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मुस्लिम और ईसाई दलितों को नहीं दिया जा सकता एससी का दर्जा! जानिए केंद्र सरकार के तर्क

    • आईचौक
    • Updated: 12 नवम्बर, 2022 08:59 PM
  • 12 नवम्बर, 2022 08:59 PM
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संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के अनुसार, केवल हिंदू, सिख और बौद्ध दलितों को अनुसूचित जाति (Schedule Caste) का दर्जा दिया जा सकता है. संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में सिख दलितों को 1956 और बौद्ध दलितों को 1990 में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया था. लेकिन, धर्म परिवर्तन कर इस्लाम और ईसाई बनने वाले दलितों को आरक्षण (Dalit Reservation) नहीं मिलता है.

सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम और ईसाई दलितों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग वाली याचिका पर केंद्र सरकार ने जवाब दिया है. केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने दलील देते हुआ कहा है कि 'जो दलित धर्म परिवर्तन कर इस्लाम या ईसाई धर्म में गए लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता है. क्योंकि, इन दोनों ही धर्मों में छुआछूत नहीं है. धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम और ईसाई बने लोगों को इन धर्मों में छुआछूत का सामना नहीं करना पड़ता है. और, इसका कारण इन धर्मों का विदेशी होना है.' केंद्र सरकार ने अपनी बात को स्थापित करने के लिए कई तर्क भी दिए हैं. आइए डालते हैं इस पूरे मामले पर एक नजर...

केंद्र सरकार का कहना है कि मुस्लिम और ईसाई धर्म में छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियां नहीं हैं.

क्या है पूरा मामला?

सुप्रीम कोर्ट में ये याचिका सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन नाम के एनजीओ की ओर से दाखिल की गई थी. याचिका में मांग की गई थी कि धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम और ईसाई बन चुके हिंदू दलितों से अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाना चाहिए. और, उन्हें भी अनुसूचित जाति की तरह ही एससी का दर्जा मिलना चाहिए. जिससे मुस्लिम और ईसाई दलितों को भी आरक्षण समेत अन्य लाभ मिलें. बता दें कि ये मामला करीब 18 साल से लंबित था. और, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर केंद्र सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था.

क्यों हो रही मांग?

दरअसल, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के अनुसार, केवल हिंदू, सिख और बौद्ध दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है. संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में सिख दलितों को 1956 और बौद्ध दलितों को 1990 में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया था. क्योंकि, भारत में मुस्लिम वोटों की...

सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम और ईसाई दलितों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग वाली याचिका पर केंद्र सरकार ने जवाब दिया है. केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने दलील देते हुआ कहा है कि 'जो दलित धर्म परिवर्तन कर इस्लाम या ईसाई धर्म में गए लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता है. क्योंकि, इन दोनों ही धर्मों में छुआछूत नहीं है. धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम और ईसाई बने लोगों को इन धर्मों में छुआछूत का सामना नहीं करना पड़ता है. और, इसका कारण इन धर्मों का विदेशी होना है.' केंद्र सरकार ने अपनी बात को स्थापित करने के लिए कई तर्क भी दिए हैं. आइए डालते हैं इस पूरे मामले पर एक नजर...

केंद्र सरकार का कहना है कि मुस्लिम और ईसाई धर्म में छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियां नहीं हैं.

क्या है पूरा मामला?

सुप्रीम कोर्ट में ये याचिका सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन नाम के एनजीओ की ओर से दाखिल की गई थी. याचिका में मांग की गई थी कि धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम और ईसाई बन चुके हिंदू दलितों से अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाना चाहिए. और, उन्हें भी अनुसूचित जाति की तरह ही एससी का दर्जा मिलना चाहिए. जिससे मुस्लिम और ईसाई दलितों को भी आरक्षण समेत अन्य लाभ मिलें. बता दें कि ये मामला करीब 18 साल से लंबित था. और, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर केंद्र सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था.

क्यों हो रही मांग?

दरअसल, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के अनुसार, केवल हिंदू, सिख और बौद्ध दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है. संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में सिख दलितों को 1956 और बौद्ध दलितों को 1990 में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया था. क्योंकि, भारत में मुस्लिम वोटों की सियासत कोई नई बात नहीं है. तो, इस मुस्लिम सियासत को एक नया मोड़ देने के लिए मुस्लिमों को आरक्षण दिए जाने की मांग उठने लगी. जिसके चलते पूर्ववर्ती सरकारों ने सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग की स्थापना की थी. रंगनाथ आयोग की रिपोर्ट में अल्पसंख्यक का दर्जा रखने वाले ईसाई दलितों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने की मांग की गई.

केंद्र सरकार ने क्या कहा?

केंद्र सरकार ने हलफनामा दाखिल करते हुए तर्क दिया है कि 1950 के आदेश में अनुसूचित जाति की पहचान सामाजिक कुरीतियों के इर्द-गिर्द केंद्रित थी. और, यह पहचाने गए समुदायों तक ही सीमित है. ये आदेश ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित था. जिससे पता चलता है कि मुस्लिम या ईसाई समाज में लोगों को कभी भी इस तरह के उत्पीड़न और पिछड़ेपन का सामना नहीं करना पड़ा है. अनुसूचित जाति के लोगों का धर्म परिवर्तिन कर मुस्लिम या ईसाई बन जाने का कारण ही यही था कि सामाजिक कुरीतियों की इस दमनकारी व्यवस्था से निकल सकें. क्योंकि, इस्लाम और ईसाई धर्म में इन सामाजिक कुरीतियों का प्रचलन नहीं है.

केंद्र सरकार की कहना है कि इसे प्रमाणित करने वाला कोई भी दस्तावेज या शोध नहीं है कि अनुसूचित जाति के लोगों के साथ उनके मूल हिंदू धर्म की सामाजिक कुरीतियां बनी रहती है. अगर धर्म परिवर्तन करने वाले सभी लोगों को इसी तरह से आरक्षण का लाभ दिया जाने लगेगा, तो यह एससी समुदाय के साथ अन्याय होगा. सामाजिक कुरीतियों के पहलू को जांचे बिना ऐसा करना कानून का दुरुपयोग होगा. सरकार ने तर्क देते हुए कहा कि अनुसूचित जाति ने 1956 में डॉ. आंबेडकर के आह्वान पर स्वेच्छा से बौद्ध धर्म ग्रहण किया. बौद्ध धर्म अपनाने वाले लोगों की मूल जाति के बारे में पता लगाया जा सकता है. लेकिन, मुस्लिमों और ईसाईयों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है. क्योंकि, इस तरह के धर्मांतरण सदियों से चल रहे हैं.

केंद्र सरकार ने जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को खामियों से भरा हुआ बताते हुए हलफनामे में कहा है कि इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया गया था. इस रिपोर्ट को बनाने में किसी तरह का क्षेत्रीय अध्ययन नहीं किया गया था. इस रिपोर्ट में अनुसूचित जाति में पहले से सूचीबद्ध जातियों पर पड़ने वाले प्रभाव का भी ध्यान नहीं रखा गया. केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि बीते महीने पूर्व सीजेआई केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पैनल का गठन किया गया था. जो जांच करेगा कि क्या मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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