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सियासत

मोदी की अयोध्या से दूरी योगी को युवा 'लौह पुरुष' बनाने की तैयारी लगती है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 05 जुलाई, 2018 09:20 PM
  • 05 जुलाई, 2018 09:20 PM
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चार साल के शासन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक बार भी अयोध्या न जाना. योगी आदित्यनाथ का बार बार जाना, दिवाली मनाना. ऐसा क्यों लगता है जैसे मोदी अयोध्या से दूरी बना रहे हों और योगी को आगे बढ़ाया जा रहा हो.

गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम टोपी पहनने से मना कर दिया था. अभी अभी यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी ठीक वैसा ही किया है. क्या दोनों ही घटनाएं एक जैसी ही हैं? क्या दोनों ही वाकयों में जो कुछ हुआ वो सिर्फ संयोगवश हुआ?

मसलन, अचानक कोई शख्स उठा. उसके हाथों में टोपी थी. उसने पहनाने की कोशिश की और झटक दिया गया. या फिर दोनों घटनाओं की व्युत्पत्ति विभिन्न परिस्थितियों में हुई? कुछ ऐसे कि पहली घटना यूं ही हो गयी. जैसे कोई हादसा हो जाता है. तो क्या दूसरी घटना प्रायोजित रही?

अगर कोई सियासी हादसा फायदेमंद साबित हुआ हो तो क्या वैसा ही फायदा उठाने के लिए उसे रीक्रिएट नहीं किया जा सकता? रीक्रिएशन तो कई घटनाओं का अक्सर होता रहता है. जांच एजेंसियां जानकारी जुटाने के लिए करती हैं और पर्दे पर दिखाने के लिए प्रोग्राम बनाने वाले. अपना अपना फायदा. सियासत में तो सांस भी फायदे के लिए ली जा सकती है. है कि नहीं?

टोपी पहनाने की कोशिश और झटका

प्रचलित मुहावरे से इतर अगर टोपी पहनाने को देखें तो मोदी के झटका देने के बाद उनकी छवि कट्टर हिंदूवादी नेता के तौर पर लगातार निखरने लगी. मोदी की यही छवि 2014 में हिंदुओं के एकजुट वोट दिलाने में काम आयी. इसी छवि के चलते बीजेपी ने पैतृक संस्था आरएसएस के कहने पर मोदी को आगे किया.

नरम दल और गरम दल की जरुरत...

मोहम्मद अली जिन्ना पर छवि सुधार बयान देकर पहले ही हाशिये पर पहुंच चुके आडवाणी और पीछे चले गये. मालूम नहीं जब ये सब डेवलपमेंट हो रहे थे तो नीतीश कौन सा ख्वाब बुन रहे थे? तब शायद नीतीश कुमार को मोदी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि में फॉल्ट नजर आ रहा था - और अपनी धर्म निरपेक्ष छवि पर गर्व. तब बीजेपी से अलग होकर फिर साथ हो चुके नीतीश की उसी छवि पर इन दिनों तरह...

गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम टोपी पहनने से मना कर दिया था. अभी अभी यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी ठीक वैसा ही किया है. क्या दोनों ही घटनाएं एक जैसी ही हैं? क्या दोनों ही वाकयों में जो कुछ हुआ वो सिर्फ संयोगवश हुआ?

मसलन, अचानक कोई शख्स उठा. उसके हाथों में टोपी थी. उसने पहनाने की कोशिश की और झटक दिया गया. या फिर दोनों घटनाओं की व्युत्पत्ति विभिन्न परिस्थितियों में हुई? कुछ ऐसे कि पहली घटना यूं ही हो गयी. जैसे कोई हादसा हो जाता है. तो क्या दूसरी घटना प्रायोजित रही?

अगर कोई सियासी हादसा फायदेमंद साबित हुआ हो तो क्या वैसा ही फायदा उठाने के लिए उसे रीक्रिएट नहीं किया जा सकता? रीक्रिएशन तो कई घटनाओं का अक्सर होता रहता है. जांच एजेंसियां जानकारी जुटाने के लिए करती हैं और पर्दे पर दिखाने के लिए प्रोग्राम बनाने वाले. अपना अपना फायदा. सियासत में तो सांस भी फायदे के लिए ली जा सकती है. है कि नहीं?

टोपी पहनाने की कोशिश और झटका

प्रचलित मुहावरे से इतर अगर टोपी पहनाने को देखें तो मोदी के झटका देने के बाद उनकी छवि कट्टर हिंदूवादी नेता के तौर पर लगातार निखरने लगी. मोदी की यही छवि 2014 में हिंदुओं के एकजुट वोट दिलाने में काम आयी. इसी छवि के चलते बीजेपी ने पैतृक संस्था आरएसएस के कहने पर मोदी को आगे किया.

नरम दल और गरम दल की जरुरत...

मोहम्मद अली जिन्ना पर छवि सुधार बयान देकर पहले ही हाशिये पर पहुंच चुके आडवाणी और पीछे चले गये. मालूम नहीं जब ये सब डेवलपमेंट हो रहे थे तो नीतीश कौन सा ख्वाब बुन रहे थे? तब शायद नीतीश कुमार को मोदी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि में फॉल्ट नजर आ रहा था - और अपनी धर्म निरपेक्ष छवि पर गर्व. तब बीजेपी से अलग होकर फिर साथ हो चुके नीतीश की उसी छवि पर इन दिनों तरह तरह के तलवार लटक रहे हैं. समय का फेर कहिये या सियासत के दस्तूर कि नीतीश कुमार एक बार फिर उसी मोड़ पर खुद को खड़े पा रहे हैं - और सांप-छछूंदर काल से गुजरते हुए कुआं और खाई में से किसी एक को चुनने के लिए भी छटपटा रहे हैं.

काशी-मगहर की दौड़ में अयोध्या पीछे क्यों छूट रही?

क्या अयोध्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पीछे छूट रही है? या फिर जान बूझ कर मोदी अयोध्या से दूरी बना रहे हैं?

एक तरफ तो प्रधानमंत्री मोदी काशी-मगहर एक किये हुए हैं - लेकिन चार साल में एक बार भी अयोध्या नहीं गये. आखिर क्यों?

बीबीसी से बातचीत में अयोध्या से बीजेपी सांसद लल्लू सिंह पूरा बचाव करते हैं, "ये सही है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जी अयोध्या नहीं आए. चुनाव के समय भी उन्होंने फैजाबाद में रैली को संबोधित किया था. लेकिन इसका कोई ख़ास मतलब नहीं है कि वह यहां क्यों नहीं आए. व्यस्त कार्यक्रम रहता है उनका, समय नहीं मिला होगा. लेकिन आएंगे जरूर."

मोदी का अयोध्या को लेकर कोई कार्यक्रम न होना बहुतों को खल रहा है. एक संन्यासी ने बीबीसी से ही बातचीत में अपनी पीड़ा शेयर की, "मोदी जी बनारस से लेकर मगहर तक चले गए. दुनिया भर में घूम-घूम कर मंदिर, मस्जिद और मजार पर जा रहे हैं लेकिन अयोध्या से पता नहीं क्या बेरुखी है उन्हें?"

क्या मोदी जान बूझ कर अयोध्या नहीं जा रहे हैं? क्या संघ मोदी की कोई नयी और उदार छवि गढ़ने की तैयारी में जुटा है. कोई ऐसी छवि जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह सर्वमान्य हो. सर्वस्वीकार्य और उदार हो.

कहीं संघ और बीजेपी को ऐसा तो नहीं लगता कि मोदी की छवि कट्टर हिंदुत्ववादी से बदल कर उदारवादी और साफ नीयत और सही विकास के फॉर्मैट को सूट करती हुई गढ़ी जानी चाहिये - और फिलहाल यही चल रहा है.

अयोध्या से दूरी और नजदीकी के मायने

एक तरफ मोदी हैं जो अयोध्या से दूरी बनाये हुए लगते हैं और दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ हैं कि दिवाली से लेकर चुनाव प्रचार की शुरुआत तक अयोध्या से ही कर रहे हैं. याद कीजिए योगी ने निकाय चुनावों में प्रचार की शुरुआत अयोध्या से ही की थी.

गुजरात तो नहीं, लेकिन कर्नाटक चुनाव के दौरान मोदी को मंदिर जाते नहीं देखा गया. मंदिर में तब देखा गया जब चुनाव प्रचार खत्म हो चुका था और वोट डाले जा रहे थे - और उस दिन मोदी नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में देखा गया. इतना ही नहीं, एक विदेश दौरे में तो मोदी को मस्जिद में भी देखा गया.

क्या ये सब एक ही स्ट्रैटेजी का हिस्सा है - जिसमें मोदी की उदार और योगी की कट्टर छवि गढ़ी जा रही है?

क्या योगी 'युवा लौह पुरुष' बनेंगे?

भारतीय राजनीति में युवा तुर्क तो हुए हैं, लेकिन युवा-लौह-पुरुष न तो अब तक खुद सामने आये हैं, न ही किसी ने किसी को गढ़ा है. इंदिरा गांधी के जमाने में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को युवा तुर्क कहा जाता रहा. अपनी बातों और विचार से चंद्रशेखर ने देश और दुनिया के सामने खुद ही ये छवि पेश कर डाली थी.

आजादी के बाद भारतीय राजनीति के इतिहास में सरदार वल्लभ भाई पटेल को लौह पुरुष का खिताब हासिल हुआ. ये सब उनके कई फैसलों और ज्वलंत मसलों पर उनके स्टैंड के चलते हुआ था.

90 के दशक में रथयात्रा के बाद लालकृष्ण आडवाणी को लौहपुरुष कहा जाने लगा. वाजपेयी काल में आडवाणी को लौहपुरुष हिंदुत्व और अयोध्या में राम मंदिर बनाने के मुद्दे पर उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण गढ़ा गया. अयोध्या का विवादित ढांचा गिरा दिये जाने के बाद देश में जो माहौल बना आडवाणी का कद और ऊपर चढ़ता गया.

वाजपेयी के उदार छवि रहते संघ को महसूस हुआ कि बीजेपी में एक कट्टर हिंदूवादी छवि भी होनी चाहिये. आजादी के आंदोलन में भी नरम दल के साथ गरम दल की भी अलग अहमियत हुआ करती थी. आखिर लौहपुरुष होने के क्या फायदे और मायने हैं?

लौह पुरुष वो है जो हिंदुत्व की रक्षा कर सके. इस थ्योरी में जो हिंदुत्व की रक्षा करने में सक्षम होगा वही असल देशभक्त और ताकतवर सेनापति होगा. सेनापति से आशय सिर्फ आर्मी चीफ से नहीं है, बल्कि ऐसे मजबूत नेता से है जो सर्जिकल स्ट्राइक में यकीन रखता हो. जिसके बारे में लोग मान कर चलें कि जरूरत पड़ने पर वो पाकिस्तान को भी मिटा सकता है और पलक झपकते अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनवाने में भी सक्षम है.

यूपीए टू से ऊबे लोगों के लिए तो मोदी की पुरानी छवि ही फिट थी, लेकिन खुद मोदी के दोबारा सत्ता में आने के लिए ये सब ठीक नहीं है. मोदी का सबका साथ और सबका विकास भी नहीं चल रहा था इसलिए 'साफ नीयत, सही विकास' गढ़ा जा चुका है. मोदी की बीजेपी को पता है कि सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाकर दिल्ली की गद्दी पर कब्जा तो किया जा सकता है, लेकिन बहुजन हिताय के बगैर वापसी नामुमकिन सी है.

देखा जाय तो कितनी भी कट्टरवादी छवि बनी, लेकिन मोदी कभी लौह पुरुष का रुतबा नहीं हासिल कर पाये. वाजपेयी युग के बाद बीजेपी के मोदी काल में भी एक लौह पुरुष की दरकार बीजेपी को लग रही होगी. पुरानी पीढ़ी तो बीजेपी में बेदम हो चुकी, या नये समीकरणों में पिछड़ गयी. जिन नेताओं ने खुद को नये दौर में सेट कर लिया उनका राजनीतिक कॅरियर तो बच गया लेकिन उससे ज्यादा कुछ और असंभव सा लगता है.

ऐसे में ले देकर योगी आदित्यनाथ ही बचते हैं जिसे बीजेपी किसी झुनझुना की तरह हर चुनावी मेले में बजाती रही है. यूपी में फेल होकर भी योगी बाकी राज्यों में बीजेपी को वोट तो दिलाते ही रहे हैं. ऐसे में लगता है कि बीजेपी योगी को जल्द ही युवा लौह पुरुष का खिताब देने वाली है. वैसे भी कोई या तो लौह पुरुष बन सकता है या फिर प्रधानमंत्री - क्योंकि लौह पुरुष कभी प्रधानमंत्री नहीं बनता.

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2019 से पहले अयोध्या में दिवाली, मथुरा में होली - तो फिर काशी में ?

लगता है अब योगी जी राम मंदिर बनवा कर ही रहेंगे..


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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