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जेएनयू का गुब्बारा तो फूटना ही था

    • डॉ. कपिल शर्मा
    • Updated: 03 मार्च, 2016 02:02 PM
  • 03 मार्च, 2016 02:02 PM
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बाहर के लोगों के लिए जेएनयू का क्लोज कैंपस हमेशा से रहस्यमयी रहा है. बड़े बड़े पत्थरों के बीच बसा ये कैंपस वैचारिक चट्टान में बदल गया है, जिसमें बगावत भी है और टकराव भी.

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी हमेशा से लाल रही है. लाल सलाम के नारे यहां हावी रहे हैं. छात्र संघ के चुनावों में यहां दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसा ग्लैमर नहीं रहा, लेकिन सियासत के खांटी अंदाज ने हमेशा अपना दबदबा बनाए रखा. दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र संघ चुनाव में जहां मनी और मसल पावर के इस्तेमाल के आरोप लगते रहे हैं वहीं जेएनयू में चुनाव का माहौल होता जरूर है, लेकिन अलग अंदाज में. यहां पोस्टरबाजी होती है, तो हैंडमेड पोस्टर होते हैं, 'नारे' लगते हैं, तो उनका अंदाज अलग होता है. मुद्दे उठते हैं, तो उनकी दिशा जुदा होती है. यहां वामपंथ के लाल रंग की सुर्खी इतनी गहरी है, कि यही कभी हल्का लाल, तो कभी गहरा लाल होता रहा है, कैंपस पर कभी कोई दूसरा रंग चढ़ ही नहीं पाया और जब चढ़ा, तो तूफान आ गया. आखिर क्यों?

जेनएनयू का कैंपस डीयू की तरह खुला नहीं है. क्लोज़ कैंपस है, हॉस्टल का माहौल हैं, ढाबे की चहल पहल हैं, तो जंगल का वीराना भी. इस क्लोज कैंपस में विचारधारा किसी बवंडर की तरह घूमती है. जो कैंपस की दीवारों पर नारों और प्रतीकों की शक्ल में भी कई बार ढलती है. कैंपस में जाइए, तो दीवारें ही आपको बता देंगीं कि आप विचारों के भंवर में फंसे, सिस्टम से लड़ते, बगावत करते, उलझते-सुलझते मुद्दों-मसलों कि दुनिया में पहुंच गए हैं. वामपंथ का दबदबा है, तो दक्षिणपंथ की छटपटाहट भी दीवारों पर ही मिलेगी, लेकिन इस छटपटाहट को दीवारें बड़ी मुश्किल से मिलती हैं और लड़ाई भी दीवारों पर लिखे नारों के बीच अपनी जगह बनाने की हमेशा से रही है.

बाहर के लोगों के लिए जेएनयू का क्लोज कैंपस हमेशा से रहस्यमयी रहा है. बड़े बड़े पत्थरों के बीच बसा ये कैंपस वैचारिक चट्टान में बदल गया है, जिसमें बगावत भी है और टकराव भी. विचारधारा के लिहाज से बगावती तेवर यहां वामपंथ को भी चरमपंथ तक ले जाते हैं. अमेरिका के पूंजीवाद के विरोध से लेकर, देश में मनुवाद की मुखालफत के नारों के लिए यहां किसी बहाने की जरूरत नहीं रही है. हवा में ही लाल रंग ऐसे घुला है कि यहां आनेवाले लोग सुर्खी से बच नहीं...

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी हमेशा से लाल रही है. लाल सलाम के नारे यहां हावी रहे हैं. छात्र संघ के चुनावों में यहां दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसा ग्लैमर नहीं रहा, लेकिन सियासत के खांटी अंदाज ने हमेशा अपना दबदबा बनाए रखा. दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र संघ चुनाव में जहां मनी और मसल पावर के इस्तेमाल के आरोप लगते रहे हैं वहीं जेएनयू में चुनाव का माहौल होता जरूर है, लेकिन अलग अंदाज में. यहां पोस्टरबाजी होती है, तो हैंडमेड पोस्टर होते हैं, 'नारे' लगते हैं, तो उनका अंदाज अलग होता है. मुद्दे उठते हैं, तो उनकी दिशा जुदा होती है. यहां वामपंथ के लाल रंग की सुर्खी इतनी गहरी है, कि यही कभी हल्का लाल, तो कभी गहरा लाल होता रहा है, कैंपस पर कभी कोई दूसरा रंग चढ़ ही नहीं पाया और जब चढ़ा, तो तूफान आ गया. आखिर क्यों?

जेनएनयू का कैंपस डीयू की तरह खुला नहीं है. क्लोज़ कैंपस है, हॉस्टल का माहौल हैं, ढाबे की चहल पहल हैं, तो जंगल का वीराना भी. इस क्लोज कैंपस में विचारधारा किसी बवंडर की तरह घूमती है. जो कैंपस की दीवारों पर नारों और प्रतीकों की शक्ल में भी कई बार ढलती है. कैंपस में जाइए, तो दीवारें ही आपको बता देंगीं कि आप विचारों के भंवर में फंसे, सिस्टम से लड़ते, बगावत करते, उलझते-सुलझते मुद्दों-मसलों कि दुनिया में पहुंच गए हैं. वामपंथ का दबदबा है, तो दक्षिणपंथ की छटपटाहट भी दीवारों पर ही मिलेगी, लेकिन इस छटपटाहट को दीवारें बड़ी मुश्किल से मिलती हैं और लड़ाई भी दीवारों पर लिखे नारों के बीच अपनी जगह बनाने की हमेशा से रही है.

बाहर के लोगों के लिए जेएनयू का क्लोज कैंपस हमेशा से रहस्यमयी रहा है. बड़े बड़े पत्थरों के बीच बसा ये कैंपस वैचारिक चट्टान में बदल गया है, जिसमें बगावत भी है और टकराव भी. विचारधारा के लिहाज से बगावती तेवर यहां वामपंथ को भी चरमपंथ तक ले जाते हैं. अमेरिका के पूंजीवाद के विरोध से लेकर, देश में मनुवाद की मुखालफत के नारों के लिए यहां किसी बहाने की जरूरत नहीं रही है. हवा में ही लाल रंग ऐसे घुला है कि यहां आनेवाले लोग सुर्खी से बच नहीं पाते.

जेएनयू में विचारधारा के गढ़ को ढहाने की कोशिश न हुई हो, ऐसा भी नहीं है. लेकिन कैंपस में वामपंथ की नींव इतनी गहरी है कि कोई कामयाब नहीं हुआ. विरोधी विचारधारा की मौजूदगी रही ज़रूर, लेकिन वो वामपंथी विचार के आसपास ही रही. भगवा झंडे थामे एबीवीपी को समर्थन जरूर मिला, लेकिन जड़े जमाने में कामयाबी नहीं मिली. देश में माहौल बदला, तो कैंपस में भी बदलाव का झौंका आया. पिछले छात्रसंघ चुनाव में भगवा झंडे को भी आखिर चुनावी जीत में हिस्सा मिला. लेफ्ट के बीच राइट की मौजूदगी ने संकेत दे दिए थे. तूफान आएगा इस बात का यकीन तो था, लेकिन इतनी जल्दी आ जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी.

दरअसल राइट के निशाने पर लेफ्ट की ये बादशाहत लंबे वक्त से थी. होती भी क्यों नहीं, क्योंकि वामपंथियों ने कैंपस में अपना दबदबा वर्षों बनाए रखा था और विचारधारा को ठूंस ठूंस कर भर दिया. लेकिन वामपंथ के दबदबे के बीच बगावत की एक और धारा यहां धीरे-धीरे पनपती रही. ये बगावत धर्म, जाति, वर्ग, भेद हर रंग में मौजूद रही. दुनियाभर के मुद्दों पर विमर्श और विरोध का अड्डा कैंपस बन गया. इसीलिए जेनएनयू में महिषासुर पूजा जाने लगा, अफजल के नारे लगने लगे, सिस्टम से बगावत देश के विरोध में बदलने लगी. इसी के बीच भगवा धारण करने वाली दक्षिण की विचारधारा ने भी अपनी जगह बनाने की कोशिश की. देश में भी ऐसी सरकार है, जिसे लाल से एतराज है और भगवा से प्यार. बस यूं समझ लीजिए कि लाल हवा से भरे गुब्बारे में जब भगवा ने भी फूंक मारी, तो गुब्बारे का फटना तो तय था. अब ये किसी भी रूप में होता, होना तय था ...हुआ तो देशद्रोह की शक्ल में.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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