चुनावों के मामले में जिस बात को लेकर बीजेपी की मिसाल दी जाती है, बिहार में हुए दो सीटों के लिए उपचुनाव में बिलकुल वैसा ही नजारा देखने को मिला - करीब साढ़े चार साल बाद बिहार लौटे लालू यादव (Lalu Yadav) तो सरकार बदलने जैसे सब्जबाग ही दिखाने लगे थे.
चुनाव लड़ रही सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने विधायकों को गांवों तक में मोर्चे पर उतार दिया था. तेजस्वी यादव ने तो आरजेडी विधायकों को ऐसे टास्क दे रखे थे जैसे वे एक-एक पंचायत के मुखिया हों.
चूंकि दोनों में से एक भी सीट बीजेपी के कोटे की नहीं रही, लिहाजा चुनाव जेडीयू के नेतृत्व में ही लड़ा गया, लेकिन सरकार में शामिल सभी सहयोगी दलों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया - कुल मिलाकर ऐसा लगा जैसे सभी राजनीतिक दल बीजेपी की ही तरह चुनावी मशीन बन कर काम पर लग गये हों.
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो ये उपचुनाव बहुत हद तक अलग लगे. विधानसभा चुनावों में तो सिर्फ दो गठबंधनों के बीच मुकाबला रहा, लेकिन गिनती करके देखें तो जेडीयू और आरजेडी के बीच हुए मुख्य मुकाबले में कांग्रेस के साथ साथ चिराग पासवान के उम्मीदवार भी मैदान में डटे ही हुए थे.
एक बात तो साफ है तारापुर और कुशेश्वर स्थान पर हुए उपचुनावों के नतीजे चाहे जैसे भी रहें, लेकिन बिहार की राजनीति पर दूरगामी असर छोड़ने वाले हैं - और एक बात ये भी है कि जेल में लंबा वक्त और थोड़ा दिल्ली में गुजारने के बाद बिहार पहुंचे लालू यादव ने ये तो दिखा ही दिया कि चुनावों में उनकी मौजूदगी कितना मायने रखती है.
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के लिए भी ये उपचुनाव बेहद चुनौतीपूर्ण रहे, लेकिन ये लालू यादव का ही कमाल है कि सोनिया गांधी तक को शुमार कर ही लिया - और अब तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भी कन्हैया कुमार के कंधे पर सवार होकर बिहार में कांग्रेस का भविष्य...
चुनावों के मामले में जिस बात को लेकर बीजेपी की मिसाल दी जाती है, बिहार में हुए दो सीटों के लिए उपचुनाव में बिलकुल वैसा ही नजारा देखने को मिला - करीब साढ़े चार साल बाद बिहार लौटे लालू यादव (Lalu Yadav) तो सरकार बदलने जैसे सब्जबाग ही दिखाने लगे थे.
चुनाव लड़ रही सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने विधायकों को गांवों तक में मोर्चे पर उतार दिया था. तेजस्वी यादव ने तो आरजेडी विधायकों को ऐसे टास्क दे रखे थे जैसे वे एक-एक पंचायत के मुखिया हों.
चूंकि दोनों में से एक भी सीट बीजेपी के कोटे की नहीं रही, लिहाजा चुनाव जेडीयू के नेतृत्व में ही लड़ा गया, लेकिन सरकार में शामिल सभी सहयोगी दलों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया - कुल मिलाकर ऐसा लगा जैसे सभी राजनीतिक दल बीजेपी की ही तरह चुनावी मशीन बन कर काम पर लग गये हों.
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो ये उपचुनाव बहुत हद तक अलग लगे. विधानसभा चुनावों में तो सिर्फ दो गठबंधनों के बीच मुकाबला रहा, लेकिन गिनती करके देखें तो जेडीयू और आरजेडी के बीच हुए मुख्य मुकाबले में कांग्रेस के साथ साथ चिराग पासवान के उम्मीदवार भी मैदान में डटे ही हुए थे.
एक बात तो साफ है तारापुर और कुशेश्वर स्थान पर हुए उपचुनावों के नतीजे चाहे जैसे भी रहें, लेकिन बिहार की राजनीति पर दूरगामी असर छोड़ने वाले हैं - और एक बात ये भी है कि जेल में लंबा वक्त और थोड़ा दिल्ली में गुजारने के बाद बिहार पहुंचे लालू यादव ने ये तो दिखा ही दिया कि चुनावों में उनकी मौजूदगी कितना मायने रखती है.
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के लिए भी ये उपचुनाव बेहद चुनौतीपूर्ण रहे, लेकिन ये लालू यादव का ही कमाल है कि सोनिया गांधी तक को शुमार कर ही लिया - और अब तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भी कन्हैया कुमार के कंधे पर सवार होकर बिहार में कांग्रेस का भविष्य तलाशने लगे हैं.
नतीजों का कैसा असर हो सकता है
न तो तारापुर और न ही कुशेश्वर स्थान - दोनों में से कोई भी जगह पश्चिम बंगाल के भवानीपुर जैसी अहमियत नहीं रखता था. भवानीपुर तो सीधे सीधे ममता बनर्जी के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी से जुड़ा हुआ था, तभी तो वो वोटर को ये कह कर डराने लगी थीं कि अगर नहीं जीत पायीं तो मुख्यमंत्री कोई और बन जाएगा.
तारापुर और कुशेश्वर स्थान को लेकर लालू यादव ने ऐसा माहौल बनाया जैसे चुनाव नतीजे आये तो बिहार में सरकार बदल जाएगी. दोनों सीटें जेडीयू विधायकों की मौत के चलते खाली हुई थीं और हर कोई मान कर भी यही चल रहा था कि नीतीश कुमार ही आखिरकार फायदे में रहेंगे. वोटिंग के बाद लोगों से बातचीत के आधार पर तैयार मीडिया रिपोर्ट से भी काफी हद तक ऐसे ही संकेत मिलते हैं, लेकिन जब तक नतीजे नहीं आ जाते कुछ भी नहीं कहा जा सकता.
लालू यादव की देखरेख में तेजस्वी यादव ने भी खूब मेहनत की और जातीय समीकरणों को देखते हुए उम्मीदवार तय करने में कुछ प्रयोग भी किये गये. लालू यादव ने पहले ही दावा कर दिया कि दोनों सीटें आरजेडी के जीतने के बाद नीतीश कुमार की सरकार गिर जाएगी. लालू यादव कुछ ऐसे समझाने की कोशिश कर रहे थे कि थोड़े से ही बहुमत से बनी और सहयोगी दलों के सपोर्ट से खड़ी एनडीए सरकार दो सीटें गंवाने के बाद दबाव में आ जाएगी और जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी जैसे सहयोगियों पर निर्भरता बढ़ जाएगी - और ये जताने की भी कोशिश कर रहे थे कि सहयोगियों के टूटते ही आरजेडी सरकार बनाने का दावा पेश कर देगी.
इसी बीच, एक वायरल ऑडियो में एक अधिकारी को किसी को धमकाते सुना गया. जेडीयू प्रवक्ता नीरज कुमार ने ट्विटर पर ऑडियो शेयर करते हुए एक अधिकारी पर कुशेश्वरस्थान उपचुनाव में वोट देने को लेकर किसी को धमकाने का आरोप लगाया है. ऑडियो में अधिकारी समझाने की कोशिश कर रहा है कि अगर तेजस्वी यादव बिहार के मुख्यमंत्री बन गये तो उसे नीतीश कुमार बचा नहीं पाएंगे - क्योंकि लालू यादव किसी को छोड़ते नहीं हैं.
नीरज कुमार का दावा है कि ऑडियो क्लिप में जिस अधिकारी की आवाज है वो फिलहाल गया में सहायक परियोजना अधिकारी हैं और उससे पहले वो कुशेश्वर स्थान में बीडीओ हुआ करते थे. ऐसी कई चीजें नोटिस में आयीं जो कहीं न कहीं से चुनावी माहौल को प्रभावित करने की कोशिश समझी जा सकती है.
एनडीए के हिसाब से देखें तो दोनों सीटों से जेडीयू ने उम्मीदवार खड़े किये थे, लेकिन बीजेपी, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा और वीआईपी नेता भी इलाके में डेरा डाले रहे. तेजस्वी यादव ने भी खूब मेहनत की थी - और वोटिंग से पहले लालू यादव भी इलाके में पहुंच गये और अपना प्रभाव दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखा.
जैसे कि कयास लगाये जा रहे हैं, अगर जेडीयू की जीत होती है तो माना जाएगा कि जनता ने नीतीश कुमार सरकार के कामकाज पर मुहर लगा दी है. लालू यादव के लौट कर अलख जगाने के बावजूद आरजेडी को लेकर लोगों में कोई खास उत्साह नहीं बन पा रहा है.
चूंकि आरजेडी और कांग्रेस के अलग अलग मैदान में उतरने से जेडीयू को फायदा मिल रहा है, फिर भी एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि दोनों या एक भी सीट जेडीयू के हाथ से फिसल जाती है तो ये सभी के लिए बहुत बड़ा सबक होगा.
आरजेडी और कांग्रेस दोनों नये सिरे से सोचेंगे कि आगे की रणनीति क्या होनी चाहिये - भले ही कांग्रेस के बिहार प्रभारी ने ये जताने की कोशिश की हो कि जब दोनों दल अलग अलग चुनाव लड़ रहे हैं और वो भी एक दूसरे के खिलाफ तो महागठबंधन का मतलब क्या रहा, लेकिन लेकिन लालू यादव और सोनिया गांधी की फोन पर हुई बातचीत के बाद लगता है कि अभी ये सब इतनी जल्दी खत्म नहीं होने वाला है.
कांग्रेस के हाथ आखिर क्या आएगा
ये उपचुनाव जहां सत्ताधारी जेडीयू के लिए सीटें बरकरार रखने के लिए चैलेंज रहा तो विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के लिए नीतीश कुमार को चैलेंज करने का एक और बड़ा मौका - लेकिन राहुल गांधी ने इसे कांग्रेस के लिए फीडबैक लेने और अपने नये साथी कन्हैया कुमार को आजमाने के अवसर के तौर पर लिया. चुनाव प्रचार के लिए कन्हैया कुमार के साथ गुजरात के दो युवा नेताओं हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी भी साथ भेजे गये थे.
राहुल गांधी के सामने ऐसे प्रयोग करने का मौका आरजेडी ने ही मुहैया कराया. महागठबंधन के बैनर तले दोनों ही पार्टियों ने अपनी अपनी सीटें जेडीयू के हाथों गवां दी थी, लेकिन तेजस्वी यादव ने दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतार कर कांग्रेस नेतृत्व को चैलेंज कर दिया था, जबकि एक सीट पर तो स्वाभाविक रूप से दावदारी कांग्रेस की ही बनती थी.
अगर ये चुनावी टकराव भी आरजेडी और कांग्रेस के रिश्ते पर कोई फर्क नहीं डालते तो भी आगे तक नतीजों का असर रहने वाला है. ये काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हार-जीत का फासला कितना रहता है और किस पार्टी को कितने वोट मिलते हैं.
देखा जाये तो आरजेडी की हार में भी कांग्रेस जीता हुआ महसूस कर सकती है, लेकिन ये सब संभावनाओं पर टिका हुआ है. अगर कांग्रेस 2020 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादा वोट शेयर हासिल करती है और आरजेडी गवां देती है, भले ही वे वोट जेडीयू के खाते में ही क्यों न चले जाते हों - कांग्रेस के पास आगे से दबाव बनाने का मौका तो मिल ही जाएगा. मान कर चलना होगा कि कांग्रेस चाहे जिस बहाने सही, तेजस्वी यादव से मनमानी का मौका तो छीन ही लेगी.
कांग्रेस के हिसाब से सोचें तो इन उपचुनावों में उसके पास गवांने के लिए कुछ भी नहीं था. कुशेश्वर स्थान सीट 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हिस्से में रही लेकिन जेडीयू के हाथों चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था. चूंकि आरजेडी ने पहले ही दोनों सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिये, लिहाजा कांग्रेस को भी दोनों जगह से चुनाव मैदान में कूदने का मौका मिल गया. बताया ये भी गया कि ये मंजूरी भी खुद सोनिया गांधी ने दी थी.
दरअसल, तेजस्वी यादव के सामने कैरिअर के खतरे को भांपते हुए लालू यादव कन्हैया कुमार की राह में हमेशा आड़े आते रहे हैं और यही वजह रही कि वो उनके कांग्रेस में लिये जाने के भी खिलाफ रहे, लेकिन विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जिस तरह आरजेडी नेताओं ने राहुल गांधी का नाम लेकर ताने मारे थे, कांग्रेस नेतृत्व बेहद गुस्से में रहा और लालू यादव की चिंता की जरा भी परवाह नहीं की.
ऐसा भी नहीं कि ये उपचुनाव कन्हैया कुमार के लिए कोई प्रतिष्ठा का प्रश्न ही बने थे, बल्कि ये तो उनको बिहार में नये कलेवर में पेश करने का माध्यम बन गये. कन्हैया कुमार के जरिये कांग्रेस ने अपना भविष्य का इरादा भी जता दिया. पटना पहुंचते ही कन्हैया कुमार ने जिस तरीके से लालू-राबड़ी शासन पर हमला बोला, लगा तो यही जैसे वो राहुल गांधी के मन की बात कह रहे हों.
देखा जाये तो इससे ज्यादा न कांग्रेस के हाथ कुछ आने वाला था और न ही फिलहाल कुछ हाथ आने वाला है - बस इतना ही मान कर चलना चाहिये कि कांग्रेस ने लालू परिवार को ये तो जता ही दिया है कि आगे से महागठबंधन कायम रहा तो भी किसी तरह की मनमानी नहीं चलेगी.
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