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CJI impeachment: आखिर अब सुप्रीम कोर्ट के पास क्या रास्ते बचे हैं?

    • अनुषा सोनी
    • Updated: 24 अप्रिल, 2018 06:48 PM
  • 24 अप्रिल, 2018 06:48 PM
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अपने मतभेदों के बावजूद पूरे सुप्रीम कोर्ट को इस परीक्षा की घड़ी में एकसाथ खड़े होना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि इस संवैधानिक रूप से कठिन समय का सही जवाब दे सकें.

ये विडम्बना ही है कि विपक्ष द्वारा चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग के जिस प्रस्ताव को उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने खारिज कर दिया, उसमें नई जान फूंकने के लिए विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में ही फरियाद लगाई है. शायद लोकतंत्र का यही मतलब है और यही लोकतंत्र की खुबसूरती भी है.

विपक्ष द्वारा अभूतपूर्व कदम उठाया गया है. उपराष्ट्रपति ने जिस महाभियोग के प्रस्ताव को खारिज कर दिया उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जाएगी. हमारे देश में आज के पहले इस तरह की स्थिति कभी नहीं आई. संवैधानिक कानूनी इतिहास में इसके पहले ऐसे अवसर का कभी सामना नहीं करना पड़ा है. अब इस याचिका का भविष्य क्या है? कौन सा बेंच और कोरम इस मामले की सुनवाई करेगा, ये सभी वो प्रश्न हैं जो संवैधानिक रूप से अनिश्चित स्थिति को बताते हैं और जिनसे सुप्रीम कोर्ट को जूझना होगा.

अनिश्चित स्थिति

आइए पहले इस बात का आंकलन करते हैं कि आखिर यह इतनी असाधारण स्थिति क्यों है. सभी प्रशासनिक शक्तियों पर चीफ जस्टिस का विशेष अधिकार होता है. उन्होंने हाल ही में कुछ आदेश पारित किए हैं जिसके द्वारा ये मैसेज दिया गया कि "रोस्टर का मास्टर" चीफ जस्टिस ही होता है. ये चीफ जस्टिस को कई मामलों को सुनने के लिए बेंच बनाने के विशेषाधिकार देता है. अब क्योंकि इस मामले में वो खुद एक पार्टी हैं, तो हम नहीं जानते कि इस मामले में प्रशासिनक फैसला कौन लेगा और ये तय करेगा कि इसे कितने जजों की बेंच सुनेगी और कैसे इसका निपटारा किया जाएगा.

कानून के जानकार कहते हैं कि इस मामले में चीफ जस्टिस का ऑफिस इस मामले में कुछ नहीं कर सकता. न तो प्रशासनिक अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं और न ही कानूनी अधिकार का.

CJI और शीर्ष चार जजों के बाद आखिर कौन इस मामले की सुनवाई...

ये विडम्बना ही है कि विपक्ष द्वारा चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग के जिस प्रस्ताव को उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने खारिज कर दिया, उसमें नई जान फूंकने के लिए विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में ही फरियाद लगाई है. शायद लोकतंत्र का यही मतलब है और यही लोकतंत्र की खुबसूरती भी है.

विपक्ष द्वारा अभूतपूर्व कदम उठाया गया है. उपराष्ट्रपति ने जिस महाभियोग के प्रस्ताव को खारिज कर दिया उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जाएगी. हमारे देश में आज के पहले इस तरह की स्थिति कभी नहीं आई. संवैधानिक कानूनी इतिहास में इसके पहले ऐसे अवसर का कभी सामना नहीं करना पड़ा है. अब इस याचिका का भविष्य क्या है? कौन सा बेंच और कोरम इस मामले की सुनवाई करेगा, ये सभी वो प्रश्न हैं जो संवैधानिक रूप से अनिश्चित स्थिति को बताते हैं और जिनसे सुप्रीम कोर्ट को जूझना होगा.

अनिश्चित स्थिति

आइए पहले इस बात का आंकलन करते हैं कि आखिर यह इतनी असाधारण स्थिति क्यों है. सभी प्रशासनिक शक्तियों पर चीफ जस्टिस का विशेष अधिकार होता है. उन्होंने हाल ही में कुछ आदेश पारित किए हैं जिसके द्वारा ये मैसेज दिया गया कि "रोस्टर का मास्टर" चीफ जस्टिस ही होता है. ये चीफ जस्टिस को कई मामलों को सुनने के लिए बेंच बनाने के विशेषाधिकार देता है. अब क्योंकि इस मामले में वो खुद एक पार्टी हैं, तो हम नहीं जानते कि इस मामले में प्रशासिनक फैसला कौन लेगा और ये तय करेगा कि इसे कितने जजों की बेंच सुनेगी और कैसे इसका निपटारा किया जाएगा.

कानून के जानकार कहते हैं कि इस मामले में चीफ जस्टिस का ऑफिस इस मामले में कुछ नहीं कर सकता. न तो प्रशासनिक अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं और न ही कानूनी अधिकार का.

CJI और शीर्ष चार जजों के बाद आखिर कौन इस मामले की सुनवाई करेगा?

दूसरा मुख्य मुद्दा यह है कि 12 जनवरी के प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद चीफ जस्टिस के बाद के शीर्ष चार जज भी इस मामले की सुनवाई करेंगे इसमें संदेह है. कारण यह है कि उन शीर्ष चार जजों ने भी चीफ जस्टिस के काम करने के तरीके पर ही सवाल उठाया था. ऐसे में उससे संबंधित मामलों में सुनवाई नहीं कर सकते. उनके इंकार करने का मजबूत आधार है. पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी बताते हैं कि शीर्ष पांच जजों द्वारा इस मामले की सुनवाई नहीं करने की स्थिति में छठे न्यायाधीश- न्यायमूर्ति अर्जुन कुमार सीकरी के नेतृत्व में एक खंडपीठ द्वारा इसकी सुनवाई की जानी चाहिए.

लेकिन फिर भी ऊपर पूछे गए प्रश्नों का कोई निश्चित जवाब नहीं मिला है: इस याचिका को न्यायिक या प्रशासनिक स्तर पर कैसे निपटाया जाएगा?

याचिका और केस की सीमा

अब इस याचिका के संभावित प्रभाव का आकलन करते हैं. अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस ने कोई भी डिटेल देने से इंकार कर दिया न ही कपिल सिब्बल ने प्रशासनिक प्रक्रिया के बारे में किसी भी सवाल का जवाब दिया. इस मामले के प्रमुख पहूल इसके न्यायिक और प्रशासनिक मांग ही होंगे.

प्रशासनिक पहलुओं के बारे में तो हम पहले ही बता चुके हैं. चलिए अब जरा इसके दूसरे पहलू पर बात कर लें. लेकिन उसके पहले ये बता दें कि सुप्रीम कोर्ट, राज्यसभा को ये निर्देश नहीं दे सकता कि वो महाभियोग की याचिका को स्वीकार करे. इसमें भी संदेह है कि अगर कोर्ट ने उपराष्ट्रपति के फैसले को उलट दिया, तब मामले को तीन सदस्यों की एक समिति को भेजा जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के सामने क्या क्या रास्ते हैं, आइए ये बताते हैं. शीर्ष अदालत अनुच्छेद 124 के साथ न्यायाधीश पूछताछ अधिनियम, 1968 के तहत प्रक्रिया पर स्पष्टीकरण दे सकती है. शीर्ष अदालत राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में उपराष्ट्रपति की शक्तियों को भी सीमित कर सकती है. पूरी बहस इस बात पर है कि राज्यसभा अध्यक्ष द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग संविधान की सीमाओं के अंतर्गत किया गया है या नहीं. अदालत ये साफ कर सकती है कि क्या राज्यसभा के सभापति के पास महाभियोग के प्रस्ताव को अस्वीकार करने की शक्ति है या फिर 50 हस्ताक्षर आने के बाद याचिका स्वीकार करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. ये हमें उपराष्ट्रपति के फैसले के भविष्य के बारे में भी एक झलक दे सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के सामने की चुनौतियां

सुप्रीम कोर्ट के साथ न सिर्फ संवैधानिक सवाल खड़े हो गए हैं बल्कि विश्वास का संकट भी खड़ा हो गया है. एक ऐसे समय में जब अदालत अपने ही आंतरिक कलह के कारण लोगों की नजरों में है फिर ऐसी स्थिति का सामना करना जहां संविधान में कोई स्पष्ट प्रक्रिया नहीं है, ये सुप्रीम कोर्ट के लिए भी एक कठिन परीक्षा है. इस वक्त सर्वोच्च न्यायालय को एक ऐसी संस्था के रूप में खुद को प्रस्तुत करना होगा जिसकी प्रकृति लोकतांत्रिक और पारदर्शी है.

अपने मतभेदों के बावजूद पूरे सुप्रीम कोर्ट को इस परीक्षा की घड़ी में एकसाथ खड़े होना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि इस संवैधानिक रूप से कठिन समय का सही जवाब दे सकें. इस परिस्थिति में अदालत अपने दृष्टिकोण में रूढ़िवादी नहीं हो सकती है.

इस बात पर जोर देना चाहिए कि हमारा एक न्यायिक इतिहास रहा है. भले ही सुप्रीम कोर्ट के लिए ये शायद "केशवानंद भारती" वाला मामला नहीं है, जिसे हम सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के लिए याद करते हैं कि संविधान की मूल संरचना को बदला नहीं जा सकता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ये भी नहीं चाहेगा कि इस केस को "एडीएम जबलपुर" के रूप में याद किया जाए, जिसे एक ऐसे मामले के रूप में याद किया जाता है जब उच्चतम न्यायालय ने भारतीय नागरिकों की मूल स्वतंत्रता को नजरअंदाज कर दिया था.

(DailyO से साभार)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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