• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

चिराग पासवान की मंजिल जो भी हो, तरीका वोटकटवा वाला ही है

    • आईचौक
    • Updated: 06 अक्टूबर, 2020 05:25 PM
  • 06 अक्टूबर, 2020 05:19 PM
offline
चिराग पासवान (Chirag Paswan) ने बिहार चुनाव में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के खिलाफ जो कदम उठाया है उसकी वजह दोनों के बीच पुरानी रंजिश लगती है, लेकिन ये भी तो सही है कि बीजेपी नेतृत्व (BJP Leadership) बदले की आग में धधक रहा है - और उसके लिए एलजेपी को वोटकटवा बनना पड़ा है.

बिहार चुनाव में कई चीजें पहली बार हो रही हैं. कोरोना प्रोटोकॉल के तहत होने जा रहे बिहार विधानसभा के चुनाव में वोटकटवा नेताओं का झुंड तो सबसे ज्यादा एक्टिव नजर आ रहा है. वैसे तो हर चुनाव में वोटकटवा उम्मीदवारों की भरमार देखी जाती है. चुनाव जीतने की खास रणनीति के तहत कई बार राजनीतिक दल डमी कैंडिडेट खड़ा करते रहे हैं. अब चुनावों में वोटकटवा या तो उम्मीदवार या फिर छोटी पार्टियां हुआ करती हैं, बिहार में इस बार वोटकटवा नेताओं ने गठबंधन बना लिया है.

बिहार में एनडीए से अलग होकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरे चिराग पासवान (Chirag Paswan) ने तो लगता है उसी काम के लिए नया फलक गढ़ लिया है. लोक जनशक्ति पार्टी का कहना है कि वो जेडीयू के खिलाफ चुनाव लड़ रही है और चुनाव नतीजे आने पर बीजेपी (BJP Leadership) के नेतृत्व में सरकार बनाने की कोशिश करेगी.

अब चिराग पासवान की दूरगामी सोच का आधार जो भी हो. मंजिल जो भी तय किये हों, लेकिन अभी तो ऐसा ही लगता है जैसे बिहार के वोटकटवा नेताओं की जमात में चिराग पासवान भी एक नये प्लेयर की तरह ही कूद पड़े हैं. बाकी सब तो अघोषित तौर पर एक्टिव हैं, लेकिन चिराग पासवान जो राजनीतिक दर्शन समझाने की कोशिश कर रहे हैं वो तो किसी भी तरीके से वोटकटवा से अलग नहीं लगता. ज्यादातर अघोषित हैं, एक घोषित तौर पर वही बात अपनी भाषा में डंके की चोट पर कह रहा है.

ये 'दुश्मनी' हम नहीं छोड़ेंगे!

जेपी आंदोलन से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के साथ ही राजनीति में कदम रखने वाले नीतीश कुमार को भले ही रामविलास पासवान को राजनीतिक का मौसम वैज्ञानिक माना जाता रहा हो और भले ही रामविलास पासवान यूपीए 2 की सरकार छोड़ कर 1996 से केंद्र सरकार में मंत्री बने हुए हों, बगैर इस झमेले के कि सरकार किस पार्टी की...

बिहार चुनाव में कई चीजें पहली बार हो रही हैं. कोरोना प्रोटोकॉल के तहत होने जा रहे बिहार विधानसभा के चुनाव में वोटकटवा नेताओं का झुंड तो सबसे ज्यादा एक्टिव नजर आ रहा है. वैसे तो हर चुनाव में वोटकटवा उम्मीदवारों की भरमार देखी जाती है. चुनाव जीतने की खास रणनीति के तहत कई बार राजनीतिक दल डमी कैंडिडेट खड़ा करते रहे हैं. अब चुनावों में वोटकटवा या तो उम्मीदवार या फिर छोटी पार्टियां हुआ करती हैं, बिहार में इस बार वोटकटवा नेताओं ने गठबंधन बना लिया है.

बिहार में एनडीए से अलग होकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरे चिराग पासवान (Chirag Paswan) ने तो लगता है उसी काम के लिए नया फलक गढ़ लिया है. लोक जनशक्ति पार्टी का कहना है कि वो जेडीयू के खिलाफ चुनाव लड़ रही है और चुनाव नतीजे आने पर बीजेपी (BJP Leadership) के नेतृत्व में सरकार बनाने की कोशिश करेगी.

अब चिराग पासवान की दूरगामी सोच का आधार जो भी हो. मंजिल जो भी तय किये हों, लेकिन अभी तो ऐसा ही लगता है जैसे बिहार के वोटकटवा नेताओं की जमात में चिराग पासवान भी एक नये प्लेयर की तरह ही कूद पड़े हैं. बाकी सब तो अघोषित तौर पर एक्टिव हैं, लेकिन चिराग पासवान जो राजनीतिक दर्शन समझाने की कोशिश कर रहे हैं वो तो किसी भी तरीके से वोटकटवा से अलग नहीं लगता. ज्यादातर अघोषित हैं, एक घोषित तौर पर वही बात अपनी भाषा में डंके की चोट पर कह रहा है.

ये 'दुश्मनी' हम नहीं छोड़ेंगे!

जेपी आंदोलन से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के साथ ही राजनीति में कदम रखने वाले नीतीश कुमार को भले ही रामविलास पासवान को राजनीतिक का मौसम वैज्ञानिक माना जाता रहा हो और भले ही रामविलास पासवान यूपीए 2 की सरकार छोड़ कर 1996 से केंद्र सरकार में मंत्री बने हुए हों, बगैर इस झमेले के कि सरकार किस पार्टी की है, लेकिन मन में एक टीस तो रही ही है - बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर न बैठ पाने की. आखिर बेटा कर क्या रहा है, पिता के सपने को पूरा करने के लिए ही तो कदम बढ़ा रहा है.

2005 में बिहार में साल भर के भीतर ही दो बार चुनाव हुए थे. पहली बार 13वीं विधानसभा के लिए फरवरी में और दूसरी बार 14वीं विधानसभा के लिए अक्टूबर में. 2000 में हफ्ता भर मुख्यमंत्री रहने के बाद से ही नीतीश कुमार को हटना पड़ा और कुर्सी पर राबड़ी देवी जा बैठीं. तभी से नीतीश कुमार अपने मिशन में लग गये.

ये तभी का वाकया है जब रामविलास पासवान ने नयी नयी लोक जनशक्ति पार्टी बनायी थी. नीतीश कुमार चाहते थे कि रामविलास पासवान भी उनकी मुहिम में साथ दें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उस चुनाव में रामविलास पासवान को बिहार के लोगों ने किंगमेकर की भूमिका दे डाली थी - चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी को 29 विधानसभा सीटें मिली थी. उसके बाद से एलजेपी को कभी भी वैसा जनसमर्थन नहीं मिला, ये बाद अलग है कि रामविलास पासवान को लोग सभा चुनाव में सफलता मिलती रही. यहां तक कि उसी साल दोबारा चुनाव हुए तब भी एलजेपी को सिर्फ 10 ही सीटें मिली थी.

रामविलास पासवान चाहते तो नीतीश कुमार और बीजेपी के साथ मिल कर सरकार बना सकते थे, लेकिन पासवान राजी नहीं हुए. ऊपर से एक नयी डिमांड रख दी - मुस्लिम मुख्यमंत्री की. न तो वो लालू परिवार के सपोर्ट में खड़े हुए न ही नीतीश कुमार का समर्थन किया.

रामविलास पासवान को अपने दलित वोट बैंक पर तो भरोसा था ही वो मुस्लिम वोट बैंक को साध कर दलित-मुस्लिम गठजोड़ की राजनीति करना चाहते थे. बीच के चुनावों में रामविलास पासवान ने लालू प्रसाद यादव के साथ हाथ मिला कर भी ये प्रयोग किया लेकिन हर बार फेल हुए - एक बार फिर वैसी ही कोशिश है लेकिन चिराग पासवान ने जो रास्ता अख्तियार किया है उसमें ऐसी कोई उम्मीद की किरण तो नहीं ही नजर आ रही है.

बस चुनाव खत्म होने तक हम साथ साथ नहीं हैं!

2005 के पहले चुनाव की ही बात है. बड़ी जोरदार चर्चा रही कि रामविलास पासवान के 29 में से 23 विधायक टूट कर नीतीश कुमार को सरकार बनाने के लिए सपोर्ट करने को तैयार हैं, लेकिन खुद नीतीश कुमार ने आगे आकर बोल दिया कि उनकी किसी भी तरह की तोड़फोड़ में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो ऐसा नहीं करेंगे. हालांकि, बाद में नीतीश कुमार ने 16 फीसदी दलितों में से महादलित कैटेगरी बनाकर 5 फीसदी पासवान लोगों को अलग कर दिया और ये बाद रामविलास पासवान को बहुत बुरी लगी. बाद में नीतीश कुमार सरकार ने नीतीयां भी वैसी ही बनायी जिसमें महादलित ही फायदे में रहे.

15 साल पहले रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के बीच दुश्मनी की जो नींव पड़ी थी वो परिपक्व हो चुकी है - और पिता की राजनीतिक विरासत का हिस्सा उस सियासी दुश्मनी को भी चिराग पासवान अपने तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं.

दूसरे की बंदूक के लिए कोई कंधा और दे तो वो मोहरा ही बना रहता है. चिराग पासवान को लेकर ये तो साफ है कि वो नीतीश कुमार को टारगेट करने के लिए ही चुनाव में कंधा बनने जा रहे हैं लेकिन ये अभी साफ नहीं है कि ये सब पिता पुत्र क दिमाग ही उपज है या इसके आइडिया के पीछे कोई और है. सवाल यही है चिराग पासवान के कंधे पर रख कर चलायी जा रही बंदूक का ट्रिगर दबा कौन रहा है?

बिहार में लगे कुछ पोस्टर भी इशारा भर ही कर रहे हैं - नीतीश तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं. बात पते की ये है कि जेडीयू नेता भी खुल कर रिएक्ट भले न करें, लेकिन वस्तुस्थिति को महसूस तो कर रही रहे हैं - और शायद अंदर ही अंदर नयी रणनीति पर काम भी चल रहा है.

बीबीसी से बातचीत में भागलपुर से जेडीयू सांसद अजय मंडल की बातों से भी ऐसा ही संकेत मिलता है. अजय मंडल कहते हैं, 'ये चिराग पासवान नहीं बोल रहे हैं... बल्कि कौन उनसे ऐसा बुलवा रहा है, ये जनता दल यूनाइटेड के कार्यकर्ताओं और नेताओं के अलावा आम लोगों को भी अंदाजा लग गया है. कौन पीछे से ऐसा कर रहा है सब जान रहे हैं - अभी हम किसी का नाम नहीं लेना चाहते.'

बीबीसी की इसी रिपोर्ट में एक गुमनाम जेडीयू नेता के हवाले से बताया है कि चिराग पासवान ने जो कदम उठाया है उसके बाद बीजेपी के साथ गठबंधन का कोई मतलब नहीं रह जाता. जेडीयू के कई नेताओं की राय बन रही है कि नीतीश कुमार को अकेले चुनाव लड़ने का फैसला करना चाहिये और ये बेहतर विकल्प होगा.

जब जेडीयू नेताओं को भी लगता है और सब कुछ साफ साफ नजर आ रहा हो तो भला चिराग पासवान और उनकी पार्टी को वोटकटवा से अलग कैसे समझा जा सकता है?

ये 'बदलापुर' चुनाव है!

राजनीति में दोस्ती बहुत मायने रखती है और ज्यादातर नेताओं के बारे में माना जाता है कि अगर कोई विशेष परिस्थिति या मजबूरी न हो तो वे ताउम्र दोस्ती निभाते हैं - कुछ नेताओं को लेकर ये भी धारणा बनी है कि वे दोस्ती की ही तरह दुश्मनी भी पूरी शिद्दत से निभाते हैं. नीतीश कुमार के बारे में भी उनके दोस्त और दुश्मन मन में ऐसा ही भाव रखते हैं. राजनीतिक और चुनावी गठबंधन करना या किसी गठबंधन में रहते हुए हंसते मुस्कुराते हुए साथ साथ फोटो के लिए कैमरे के सामने खड़े हो जाना अलग बात है. लालू यादव और रामविलास पासवान के साथ नीतीश कुमार के रिश्ते निभाने के ये रूप देखने को मिल जाते हैं. लालू यादव से तो दो दशक बाद चुनावी वैतरणी पार होने के लिए नीतीश कुमार ने हाथ भी मिला लिया था, लेकिन रामविलास पासवान की तो कभी भी परवाह नहीं की. एनडीए में साथ रहते हुए भी नीतीश कुमार ने चिराग पासवान के आक्रामक बने रहने पर भी कभी ज्यादा रिएक्ट नहीं किया.

ऐसा लगता है जैसे एक तरफ रामविलास पासवान और नीतीश कुमार एक दूसरे के साथ दुश्मनी निभा रहे हैं - और दूसरी तरफ बदले की आग में धधक रहा बीजेपी नेतृत्व है. भला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पांच साल पहले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार से मिली शिकस्त भूलें भी तो कैसे?

अपनी तरफ से तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 के चुनाव में शिकायत ही की थी - सामने से गरीब की थाली छीन लेने की. आखिर नरेंद्र मोदी को 2013 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित कर देने के बाद ही तो नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था. चुनावों में बीजेपी को मिली जीत और प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी की ताजपोशी को देखते हुए ही तो नीतीश कुमार ने जेडीयू की हार की जिम्मेदारी के नाम पर मुख्यमंत्री की कुर्सी भी छोड़ दी थी - और जीतनराम मांझी को सीएम बनाया था.

बीजेपी को 2015 का बदला लेना है - आधा बदला तो तभी पूरा हो गया था जब नीतीश कुमार महागठबंधन छोड़ कर हाथ जोड़े एनडीए में चले आये थे. आधा अब भी बाकी है और बीजेपी उसी मिशन में लगी है - और चिराग पासवान मदद के लिए वोटकटवा तक बनने को तैयार हो गये हैं.

इन्हें भी पढ़ें :

चिराग पासवान ने नीतीश कुमार के खिलाफ कसम खा ली है!

चिराग पासवान दलित पॉलिटिक्स को केंद्र में लाए लेकिन फायदा नहीं ले पाए

बिहार चुनाव सुधारों के लिए आयोग की प्रयोगशाला रहा है, और एक मौका फिर आया है


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲