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लोकसभा-विधानसभा चुनाव में मोदी पर एक जैसा भरोसा ही बीजेपी की भूल

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 28 मार्च, 2020 04:19 PM
  • 23 दिसम्बर, 2019 07:55 PM
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झारखंड विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election Results 2019) में भी राष्ट्रीय मुद्दे उठाना बीजेपी नेतृत्व (Amit Shah) को भारी पड़ा है. एक तो बीजेपी ने महागठबंधन को हल्के में ले लिया, दूसरे आदिवासी वोटर को भरोसा नहीं दिला पायी - नतीजा सामने है.

बीजेपी का अति आत्मविश्वास ही अब लगता है उस पर भारी पड़ने लगा है. हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों लगता है बीजेपी ने कोई सबक नहीं ली - और फिर से उसे झारखंड (Jharkhand Assembly Election Results 2019) में भी मुंह की खानी पड़ी है.

राजनीति में थोड़ी भी दिलचस्पी रखने वाला ये जानता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों की मूल प्रकृति बिलकुल अलग होती है. राष्ट्रवाद और 'पाकिस्तान' जैसे मुद्दे (CAA-NRC issues) आम चुनावों में तो बड़ी भूमिका निभाते हैं - लेकिन विधानसभा स्तर पर लोगों की अपनी अलग अलग जरूरतें, समस्याएं और उम्मीदवारों को लेकर समीकरण होते हैं.

क्या BJP नेतृत्व (Amit Shah) दोनों चुनावों की तासीर के बुनियादी अंतर को समझ नहीं पा रही है या फिर उसे कोई नया रास्ता ही नहीं सूझ रहा है?

बीजेपी के लिए सबक बहुत हैं

आम चुनाव में पांच साल बाद बड़ी जीत के बावजूद हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे बीजेपी के लिए बड़े सबक रहे. ऐसा भी नहीं कि बीजेपी ने बिलकुल ही कोई सबक नहीं सीखा - लेकिन जितना जरूरी था उसके मुकाबले काफी कम या फिर गलत.

1. बीजेपी ने गठबंधन की परवाह नहीं की: महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ चुनावी गठबंधन का टूट जाना बीजेपी के लिए बड़ा सबक रहा. झारखंड में बीजेपी के गठबंधन के परवाह न करने की वजह भी यही रही.

AJS के साथ गठबंधन तोड़ देने के बावजूद बीजेपी ने सुदेश महतो के खिलाफ सिल्ली से कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था. फिर भी कम से कम पांच सीटों पर बीजेपी और आजसू की लड़ाई में तीसरा पक्ष फायदा उठा ले गया.

वैसे सुदेश महतो ने चुनाव नतीजे आने के बाद गठबंधन के संकेत दिये जरूर थे, लेकिन आपसी लड़ाई में दोनों का इतना नुकसान हुआ है कि एक दूसरे की मदद का भी कोई फायदा नहीं है.

2. बीजेपी ने महागठबंधन को हल्के में ले लिया: झारखंड में एक तरफ बीजेपी का आजसू से गठबंधन टूट गया और दूसरी तरह विपक्ष का महागठबंधन खड़ा हो गया. हेमंत सोरेन कांग्रेस नेतृत्व को ये समझाने में कामयाब...

बीजेपी का अति आत्मविश्वास ही अब लगता है उस पर भारी पड़ने लगा है. हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों लगता है बीजेपी ने कोई सबक नहीं ली - और फिर से उसे झारखंड (Jharkhand Assembly Election Results 2019) में भी मुंह की खानी पड़ी है.

राजनीति में थोड़ी भी दिलचस्पी रखने वाला ये जानता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों की मूल प्रकृति बिलकुल अलग होती है. राष्ट्रवाद और 'पाकिस्तान' जैसे मुद्दे (CAA-NRC issues) आम चुनावों में तो बड़ी भूमिका निभाते हैं - लेकिन विधानसभा स्तर पर लोगों की अपनी अलग अलग जरूरतें, समस्याएं और उम्मीदवारों को लेकर समीकरण होते हैं.

क्या BJP नेतृत्व (Amit Shah) दोनों चुनावों की तासीर के बुनियादी अंतर को समझ नहीं पा रही है या फिर उसे कोई नया रास्ता ही नहीं सूझ रहा है?

बीजेपी के लिए सबक बहुत हैं

आम चुनाव में पांच साल बाद बड़ी जीत के बावजूद हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे बीजेपी के लिए बड़े सबक रहे. ऐसा भी नहीं कि बीजेपी ने बिलकुल ही कोई सबक नहीं सीखा - लेकिन जितना जरूरी था उसके मुकाबले काफी कम या फिर गलत.

1. बीजेपी ने गठबंधन की परवाह नहीं की: महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ चुनावी गठबंधन का टूट जाना बीजेपी के लिए बड़ा सबक रहा. झारखंड में बीजेपी के गठबंधन के परवाह न करने की वजह भी यही रही.

AJS के साथ गठबंधन तोड़ देने के बावजूद बीजेपी ने सुदेश महतो के खिलाफ सिल्ली से कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था. फिर भी कम से कम पांच सीटों पर बीजेपी और आजसू की लड़ाई में तीसरा पक्ष फायदा उठा ले गया.

वैसे सुदेश महतो ने चुनाव नतीजे आने के बाद गठबंधन के संकेत दिये जरूर थे, लेकिन आपसी लड़ाई में दोनों का इतना नुकसान हुआ है कि एक दूसरे की मदद का भी कोई फायदा नहीं है.

2. बीजेपी ने महागठबंधन को हल्के में ले लिया: झारखंड में एक तरफ बीजेपी का आजसू से गठबंधन टूट गया और दूसरी तरह विपक्ष का महागठबंधन खड़ा हो गया. हेमंत सोरेन कांग्रेस नेतृत्व को ये समझाने में कामयाब रहे कि JMM गठबंधन का नेतृत्व करने में सक्षम है - और बिहार महागठबंधन में कांग्रेस के साथी आरजेडी को भी साथ ले लिया गया.

2014 में ये सभी दल अलग अलग अपने बूते विधानसभा का चुनाव लड़े थे, लेकिन इस बार मिल कर बीजेपी के रघुवर दास को बुरी शिकस्त दे डाले.

3. अपनों की नाराजगी बीजेपी को भारी पड़ी: सरयू राय को रघुवर दास तो फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे, बीजेपी नेतृत्व उनकी बातों में आ गये. सरयू राय का अपनी किताब का नीतीश कुमार से विमोचन कराना बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को भी बुरा लगा था, लिहाजा उनका टिकट कटने में जरा भी देर न लगी.

सरयू राय की ही तरह राघाकृष्ण किशोर का बीजेपी छोड़ कर सुदेश महतो की पार्टी आजसू में चला जाना भी बड़ा झटका रहा. ऐसे और भी टिकट के दावेदार कई नेता बीजेपी छोड़ कर दूसरे दलों में चले गये.

4. बीजेपी ब्रांड मोदी से आगे बढ़ क्यों नहीं पाती: बेशक भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे बड़े ब्रांड हैं - और ये बार बार साबित भी हुआ है. जरूरी तो नहीं ये हर बार साबित ही हो. यूपी और गुजरात से लेकर त्रिपुरा तक ब्रांड मोदी ने बीजेपी को कई चुनाव जिताये हैं - लेकिन उसकी भी तो एक सीमा है.

ये मोदी ही हैं जो 2014 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाये और 2019 में उससे ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में लौटे - लेकिन बाद के छह-सात महीनों में वो जादू नहीं दिखा पाये. यही वो हकीकत है जो बीजेपी आलाकमान को समझना होगा.

धारा 370 का मुद्दा और 'पाकिस्तान की भाषा...' महाराष्ट्र और हरियाणा में नाकाम हो जाने के बावजूद बीजेपी ने झारखंड में भी रवैया नहीं बदला. अमित शाह के पहले झारखंड दौरे में भी जिस बात की सबसे ज्यादा चर्चा हुई वो थी - अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण, जिसमें, बीजेपी के मुताबिक, कांग्रेस लगातार रोड़े अटकाती रही.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियां जब जोर पकड़ीं तब तक असम और नॉर्थ ईस्ट में NRC और नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हिंसक उपद्रव बेकाबू हो चले थे. हालत ये रही कि झारखंड के लोगों से वोट मांगते-मांगते प्रधानमंत्री मोदी को असम के लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करनी पड़ रही थी.

बीजेपी को अब ये गांठ बांध लेनी चाहिये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय मुद्दे विधानसभा चुनावों में नहीं चलने वाले - कुछ कारगर नुस्खा और भी खोजना होगा.

5. विपक्ष का पूरा जोर स्थानीय मुद्दों पर रहा: बीजेपी के उलट विपक्षी महागठबंधन का स्थानीय मुद्दों पर ही जोर बना रहा. हेमंत सोरेन और महागठबंधन के नेताओं ने आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन का मुद्दा जोर-शोर से उठाया.

6. आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री: अब तो साफ हो चला है कि झारखंड के लोगों ने गैर-आदिवासी चेहरे को पूरी तरह खारिज कर दिया है. महागठबंधन लोगों को ये समझाने में कामयाब रहा कि कोई आदिवासी मुख्यमंत्री ही झारखंड के आदिवासियों के लिए कल्याण की बात सोच सकता है. बीजेपी के पास हेमंत सोरेन को काउंटर करने के लिए बड़ा चेहरा अर्जुन मुंडा भी थे, लेकिन रघुवर दास से राजनीतिक मतभेदों के चलते बीजेपी नेतृत्व ने उन्हें दूर ही दूर रखा.

7. अमित शाह की व्यस्तता: अब तो ये भी लगने लगा है कि आम चुनाव की जीत के बाद अमित शाह की व्यस्तता बढ़ जाने का खामियाजा भी बीजेपी को चुकानी पड़ रही है. अमित शाह को अब बीजेपी अध्यक्ष होने के साथ साथ गृह मंत्रालय और कश्मीर मामले भी देखने पड़ते हैं.

जिस तरह महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव के वक्त अमित शाह धारा 370 और कश्मीर को लेकर व्यस्त रहे, ठीक वैसे ही झारखंड चुनाव के वक्त NRC और नागरिकता कानून ने उनका ज्यादातर समय ले लिया.

कहने को तो बीजेपी के पास जेपी नड्डा के रूप में कार्यकारी अध्यक्ष भी है, लेकिन उसे भी तो बड़े मुद्दों पर अप्रूवल अध्यक्ष से ही लेना पड़ता होगा. फिर काम पर असर तो होगा ही.

बीजेपी की बढ़ती लापरवाही और नतीजे

झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे भी BJP के लिए हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे ही हैं. सिर्फ 'बाहरी' मुख्यमंत्रियों वाले प्रयोगों को लेकर ही नहीं, राष्ट्रीय मुद्दों के बूते विधानसभा चुनाव जीतने की कोशिश को लेकर भी.

बीजेपी के लिए 2019 में विधानसभा चुनाव में ऐसा तीसरा नतीजा है - और बीते एक साल में चुनावी पिच पर ये छठा खराब प्रदर्शन है. नतीजा ये हुआ है कि एक साल के अंदर ही बीजेपी को पांच राज्यों में सत्ता गंवानी पड़ी है. 2014 में बीजेपी के पास महज सात राज्य थे, जबकि कांग्रेस का 13 राज्यों में शासन था. आम चुनाव के बाद हुए चुनाव में मोदी लहर का फायदा उठाते हुए बीजेपी राज्यों के शासन में विस्तार करती गयी. बिहार और दिल्ली में बीजेपी को हार का मुंह जरूर देखना पड़ा लेकिन 2018 में पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए का 21 राज्यों में शासन फैल चुका था - 2018 के आखिर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान और हाल ही में महाराष्ट्र में सत्ता गंवाने के बाद अब झारखंड की भी बारी आ ही चुकी है.

बाकी सब अलग रख कर देखें तो भी, बीजेपी को झारखंड में ही 50 फीसदी वोट मिले थे - लेकिन विधानसभा चुनाव में ये हिस्सेदारी, एग्जिट पोल के अनुसार, 34 फीसदी पर आ गयी. 2014 से तुलना करें तो तब मिले 31 फीसदी से तो ज्यादा ही है, फिर भी बीजेपी सरकार बनाने से चूक रही है.

हरियाणा में बीजेपी का हाल तो बाकी विधानसभा चुनावों जैसा ही रहा, लेकिन कांग्रेस का बहुमत से पिछड़ा जाना और दुष्यंत चौटाला की मजबूरी पार्टी के लिए संजीवनी बूटी साबित हुयी. क्या महाराष्ट्र में बीजेपी का नंबर और अच्छा रहता तो शिवसेना के पास उसे दरकिनार करते हुए गठबंधन तोड़ कर विरोधियों के साथ सरकार बनाने का मौका मिल पाता?


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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