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भारत-चीन के चक्कर में पाकिस्तान फंस गया है, बलूचिस्तान तो बहाना है!

    • सुशांत झा
    • Updated: 17 अगस्त, 2016 01:18 PM
  • 17 अगस्त, 2016 01:18 PM
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चीन भारत द्वारा बलूचिस्तान में हस्तक्षेप की घोषणा के बाद कह रहा है कि उसका कश्मीर से कोई लेना-देना नहीं. उसे डर है कि उसका पाकिस्तान में सारा निवेश खराब हो जाएगा.

बलूचिस्तान वाले मसले में सिर्फ कश्मीर एक फैक्टर नहीं है. दरअसल चीन का वहां से होकर समंदर तक रास्ता और भारी निवेश भी एक बड़ा फैक्टर है. उसे दरअसल चीन ने फिर से इस्तेमाल कर लिया है और भुगतना पाकिस्तान को पड़ रहा है. अब चीन कह रहा है कि उसका कश्मीर मसले से कोई लेना-देना नहीं. पाकिस्तान मुंह ताक रहा है. और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा. इस कहानी को जरा पीछे जाकर देखना होगा और विस्तार से देखना होगा.

दरअसल बड़े देशों पर निर्भरता से यही हाल होता है. बड़े देश, छोटे देशों का इस्तेमाल करके निकल जाते हैं. अमेरिका ने पहले पाकिस्तान के साथ ऐसा ही किया, जब सोवियत से उसका शीत युद्ध चल रहा था. बदले में सोवियत ने अफगानिस्तान का इस्तेमाल किया और अफगानिस्तान भी बर्बाद हो गया. बाद में अफगानिस्तान से सोवियत की वापसी और सोवियत विखंडन के बाद पाकिस्तान की अहमियत अमेरिका के नजरों में गिर गई. अब उसने चीन को पकड़ा है और चीन उसका दोहन करने में जुटा है.

 बड़े देश, छोटे देशों का इस्तेमाल करते हैं

कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर कीजिए. सन् 65 और सन् 71 में भी पाकिस्तान को चीन से उम्मीद थी और चीन ने इस बावत बयान भी दिए थे. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में इन बातों का विस्तार से वर्णन किया है कि कैसे पाकिस्तान को चीन से दोनों युद्धों में उम्मीदें थीं और कैसे चीन हर बार उसे दगा दे गया. सन् 1971 में तो उसे अमेरिका ने लगभग खुलकर मदद दे दी थी लेकिन हाल ये हुआ कि उसके दो टुकड़े हो गए.

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बलूचिस्तान वाले मसले में सिर्फ कश्मीर एक फैक्टर नहीं है. दरअसल चीन का वहां से होकर समंदर तक रास्ता और भारी निवेश भी एक बड़ा फैक्टर है. उसे दरअसल चीन ने फिर से इस्तेमाल कर लिया है और भुगतना पाकिस्तान को पड़ रहा है. अब चीन कह रहा है कि उसका कश्मीर मसले से कोई लेना-देना नहीं. पाकिस्तान मुंह ताक रहा है. और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा. इस कहानी को जरा पीछे जाकर देखना होगा और विस्तार से देखना होगा.

दरअसल बड़े देशों पर निर्भरता से यही हाल होता है. बड़े देश, छोटे देशों का इस्तेमाल करके निकल जाते हैं. अमेरिका ने पहले पाकिस्तान के साथ ऐसा ही किया, जब सोवियत से उसका शीत युद्ध चल रहा था. बदले में सोवियत ने अफगानिस्तान का इस्तेमाल किया और अफगानिस्तान भी बर्बाद हो गया. बाद में अफगानिस्तान से सोवियत की वापसी और सोवियत विखंडन के बाद पाकिस्तान की अहमियत अमेरिका के नजरों में गिर गई. अब उसने चीन को पकड़ा है और चीन उसका दोहन करने में जुटा है.

 बड़े देश, छोटे देशों का इस्तेमाल करते हैं

कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर कीजिए. सन् 65 और सन् 71 में भी पाकिस्तान को चीन से उम्मीद थी और चीन ने इस बावत बयान भी दिए थे. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में इन बातों का विस्तार से वर्णन किया है कि कैसे पाकिस्तान को चीन से दोनों युद्धों में उम्मीदें थीं और कैसे चीन हर बार उसे दगा दे गया. सन् 1971 में तो उसे अमेरिका ने लगभग खुलकर मदद दे दी थी लेकिन हाल ये हुआ कि उसके दो टुकड़े हो गए.

ये भी पढ़ें- आंतरिक विफलताओं से ध्यान बंटाने के लिए मोदी ने उछाला बलूचिस्तान मुद्दा?

इधर सोवियत पतन के बाद पहले अमेरिका की नजर में पाकिस्तान की कीमत आधी हुई और अब तालिबान के कमजोर होने के बाद उसकी कीमत दो कौड़ी की हो गई. इधर चीन का उदय होने लगा तो अमेरिका ने भारत से पींगे बढ़ानी शुरू कर दी. इतना तक तो ठीक था, लेकिन पाकिस्तान ने हताशा में अपने आपको नए खरीददार चीन के हवाले कर दिया.

चीन के साथ दिक्कत क्या है कि उसके पास जो एक मात्र समंदर है उसमें अमेरिका और उसकी चौकड़ी का कब्जा है. जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, वियतनाम सारे के सारे वहां चीन के कई जन्मों के दुश्मन जैसे हैं. उसके नीचे का हिंद महासागर है उसमें भारत का कब्जा है. यहां कब्जे का तात्पर्य यह है कि किसी बड़े युद्ध की सूरत में चीन का सारा आयात-निर्यात और ऊर्जा की आपूर्ति कुछ ही दिनों में ठप्प हो सकती है.

ऐसे में चीन ने म्यांमार और पाकिस्तान में बंदरगाह और आर्थिक कॉरिडोर विकसित करने की योजना बनाई है. उसने श्रीलंका में भी घुसपैठ की कोशिश की थी लेकिन कहते हैं भारतीय एजेंसियों की परोक्ष मदद से वहां चीन से सहानुभूति रखने वाली सरकार पिछले चुनावों में खेत हो गई थी. इधर चीन, प्राचीन सिल्क रूट विकसित कर समंदर की कमी की भरपाई करना चाहता है. उसी चक्कर में उसने पाकिस्तान में अरबों डॉलर के प्रोजेक्ट की योजना बनाई है जो पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर बलूचिस्तान तक से गुजरती है. यहीं पर भारत ने फच्चड़ डाला है और मोदी का बयान इसी परिप्रेक्ष्य में है.

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यह दरअसल सिर्फ मोदी का बयान नहीं है, यह सम्पूर्ण भारतीय राजनीतिक वर्ग का बयान है(आप चाहें तो इसमें भारतीय वाम को अलग कर सकते हैं, क्योंकि विदेश नीति के मसलों पर उसका रुख अक्सर भारत विरोधी और महत्वहीन रहा है).

सन् 71 में भी पाकिस्तान एक बड़ी ताकत(अमेरिका) के आसरे भारत से भिड़ गया था और उसे बाग्लादेश गंवाना पड़ा. भारत ने चतुराई से सोवियत से 20 साल संधि कर अमेरिका को इस क्षेत्र में अप्रभावी कर दिया था. चीन ने शातिर तरीके से चुप्पी साध ली, क्योंकि वो भारत को स्थायी दुश्मन नहीं बनाना चाहता था. अब फिर चीन ने वही किया है. वो NSG मसले पर पहले भारत को नीचा दिखलाने के बाद फिर से दक्षिण चीन सागर मसले पर भारत का लल्लो-चप्पो कर रहा है. NSG पर भी बात करना चाह रहा है. वो भारत द्वारा बलूचिस्तान में हस्तक्षेप की घोषणा के बाद कह रहा है कि उसका कश्मीर से कोई लेना-देना नहीं. उसे डर है कि उसका पाकिस्तान में सारा निवेश खराब हो जाएगा. उसे ये भी डर है कि भारत को ज्यादा उकसाने से कहीं भारत तिब्बत मसले पर प्रतिक्रिया न व्यक्त कर दे.

मसला इतना ही नहीं, भारतीय प्रधानमंत्री के बयान का मतलब गंभीर है. बलूचिस्तान की सीमा ईरान और अफगानिस्तान से भी मिलती है. एक आजाद बलूचिस्तान का मतलब है अफगानिस्तान और ईरान के लिए भी सुकून होना. हाल तक भारतीय उदारवादियों की राय थी कि एक खंडित पाकिस्तान भारत के हित में नहीं है. क्योंकि सीमा पर छोटे-छोट राष्ट्र अस्थिरता के कारण बनते हैं और उपद्रवों की जड़ हो जाते हैं. लेकिन पाकिस्तान ने मजहब के नाम पर भारतीय कश्मीर में अलगाववाद को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है जहां पर एक शांति-प्रिय भारतीय भी पाकिस्तान के विखंडन की बात सोचने लगा है.

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ऐसे में प्रश्न ये है कि पाकिस्तान के हाथ क्या लगा? क्या वो चीन द्वारा इस्तेमाल नहीं कर लिया गया? क्या कश्मीर पर उसके अतिवादी रुख से वो नौबत नहीं आ गई है कि बलूचिस्तान शायद दशकों और शताब्दियों तक रक्त-रंजित संघर्ष में डूबता रहे?

यहां पर गांव की वो पुरानी कहानी याद आती है. दो बड़े आदमियों की लड़ाई में गरीब आदमी फंस गया और मारा गया था. पाकिस्तान का वही हाल है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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