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केरल में आरिफ मोहम्मद खां की एंट्री राहुल गांधी के लिए रेड अलर्ट

    • आईचौक
    • Updated: 02 सितम्बर, 2019 08:49 PM
  • 02 सितम्बर, 2019 08:49 PM
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आरिफ मोहम्मद खां को बीजेपी भले ही केरल की राजनीति में एंट्री पास मान रही हो, लेकिन फायदा भी पूरा मिलेगा गारंटी नहीं है. हां, राहुल गांधी की राजनीति के लिए ये फॉर्मूला काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है.

जब भी किसी नेता को किसी सूबे का राज्यपाल बनाया जाता है तो उसके पीछे एक खास राजनीतिक वजह जरूर होती है. या तो केंद्र में सत्ताधारी पार्टी अपने किसी सीनियर नेता को एडजस्ट कर रही होती है, या फिर आने वाले चुनाव ध्यान में रहते हैं. कई बार विरोधी दल की सरकार को पर राजनीतिक दबाव कायम रखने के मकसद से भी ऐसा किया जाता है. कुछ राज्यों में राज्यपालों की ताजा नियुक्तियों में भी ये सारे रंग देखे जा सकते हैं.

आरिफ मोहम्मद खान को केरल और डॉ. तमिलिसाई सुंदरराजन को तेलंगाना में राज्यपाल बनाया गया है जिसका खास राजनीतिक मकसद है. बंडारू दत्तात्रेय को हिमाचल प्रदेश और भगत सिंह कोश्यारी को महाराष्ट्र का राज्यपाल बनाया जाना बीजेपी के सीनियर नेताओं को समायोजित किये जाने की कोशिश भर है. बंडारू दत्तात्रेय को रोहित वेमुला खुदकुशी केस को लेकर विवादों में रहने के कारण हाशिये पर भेज दिया गया था - एक बार फिर वो खोया हुआ सम्मान वापस पा चुके हैं.

सभी नियुक्तियों में सबसे खास है आरिफ मोहम्मद खान को केरल का राज्यपाल बनाया जाना - जिसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए खतरे की घंटी के तौर पर भी लिया जा सकता है.

आरिफ मोहम्मद खान क्यों राज्यपाल बने

ऐसा कितनी बार होता है कि किसी राज्यपाल की नियुक्ति पर विपक्षी खेमा भी तारीफ करे. आरिफ मोहम्मद खान के केरल का राज्यपाल बनने पर मोदी सरकार के कट्टर विरोधी भी दाद दे रहे हैं. कुछ इस अंदाज में जैसे - और कुछ न सही, कम से कम एक काम तो अच्छा किया ही है और इसके लिए तारीफ होनी चाहिये. आरिफ की नियुक्ति को लोग ऐसे समझ रहे हैं जैसे मोदी सरकार ने अलग अलग फील्ड के पेशेवरों को सीधे ज्वाइंट सेक्रेट्री के तौर पर आईएएस अफसर बनाया है.

अब सवाल ये उठता है कि आरिफ मोहम्मद खान को राज्यपाल बनाये जाने की असल वजह क्या रही होगी? ये सवाल भी इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि 2007 में आरिफ ने बीजेपी भी छोड़ दी थी.

हाल फिलहाल तो आरिफ मोहम्मद खान के प्रो-बीजेपी बयान ही अहम लगते हैं. आरिफ ने ट्रिपल तलाक को...

जब भी किसी नेता को किसी सूबे का राज्यपाल बनाया जाता है तो उसके पीछे एक खास राजनीतिक वजह जरूर होती है. या तो केंद्र में सत्ताधारी पार्टी अपने किसी सीनियर नेता को एडजस्ट कर रही होती है, या फिर आने वाले चुनाव ध्यान में रहते हैं. कई बार विरोधी दल की सरकार को पर राजनीतिक दबाव कायम रखने के मकसद से भी ऐसा किया जाता है. कुछ राज्यों में राज्यपालों की ताजा नियुक्तियों में भी ये सारे रंग देखे जा सकते हैं.

आरिफ मोहम्मद खान को केरल और डॉ. तमिलिसाई सुंदरराजन को तेलंगाना में राज्यपाल बनाया गया है जिसका खास राजनीतिक मकसद है. बंडारू दत्तात्रेय को हिमाचल प्रदेश और भगत सिंह कोश्यारी को महाराष्ट्र का राज्यपाल बनाया जाना बीजेपी के सीनियर नेताओं को समायोजित किये जाने की कोशिश भर है. बंडारू दत्तात्रेय को रोहित वेमुला खुदकुशी केस को लेकर विवादों में रहने के कारण हाशिये पर भेज दिया गया था - एक बार फिर वो खोया हुआ सम्मान वापस पा चुके हैं.

सभी नियुक्तियों में सबसे खास है आरिफ मोहम्मद खान को केरल का राज्यपाल बनाया जाना - जिसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए खतरे की घंटी के तौर पर भी लिया जा सकता है.

आरिफ मोहम्मद खान क्यों राज्यपाल बने

ऐसा कितनी बार होता है कि किसी राज्यपाल की नियुक्ति पर विपक्षी खेमा भी तारीफ करे. आरिफ मोहम्मद खान के केरल का राज्यपाल बनने पर मोदी सरकार के कट्टर विरोधी भी दाद दे रहे हैं. कुछ इस अंदाज में जैसे - और कुछ न सही, कम से कम एक काम तो अच्छा किया ही है और इसके लिए तारीफ होनी चाहिये. आरिफ की नियुक्ति को लोग ऐसे समझ रहे हैं जैसे मोदी सरकार ने अलग अलग फील्ड के पेशेवरों को सीधे ज्वाइंट सेक्रेट्री के तौर पर आईएएस अफसर बनाया है.

अब सवाल ये उठता है कि आरिफ मोहम्मद खान को राज्यपाल बनाये जाने की असल वजह क्या रही होगी? ये सवाल भी इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि 2007 में आरिफ ने बीजेपी भी छोड़ दी थी.

हाल फिलहाल तो आरिफ मोहम्मद खान के प्रो-बीजेपी बयान ही अहम लगते हैं. आरिफ ने ट्रिपल तलाक को गैरकानूनी घोषित करने के नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले का समर्थन किया था. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने को लेकर भी आरिफ केंद्र सरकार के समर्थन में खड़े रहे.

बीजेपी में रहने के बावजूद आरिफ मोहम्मद खान की बतौर कांग्रेस नेता ही पहचान रही है - और 1984 में शाहबानो केस में राजीव गांधी के फैसले का विरोध करते हुए उनका कांग्रेस छोड़ देना बीजेपी के आकर्षित होने की सबसे बड़ी वजह लगती है. 80 के दशक में आरिफ मोहम्मद खान कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार थे, लेकिन जब शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राजीव गांधी सरकार ने पलट दिया तो वो कड़ा विरोध जताये और न सिर्फ मंत्री पद से इस्तीफा दिया बल्कि कांग्रेस भी छोड़ दिये.

राहुल गांधी को अब वायनाड में भी अमेठी की तरह जूझना पड़ सकता है

आरिफ मोहम्मद खान का यही वो मजबूत पक्ष है जो बीजेपी को खूब भा रहा होगा और आगे वो इसे हथियार बना कर कांग्रेस को केरल से भी बाहर करने की कोशिश करेगी. वैसे तो केरल में फिलहाल लेफ्ट मोर्चे की सरकार है लेकिन 2019 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने 20 में से 15 लोक सभा सीटें जीत ली, जबकि बीजेपी खाता खोलने तक के लिए तरस कर रह गयी.

दो महीने पहले आरिफ मोहम्मद खान उस वक्त चर्चा में आये जब 25 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा का जवाब दे रहे थे. प्रधानमंत्री मोदी ने किसी नेता का नाम तो नहीं लिया लेकिन आरिफ मोहम्मद खान के बहाने मुस्लिम समुदाय की सामाजिक हालत को लेकर कांग्रेस पर बड़ा हमला बोला.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कांग्रेस के मंत्री ने अपने इंटरव्यू में बताया था कि उनकी पार्टी के एक नेता ने मुसलमानों के बारे में गटर में पड़े रहने की बात कही थी. पीएम मोदी ने संसद में किसी नेता का नाम लिए बिना यह बयान दिया था जिसके बाद यह बयान देने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान सामने आये और तस्वीर साफ की.

केरल में बीजेपी के लिए कितने फायदेमंद रहेंगे आरिफ?

2017 और 2018 में बीजेपी नेतृत्व ने केरल में जगह बनाने के लिए पूरा जोर लगाया लेकिन 2019 में उसका कोई फायदा नहीं मिला. नवंबर, 2018 में अमित शाह ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश वाले फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट को जी भरा कोसा भी था. उससे पहले बीजेपी की तरफ से केरल में 15 दिन की 'जन सुरक्षा यात्रा' भी निकाली गयी - जिसमें अमित शाह और योगी आदित्यनाथ ने 10 किलोमीटर पदयात्रा भी की. इस दौरान बीजेपी और संघ कार्यकर्ताओं की हत्या के लिए लेफ्ट की पी. विजयन सरकार को घेरने की भी पूरी कोशिश की. तब योगी आदित्यनाथ ने कहा था, 'ये जमीन अब ज्यादा दिन लाल नहीं रहेगी, इसे अब भगवा में बदल देंगे. आम चुनाव में भगवा का कोई असर नहीं हुआ और कांग्रेस ने 15 सीटों पर जीत हासिल की जिसमें राहुल गांधी की वायनाड सीट भी शामिल रही.

जब से राहुल गांधी वायनाड जाने लगे हैं और खुद को बचपन वाले प्यार से जोड़ कर देखने और दिखाने लगे हैं, बीजेपी की भी नजर लग गयी है. बीच बीचे में प्रधानमंत्री मोदी भी केरल से किसी न किसी बहाने जुड़े रहने की कोशिश करते हैं.

चुनाव नतीजों के बाद तो मोदी वाराणसी गये थे लेकिन प्रधानमंत्री पद की दोबारा शपथ लेने के बाद सबसे पहले केरल ही पहुंचे थे और अपने तरीके से आगे का भी संदेश दे दिया था, 'जिन्होंने हमें जिताया और जो चूक गए वे भी हमारे हैं... केरल भी मेरा उतना ही अपना है, जितना बनारस है... जीत के बाद देश के 130 करोड़ नागरिकों की जिम्मेदारी हमारी है... भाजपा के कार्यकर्ता सिर्फ चुनावी राजनीति के लिए मैदान में नहीं होते. हम लोग 365 दिन अपने राजनीतिक चिंतन के आधार पर जनता की सेवा में जुटे रहते हैं.'

अभी अभी केरल में आयोजित एक कार्यक्रम को प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये संबोधित किया तो उसमें भी 'सबका विश्वास' जीतने का ही भाव दिखा. सबका विश्वास जीतने से आशय बीजेपी की मुस्लिम समुदाय का दिल जीतने की कोशिश से होता है. केरल में 2011 की जनगणना के हिसाब से 26.56 फीसदी मुस्लिम आबादी रहती है - और उसी पर बीजेपी की नजर है. केरल के कार्यक्रम में मोदी ने कहा था कि आलोचना को वो भी पसंद करते हैं क्योंकि इससे संवाद बना रहता है जो समाज के लिए बेहद जरूरी होता है.

तीन तलाक कानून बनाने के बाद आरिफ मोहम्मद खान को राज्यपाल बनाकर केरल भेजने के पीछे भी मकसद मुस्लिम वोट के बंटवारे की कोशिश ही है. राज्यपाल का जनता से सीधा संवाद तो कम ही होता है लेकिन बुद्धिजीवियों के बीच एक पैठ जरूर बनी रहती है जो 'संपर्क फॉर समर्थन' जैसा फायदेमंद साबित हो सकता है. अब आरिफ मोहम्मद खान बीजेपी के लिए स्मृति ईरानी तो नहीं बन सकते लेकिन पार्टी की जमीन मजबूत करने में मददगार तो साबित हो ही सकते हैं.

अगर बीजेपी नेतृत्व आरिफ मोहम्मद खान को राजभवन में बिठा कर अपने मकसद में आधा भी कामयाब रहता है तो सबसे ज्यादा फिक्र की बात राहुल गांधी के लिए ही है. अभी तो ऐसा लगने लगा है कि राहुल गांधी केरल में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहे हैं. जो राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के दावेदार और मोदी को चैलेंज किया करते रहे वो कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद वायनाड के सांसद भर बन कर रह गये हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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