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बंगाल में बीजेपी की 'पोरिबरतन' की कोशिश पर पानी फिर गया

    • रोमिता दत्ता
    • Updated: 28 जून, 2018 09:06 PM
  • 28 जून, 2018 09:06 PM
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शहर के महत्वपूर्ण बौद्धिकों लोगों के साथ शाह की मुलाकात को एक कठोर प्रतिक्रिया मिली है. बौद्धिकों से 'पोरिबोरतन' के लिए एक बार फिर अलख जगाने की उम्मीद किसी भी परिणाम पर नहीं पहुंच रही है.

माना जाता है कि बौद्धिकों लोगों का सार्वजनिक जीवन पर बड़ा असर पड़ता है और वो जनता की राय को भी वो प्रभावित करते हैं. इसे देखते हुए बीजेपी ने "जन सम्पर्क अभियान" शुरू किया है ताकि लोगों की सोच और समझ को पढ़ा जा सके. इस बात का पता लगाने की कोशिश करें कि संवाद के माध्यम से उन्हें कैसे अपने पक्ष में कर लिया जाए.

कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने शहर के दो दर्जन प्रमुख लोगों को हाई प्रोफाइल टी पार्टी पर आमंत्रित किया था. लेकिन इस चाय पार्टी के लिए बहुत ही कम लोग आए. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी शहर के सभागार में ऐसे ही दर्शकों के साथ एक मीटिंग करना चाहते थे. लेकिन उनकी ये इच्छा पूरी होगी इसमें संदेह है क्योंकि शहर के जानेमाने लोग अभी भगवा राजनीति से खुद को दूर ही रखना चाहते हैं.

बीजेपी के राज्य महासचिव सयानतन बासु ने आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ दल लोगों को अपने साथ रखने के मकसद से उन्हें धमका रही है. लेकिन इस कारण से वो खुद ही अंदर ही अंदर खोखली हो रही है. ये सच भी है. थियेटर कलाकार साओनली मित्रा, गायक प्रतुल मुखोपाध्याय और थिएटर निर्देशक बिभास चक्रवर्ती जैसे कई बुद्धिजीवियों ने "पोरिबर्तन" या परिवर्तन के इस तरीके के साथ अपनी नापसंदगी जाहिर की है. लेकिन वे वैकल्पिक या विकल्प के रूप में कुछ और करने को तैयार नहीं है.

इन बौद्धिकों में से कई ने राजनीतिक परिवर्तन के लिए लोगों की बढ़ती मांग को मजबूत करने के मकसद से 2010-11 में वामपंथी शासन के दौरान "पोरिबर्तन" के लिए आवाज उठाई थी. बंगाल में वामपंथी शासन के चौबीस सालों ने इसे अजेय का तमगा दे दिया था. जिन बौद्धिक लोगों ने इस "पोरिबर्तन" आंदोलन का नेतृत्व किया था, उन्होंने इस धारणा को तोड़ा और लोगों को इस बात का भरोसा दिलाया कि वो अपने बल पर परिवर्तन ला सकते हैं.

तो फिर आखिर ये बौद्धिक कौन हैं जिनपर बीजेपी पर भरोसा कर रही है? ये वो हार्डकोर लेफ्ट समर्थक बुद्दिजीवी हैं जिन्हें न किसी पुरस्कार का लालच, न ही किसी पदवी का लालच भुना सकता...

माना जाता है कि बौद्धिकों लोगों का सार्वजनिक जीवन पर बड़ा असर पड़ता है और वो जनता की राय को भी वो प्रभावित करते हैं. इसे देखते हुए बीजेपी ने "जन सम्पर्क अभियान" शुरू किया है ताकि लोगों की सोच और समझ को पढ़ा जा सके. इस बात का पता लगाने की कोशिश करें कि संवाद के माध्यम से उन्हें कैसे अपने पक्ष में कर लिया जाए.

कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने शहर के दो दर्जन प्रमुख लोगों को हाई प्रोफाइल टी पार्टी पर आमंत्रित किया था. लेकिन इस चाय पार्टी के लिए बहुत ही कम लोग आए. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी शहर के सभागार में ऐसे ही दर्शकों के साथ एक मीटिंग करना चाहते थे. लेकिन उनकी ये इच्छा पूरी होगी इसमें संदेह है क्योंकि शहर के जानेमाने लोग अभी भगवा राजनीति से खुद को दूर ही रखना चाहते हैं.

बीजेपी के राज्य महासचिव सयानतन बासु ने आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ दल लोगों को अपने साथ रखने के मकसद से उन्हें धमका रही है. लेकिन इस कारण से वो खुद ही अंदर ही अंदर खोखली हो रही है. ये सच भी है. थियेटर कलाकार साओनली मित्रा, गायक प्रतुल मुखोपाध्याय और थिएटर निर्देशक बिभास चक्रवर्ती जैसे कई बुद्धिजीवियों ने "पोरिबर्तन" या परिवर्तन के इस तरीके के साथ अपनी नापसंदगी जाहिर की है. लेकिन वे वैकल्पिक या विकल्प के रूप में कुछ और करने को तैयार नहीं है.

इन बौद्धिकों में से कई ने राजनीतिक परिवर्तन के लिए लोगों की बढ़ती मांग को मजबूत करने के मकसद से 2010-11 में वामपंथी शासन के दौरान "पोरिबर्तन" के लिए आवाज उठाई थी. बंगाल में वामपंथी शासन के चौबीस सालों ने इसे अजेय का तमगा दे दिया था. जिन बौद्धिक लोगों ने इस "पोरिबर्तन" आंदोलन का नेतृत्व किया था, उन्होंने इस धारणा को तोड़ा और लोगों को इस बात का भरोसा दिलाया कि वो अपने बल पर परिवर्तन ला सकते हैं.

तो फिर आखिर ये बौद्धिक कौन हैं जिनपर बीजेपी पर भरोसा कर रही है? ये वो हार्डकोर लेफ्ट समर्थक बुद्दिजीवी हैं जिन्हें न किसी पुरस्कार का लालच, न ही किसी पदवी का लालच भुना सकता है. राज्य के अधिकांश बुद्धिजीवियों की निष्ठा सत्तारूढ़ पार्टी के साथ होने के साथ वैसे भी भाजपा के पास अपने पाले में करने के लिए संख्या बहुत ही सीमित है.

बंगाल में बल पाने के लिए अमित शाह का दांव फेल हो गया.

सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये लोग वामपंथी विचारधार का समर्थन करने वाले हैं और उसपर उनका दृढ़ विश्वास है, फिर भले ही पार्टी हॉट सीट पर क्यों न बैठी हो. सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के हमले से बचने के लिए जमीनी स्तर पर बड़ी संख्या में लेफ्ट कामरेड पलायन कर रहे हैं. इस कारण से ही पार्टी को लगा था कि वामपंथी बुद्धिजीवियों को भगवा कैंप की तरफ ट्रांसफर करने में बहुत दिक्कत नहीं होगी. लेकिन पार्टी यह समझने में असफल रही कि वामपंथी बुद्धिजीवियों को दबाव में नहीं रखा जा सकता. वो अलग ही लोग हैं, और ये लोग सभी प्रकार के प्रलोभन से दूर हैं.

वे अपने विश्वास और विचारधारा पर टिके रहते हैं. ऐसे लोगों से बदलाव की उम्मीद करना मुश्किल है. फिर भी, बीजेपी कोशिश कर रही है.

"जन सम्पर्क अभियान" के लिए सबसे पहले जिन्हें संपर्क किया गया वो अनुभवी फिल्म कलाकार और थियेटर थेस्पियन सौमित्र चटर्जी थे. सौमित्र चटर्जी को वामपंथ के कट्टर समर्थक में से हैं. प्रदेश में तृणमूल कांग्रेस के शासन के सातवें साल में भी चटर्जी भाजपा के स्वाभाविक विकल्प थे. हालांकि उनका इस सरकार से कोई संबंध नहीं है फिर भी.

वो कभी किसी भी राजनीतिक कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए. और इस प्रकार औपचारिक तौर पर उन्होंने पार्टी को कभी स्वीकार नहीं किया. न ही उन्हें किसी पुरस्कार का कोई लालच होगा क्योंकि खुद सरकार ने उन्हें समय-समय पर सम्मानित किया है और पुरस्कार दिया है. इसलिए राज्य भाजपा नेता राहुल सिन्हा चटर्जी से मिलने गए. चटर्जी को 27 जुलाई को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा संबोधित किए जाने वाले एक सभा का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया गया था. चटर्जी ने बड़े ही प्यार से स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया.

सच्चाई तो ये है कि वह खुद को ऐसी पार्टी के साथ जोड़ ही नहीं पा रहे थे जो "अभिव्यक्ति की कलात्मक स्वतंत्रता" में विश्वास नहीं करती है. और सोने पर सुहागा ये कि, "धर्म के आधार पर लोगों को विभाजित करने" में विश्वास करती है. माना जाता है कि चटर्जी ने नोटबंदी की वजह से क्या दिक्कतें झेली ये भी बीजेपी नेता को बताया.

एक अन्य रंगमंच कलाकार चंदन सेन ने भाजपा सरकार को उदारवादी बौद्धिकों जैसे गिरीश कर्णाड और पत्रकार गौरी लंकेश के प्रति निर्दयी होने के लिए निंदा की. ऐसे कई बौद्धिक हैं और उनमें से अधिकतर वामपंथी हैं. लेकिन समय के साथ बीजेपी अपनी आशा खो रही है. शहर के महत्वपूर्ण बौद्धिकों लोगों के साथ शाह की मुलाकात को एक कठोर प्रतिक्रिया मिली है. बौद्धिकों से "पोरिबोरतन" के लिए एक बार फिर अलख जगाने की उम्मीद किसी भी परिणाम पर नहीं पहुंच रही है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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