहीं रह सकती सियासत

लेकिन विडंबनापूर्ण है कि जांच के एलान के बाद भी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ओछी सियासत से बाज नहीं आ रहे हैं. उन्होंने कहा है कि उनको राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) पर भरोसा नहीं है. उन्होंने तर्क दिया है कि चूंकि सरकार ने एनआईए निदेशक को सेवा विस्तार दिया है लिहाजा वह निष्पक्ष जांच नहीं कर सकते. यह तर्क हास्याद्पद और बेमानी है. क्या दिग्विजय सिंह यह कहना चाहते हैं कि जिन अधिकारियों व कर्मचारियों को सेवा विस्तार मिलता है वे अपने उत्तरदायित्व को निष्पक्षता से नहीं निभाते हैं. तब तो यूपीए सरकार में भी सेवा विस्तार पाए अधिकारियों ने अपने उत्तदायित्वों का पालन नहीं किया होगा. समझना कठिन है दिग्विजय सिंह के पास ऐसा कौन-सा पैमाना है जिसके जरिए वे आसानी से निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि कौन निष्पक्ष है अथवा कौन नहीं. गौरतलब है कि दिग्विजय सिंह इस घटना की न्यायिक जांच की मांग कर रहे हैं. लेकिन अगर मध्य प्रदेश सरकार उनकी बात मानते हुए न्यायिक जांच बिठा देती तब दिग्विजय सिंह इस पर भी सवाल उठाते नजर आते. सच तो यह है कि दिग्विजय सिंह की मंशा मामले की निष्पक्ष जांच से कहीं ज्यादा इस मसले पर सियासी रोटियां सेंकना है. अन्यथा वे इस घटना की आड़ में सिमी की तुलना आरएसएस और बजरंग दल सरीखे सामाजिक संगठनों से नहीं करते.

ऐसा नहीं है कि दिग्विजय सिंह इस सच्चाई से अवगत नहीं हैं कि सिमी एक खतरनाक संगठन है और जब उस पर प्रतिबंध लगा तो वह बचने के लिए इंडियन मुजाहिद्दीन का चोला पहन लिया. गौरतलब है कि 1977 में अस्तित्व में आया सिमी के एक इस्लामी छात्र संगठन के रूप में जाना जाता था. वह जमात-ए-इस्लामी हिंद की छात्र ईकाई थी. लेकिन उसका आकर्षण जिहाद की ओर बढ़ता गया. धीरे-धीरे उसका भारतीय लोकतंत्र और संविधान से आस्था उठ गया और स्वयं को इंडियन मुजाहिद्दीन से जोड़ लिया. इसके बाद सिमी से जुड़े लोग आतंकी घटनाओं में पकड़े जाने लगे. यह भी किसी से छिपा नहीं है कि सिमी के आतंकी इंडियन मुजाहिदीन के साथ मिलकर देश भर में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने लगे. इस सच्चाई से अवगत होने के बावजूद भी अगर दिग्विजय सिंह सरीखे सियासतदान सिमी के आतंकियों के मारे जाने पर वितंडा खड़ा कर रहे हैं तो यह उनकी फितरत है.

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गौर करें तो यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने परोक्ष रूप से पुलिस को कठघरे में और आतंकियों को निर्दोष ठहराने की कोशिश की हो. याद होगा कि उन्होंने बटला हाऊस मुठभेड़ कांड मामले में भी ऐसे ही कुतर्क के जरिए पुलिसकर्मियों को गुनाहगार और आतंकियों को बेगुनाह ठहराने की कोशिश की थी. जबकि इस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के एक बहादुर इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को शहीद होना पड़ा था. लेकिन दिग्विजय सिंह के साथ तमाम मानवाधिकार संगठनों यह मानने को तैयार नहीं थे कि मुठभेड़ असली है. हद तो तब हो गयी जब उनके द्वारा कहा गया कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की मृत्यु आतंकियों की गोली से नहीं बल्कि उनके ही साथियों की गोली से हुई. वे अपनी जुगाली से तब भी बाज नहीं आए जब तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम और पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा कहा गया कि बटला हाउस मुठभेड़ में पुलिस की कार्रवाई सही थी.

यूपीए सरकार के एक अन्य मंत्री सलमान खुर्शीद भी दिग्विजय सिंह का अनुसरण करते नजर आए. उन्होंने एक चुनावी जनसभा में कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी बटला हाउस मुठभेड़ की तस्वीरें देखकर भावुक हो गयी थीं. उनकी आंखों से आंसू फूट पड़े थे. याद होगा जब पूरा देश मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट में मारे गए 257 लोगों के मुजरिम याकूब मेमन की फांसी पर प्रसन्न था तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह याकूब की फांसी को लेकर सरकार और न्यायपालिका को कठघरे में खड़ा कर अपनी पीड़ा जता रहे थे. याद होगा जब अमेरिका ने पकिस्तान के एबटाबाद में सर्जिकल स्ट्राइक कर विश्व के सर्वाधिक वांछित आतंकवादी ओसामा-बिन-लादेन को मार गिराया तब दिग्विजय सिंह अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए ओसामा-बिन-लादेन को ‘ओसामा जी‘ कहते सुने गए. यही नहीं जब अमेरिका ने ओसामा-बिन-लादेन के शव को समुद्र में डाल दिया तब दिग्विजय सिंह को अपने ‘ओसामा जी’ अंतिम संस्कार की चिंता सताने लगी. उन्होंने दलील दी कि उनका अंतिम संस्कार मजहबी रीति-रिवाज से होना चाहिए.

याद होगा मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट मामले में जब संजय दत्त को सजा हुई तब भी दिग्विजय सिंह कुतर्क गढ़ते नजर आए. उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि संजय दत्त के पिता सुनील दत्त मुस्लिम हितैषी थे और मुंबई दंगे में मुसलमानों की हिफाजत की इसलिए संजय दत्त को माफ कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि जिस समय संजय दत्त ने गुनाह किया था तब उनकी उम्र महज 33 साल थी इसलिए वे माफी के हकदार हैं. यही नहीं देश को यह भी याद है कि जब उत्तर प्रदेश राज्य के आजमगढ़ जिले के संजरपुर गांव में आतंकवादियों की धरपकड़ हो रही थी तब दिग्विजय सिंह सरीखे तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ने आसमान सिर पर उठा लिया. उन्होंने संजरपुर जाकर गलतबयानी की और वोटयुक्ति के लिए घड़ियाली आंसू टपकाए. दिग्विजय सिंह की एक कुप्रवृत्ति यह भी रही है कि वे हर आतंकी घटना का रिश्ता-नाता हिंदू संगठनों से जोड़ने का प्रयास करते हैं। 2008 में जब मुंबई बम धमाका हुआ तब उन्होंने इस धमाके के पीछे हिंदू संगठनों का हाथ बताया था. दरअसल ऐसे वितंडा के पीछे दिग्विजय सिंह का मकसद मुस्लिमों की संवेदनाओं से खेलकर उन्हें अपने पाले में लाना होता है. इस बार भी वे ऐसा ही करते नजर आ रहे हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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