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वो दौर गया, जब एक नारा लिखने का ईनाम राज्‍य सभा की सदस्‍यता थी

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 15 मार्च, 2017 12:39 PM
  • 15 मार्च, 2017 12:39 PM
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आखिरकार क्यों? क्या अब देश नारों से नहीं, बल्कि ठोस काम और ईमानदार वादों के आधार पर किसी दल के हक में वोट देने लगा है? इन चुनावों का एक बड़ा संकेत ये भी है.

मुझे 1971 के लोकसभा चुनावों का दौर याद आता है. वरिष्ठ पत्रकार, कवि और लेखक श्रीकांत वर्मा ने कांग्रेस के लिए एक नारा लिखा, जिसने अखिल भारतीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई थी. नारा था "वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, इंदिरा कहती हैं गरीबी हटाओ- अब आप ही चुनिए?" गरीबी तो आज तक नहीं हटी (बल्कि, बढ़ती ही चली गई), पर कांग्रेस को 1971 में भारी विजय प्राप्त हुई और श्रीकान्त वर्मा जी राज्य सभा पहुंच गए.

इसी प्रकार के अन्य कई लोकलुभावन नारे कांग्रेस ने दिए. 'कांग्रेस लाओ, गरीबी हटाओ', 'जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर', प्रमोद महाजन का ‘इंडिया शाइनिंग’ और मायावती का भड़काऊ नारा 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' या लालू प्रसाद का 'भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानी कायस्थ) साफ करो' भी खासे चर्चित नारे हुए. पर बीते दिनों सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के दौरान कोई भी नारा अपने लिए खास जगह नहीं बना सका.

आखिरकार क्यों? क्या अब देश नारों से नहीं, बल्कि ठोस काम और ईमानदार वादों के आधार पर किसी दल के हक में वोट देने लगा है? इन चुनावों का एक बड़ा संकेत ये भी है.

नोटबंदी

राजनीति के कई पंडित कह रहे थे कि नोटबंदी के चलते जिस तरह से देश की जनता को कष्ट हुआ, उसका खामियाजा भाजपा को विधानसभा चुनावों में भुगतना पड़ेगा. पर ये आशंका निर्मूल ही साबित होती रही. उत्तर प्रदेश की जनता ने नोटबंदी पर अपनी सहमति की जबरदस्त मुहर लगा ही दी. उत्तर प्रदेश के नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा नोटबंदी से उबर चुकी है. मोदी अपनी चुनावी सभाओं में मतदाताओं को समझाने में सफल रहे कि नोटबंदी देश हित में है. इससे काला बाजार में लिप्त तत्वों को कसा जा सकेगा. जनता ने मोदी जी की बात को समझा और उनके पक्ष में वोट दिया. यानी नारों से दिल...

मुझे 1971 के लोकसभा चुनावों का दौर याद आता है. वरिष्ठ पत्रकार, कवि और लेखक श्रीकांत वर्मा ने कांग्रेस के लिए एक नारा लिखा, जिसने अखिल भारतीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई थी. नारा था "वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, इंदिरा कहती हैं गरीबी हटाओ- अब आप ही चुनिए?" गरीबी तो आज तक नहीं हटी (बल्कि, बढ़ती ही चली गई), पर कांग्रेस को 1971 में भारी विजय प्राप्त हुई और श्रीकान्त वर्मा जी राज्य सभा पहुंच गए.

इसी प्रकार के अन्य कई लोकलुभावन नारे कांग्रेस ने दिए. 'कांग्रेस लाओ, गरीबी हटाओ', 'जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर', प्रमोद महाजन का ‘इंडिया शाइनिंग’ और मायावती का भड़काऊ नारा 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' या लालू प्रसाद का 'भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानी कायस्थ) साफ करो' भी खासे चर्चित नारे हुए. पर बीते दिनों सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के दौरान कोई भी नारा अपने लिए खास जगह नहीं बना सका.

आखिरकार क्यों? क्या अब देश नारों से नहीं, बल्कि ठोस काम और ईमानदार वादों के आधार पर किसी दल के हक में वोट देने लगा है? इन चुनावों का एक बड़ा संकेत ये भी है.

नोटबंदी

राजनीति के कई पंडित कह रहे थे कि नोटबंदी के चलते जिस तरह से देश की जनता को कष्ट हुआ, उसका खामियाजा भाजपा को विधानसभा चुनावों में भुगतना पड़ेगा. पर ये आशंका निर्मूल ही साबित होती रही. उत्तर प्रदेश की जनता ने नोटबंदी पर अपनी सहमति की जबरदस्त मुहर लगा ही दी. उत्तर प्रदेश के नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा नोटबंदी से उबर चुकी है. मोदी अपनी चुनावी सभाओं में मतदाताओं को समझाने में सफल रहे कि नोटबंदी देश हित में है. इससे काला बाजार में लिप्त तत्वों को कसा जा सकेगा. जनता ने मोदी जी की बात को समझा और उनके पक्ष में वोट दिया. यानी नारों से दिल जीतने की कोशिश नहीं हुई. जमीनी काम दिखाकर ही कायदे की बात से बात बनी.

अब यह सवाल गौण हो चुका है कि इस नोटबंदी के लागू किए जाने को लेकर वोटर परेशान हुए या नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने वोट भाजपा को देकर साफ तौर पर यह फैसला कर दिया कि प्रधानमंत्री मोदी की ईमानदारी और गरीबों के लिए लगातार किए जा रहे काम में विश्वास रखते हैं और इसलिए वोट उनकी पार्टी को ही देंगे.

बेशक, इस नारे विहीन चुनाव में मोदी की लहर उन सबको दिख रही थी जो चुनाव अभियान के दौरान उत्तर प्रदेश की खाक छान रहे थे. और, इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि जनता से सीधा संवाद करने का मोदी का नायाब तरीका अभी भी पूरी तरह कारगर है. वे जनता से क्षणभर भर में ही सीधा संवाद बना लेते हैं. आज भारत में मोदी अकेले सबसे लोकप्रिय नेता हैं. उनके सामने सब बौने दिखते हैं. इस समय भारतीय राजनीति में उनकी निजी ईमानदारी, कड़ी मेहनत और व्यक्तिगत साख के करिश्मे के आगे कोई ठहरता तक नहीं!

सर्जिकल स्ट्राइक

कोई माने या ना माने, पर लगता तो यह भी है कि हाल ही में भारतीय सेना द्वारा सीमापार की गई सर्जिकल स्ट्राइक का उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के चुनावों में भाजपा को भारी लाभ हुआ है. पाकिस्तान के खिलाफ 'निर्णायक' कार्रवाई करके प्रधानमंत्री मोदी ने सारे संसार को यह संदेश दे दिया था कि अब भारत, सीमा के उस तरफ से होने वाली आतंकी कार्रवाई पर सिर्फ ‘निंदा’ और ‘कड़ी निंदा’ ही नहीं करेगा, बल्कि कड़ी कार्रवाई करेगा. सर्जिकल स्ट्राइक से भारत की एक मजबूत छवि उभरी है. और उत्तर प्रदेश की जनता ने भाजपा के हक में वोट देकर सर्जिकल स्ट्राइक का समर्थन किया है. याद कीजिए वह मोदी ही थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री बनने से पहले 2013 में जब एक भारतीय जवान का सिर काट दिया गया था, तब कहा था कि भारत को पाकिस्तान के साथ 'उसी भाषा में बात करनी चाहिए, जिसे वह समझता है', न कि उसे 'प्रेमपत्र' भेजना चाहिए.

सामाजिक कल्‍याण

मोदी सरकार द्वारा 2017-18 को 'गरीब कल्याण वर्ष' घोषित करने और ढाई वर्षों में 13 कल्याणकारी योजनाओं के लागू करने से भी भाजपा को लाभ हुआ. गंव-गंव शौचालय बने. गरीबों के घरों में भी उज्जवला योजना के तहत गैस के चूल्हे मिले और धुआं तथा प्रदूषण से उनकी मुक्ति हुई. मात्र 12 रुपये में दो लाख का दुर्घटना बीमा, अटल पेंशन योजना, जन धन योजना, सुकन्या योजना, न्यूनतम वेतन में वृद्धि, महिला कामगारों को 6 माह का सवैतनिक गर्भावस्था अवकाश आदि योजनाओं के जमीनी कार्यान्वयन ने गरीबों का दिल छू लिया. इन सभी योजनाओं की विशेषता यह रही कि इनमें धर्म, जाति, अगडे-पिछड़े और दलित-महादलित के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया गया. जो भी भारत का नागरिक है और गरीब है, सबको लाभ मिला. 'सबका साथ: सबका विकास' ज़मीन पर उतरता नजर आया तो मायावती का अभेद्य वोट बैंक का दुर्ग भी ध्वस्त हो गया.

मुस्लिम

और अब तो ऐसे ठोस संकेत मिल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की घोर एंटी मुस्लिम छवि पेश करने की सपा-बसपा-कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा के हक में मुसलमान औरतों ने बढ़-चढ़कर वोट डाले. जब से मोदी और भाजपा ट्रिपल तलाक कानून में संशोधन करने की वकालत करने लगे थे, तभी से सताई हुई मुसलमान औरतें और पढ़ी-लिखी मुसलमान युवतियां भाजपा के हक में आने लगी थीं. उन्हें नरेन्द्र मोदी में अपने रहनुमा की छवि दिखाई दे रही थी. नतीजा तो दिख रहा है. देवबंद, रामपुर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और बरेली जैसे मुसलमान बहुल इलाकों में भाजपा की विजय को समझिए.

बरेली जिले की तो सभी 9 सीटें जीतकर भाजपा ने एक रिकार्ड ही कायम कर दिया. वहां पर मुसलमान औरतों ने भाजपा को दिल-खोलकर वोट दिया. अपने आप को मुसलमानों का मित्र बताने वाले कथित सेक्युलर दलों ने कभी भूल से भी मुसलमान औरतों के हक में कोई कदम नहीं उठाया. सहानुभूति का एक शब्द भी उनकी जुबान पर नहीं आया. उन्हें खुद मुख्तार बनाने के संबंध में नहीं सोचा. ये औरतें सीलन भरे घरों के बंद कमरों में ही अपनी जिंदगी को घुट-घुटकर गुजार देती हैं. उत्तर प्रदेश में भाजपा की सभाओं में बड़ी तादाद में मुसलमान औरतें पहुंचीं. ये भाजपा नेताओं से मिलती भी रहीं. यानी मुसलमान औरतें भाजपा के हक में खड़ी थीं.

जेएनयू और रामजस कॉलेज

भाजपा को उत्तर प्रदेश में विजय मिलने के मूल में जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी से लेकर रामजस कालेज में अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल पर देश विरोधी हरकतें भी लगातार सुनियोजित ढंग से जारी रहीं, जिसका मूल उद्देश्य पांच राज्यों के चुनावों में युवा मतदाताओं को भाजपा के विरुद्ध खड़ा करना था. पर वे सफल न हो सके.

उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने भाजपा को अपना वोट देकर एक तरह से मोदी जी को देश विरोधी शक्तियों पर अंकुश लगाने का स्पष्ट निर्देश भी दे दिया. इसमें कोई शक नहीं है कि कन्हैया कुमार से लेकर उमर खालिद सरीखे तत्व कश्मीर की आजादी और देश के टुकड़े करके रहेंगे सरीखे नारे लगाकर देश को कमजोर करने की हर चंद चेष्टा कर रहे हैं.

अब उत्तरप्रदेश में कुछ ही दिनों के भीतर भाजपा की सरकार सत्ता पर काबिज हो जाएगी. उसके ऊपर एक बड़ी चुनौती रहेगी उत्तर प्रदेश के लाखों नौजवानों को रोगजार उपलब्ध करवाने की. वास्तव में पिछले लगभग डेढ़ दशक के कार्यकाल के दौरान समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी ने प्रदेश को कसकर नोच कर खाया है. इन दलों की सरकारों ने करप्शन के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए. इन दलों की सरकारों की काहिली के चलते नौकरी पाने के लिए नौजवानों में हाहाकार मचा हुआ है. समाजवादी पार्टी की सरकार ने तो विकास सिर्फ फाइलों और विज्ञापनों में किया.

उत्तर प्रदेश में नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही है. वे धक्के खा रहे हैं. अखिलेश यादव ने बीते पांच सालों के दौरान राज्य में बेरोजगारों की बढ़ती फौज को कम करने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की.

नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के मुताबिक वर्ष 2017 में उत्तरप्रदेश में बेरोजगारों (18-35 साल के आयुवर्ग) की फौज का आंकड़ा 1.3 करोड़ के आसपास है. अब आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि किन हालातों में पहुंच चुका है उत्तर प्रदेश? हालांकि अब नौजवानों में यह आस जगी है कि नई सरकार नरेन्द्र मोदी की देखरेख में उत्तरप्रदेश का चौतरफा विकास करेगी. अब उसे मालूम है कि नारेबाजी से जनता के प्रश्नों के हल नहीं निकलेंगे. हालांकि एक दौर में नारों के बिना चुनाव बिना छौंक की दाल जैसी ही मानी जाती थी. इसलिए नारे होते थे तो चुनावों का लुत्फ भी बढ़ जाता था. हर चुनाव कुछ नए नारे लेकर आते थे. पर लगता है कि नारों का युग अब गुजर चुका है. अब तो काम करके ही आप जनता के दिलों में जगह बना सकते हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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