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बनारस में मोदी विरोध की राजनीति का चुनावी फायदा कांग्रेस उठा पाएगी भला?

    • आईचौक
    • Updated: 29 नवम्बर, 2020 07:52 PM
  • 29 नवम्बर, 2020 07:52 PM
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MLC चुनाव में कांग्रेस बनारस (Varanasi) में आपस में ही भिड़ी हुई है, बीजेपी को चैलेंज करने की कौन कहे! लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के विरोध की राजनीति वैसे ही हो रही है जैसे दिल्ली में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) करते हैं - कोई फायदा भी होगा क्या?

विरोध की राजनीति भी अक्सर फायदेमंद होती है, हालांकि, अपवाद भी मिलते हैं - और इस कैटेगरी में सबसे बड़े अपवाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) हैं. राहुल गांधी अरसे से मोदी विरोध की राजनीति करते आ रहे हैं, लेकिन अब तक कोई फायदा तो हुआ नहीं, उलटे लगातार चुनाव हार के चलते कांग्रेस के भीतर ही निशाने पर आ चुके हैं. बाकी बातें भुला भी दें, तो आम चुनाव में अमेठी गंवाने वाले राहुल गांधी बिहार में 70 सीटों पर चुनाव लड़ कर भी पांच साल पुराने प्रदर्शन 27 विधानसभा सीटों के मुकाबले 19 तक ही पहुंच पाये. हाल ये हो रहा है कि कांग्रेस के G-23 नेताओं में शुमार कपिल सिब्बल ताल ठोक कर कहने लगे हैं कि कांग्रेस नेतृत्व को अब हार की आदत पड़ चुकी है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के संसदीय क्षेत्र में भी राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस की तरफ से ऐसी ही कोशिश चल रही है. वाराणसी से ही 2004 में कांग्रेस सांसद रहे राजेश मिश्रा ने देव दीपावली के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी यात्रा के दौरान आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की आशंका जतायी है और इस सिलसिले में चुनाव आयोग को पत्र भी लिखा है.

दरअसल, 1 दिसंबर को वाराणसी (Varanasi) में शिक्षक और स्नातक क्षेत्र से विधान परिषद का चुनाव होना है - और कांग्रेस की आपसी लड़ाई में दो-दो उम्मीदवार आपस में भी भिड़े हुए हैं. ऐसे में कांग्रेस नेता का का चुनाव आयोग को पत्र लिखना भी राहुल गांधी की ही तरह मोदी विरोध की राजनीति ही लगती है - और मकसद मूल समस्या से ध्यान हटाना है!

मोदी के नाम पर कांग्रेस को क्या मिलेगा?

अमेठी छूटने के बाद से राहुल गांधी के मोदी विरोध की राजनीति का मुख्य केंद्र दिल्ली ही रहता है, चुनावों के दौरान जगह और वक्त जरूर बदलता रहता है. अभी अभी ये बिहार का चुनावी मैदान रहा, जहां राहुल गांधी के निशाने पर विधानसभा चुनाव के हिसाब से असली चुनौती नीतीश कुमार कम और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ज्यादा हुआ करते रहे. बनारस की इस राजनीतक कवायद से राहुल गांधी दूर जरूर...

विरोध की राजनीति भी अक्सर फायदेमंद होती है, हालांकि, अपवाद भी मिलते हैं - और इस कैटेगरी में सबसे बड़े अपवाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) हैं. राहुल गांधी अरसे से मोदी विरोध की राजनीति करते आ रहे हैं, लेकिन अब तक कोई फायदा तो हुआ नहीं, उलटे लगातार चुनाव हार के चलते कांग्रेस के भीतर ही निशाने पर आ चुके हैं. बाकी बातें भुला भी दें, तो आम चुनाव में अमेठी गंवाने वाले राहुल गांधी बिहार में 70 सीटों पर चुनाव लड़ कर भी पांच साल पुराने प्रदर्शन 27 विधानसभा सीटों के मुकाबले 19 तक ही पहुंच पाये. हाल ये हो रहा है कि कांग्रेस के G-23 नेताओं में शुमार कपिल सिब्बल ताल ठोक कर कहने लगे हैं कि कांग्रेस नेतृत्व को अब हार की आदत पड़ चुकी है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के संसदीय क्षेत्र में भी राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस की तरफ से ऐसी ही कोशिश चल रही है. वाराणसी से ही 2004 में कांग्रेस सांसद रहे राजेश मिश्रा ने देव दीपावली के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी यात्रा के दौरान आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की आशंका जतायी है और इस सिलसिले में चुनाव आयोग को पत्र भी लिखा है.

दरअसल, 1 दिसंबर को वाराणसी (Varanasi) में शिक्षक और स्नातक क्षेत्र से विधान परिषद का चुनाव होना है - और कांग्रेस की आपसी लड़ाई में दो-दो उम्मीदवार आपस में भी भिड़े हुए हैं. ऐसे में कांग्रेस नेता का का चुनाव आयोग को पत्र लिखना भी राहुल गांधी की ही तरह मोदी विरोध की राजनीति ही लगती है - और मकसद मूल समस्या से ध्यान हटाना है!

मोदी के नाम पर कांग्रेस को क्या मिलेगा?

अमेठी छूटने के बाद से राहुल गांधी के मोदी विरोध की राजनीति का मुख्य केंद्र दिल्ली ही रहता है, चुनावों के दौरान जगह और वक्त जरूर बदलता रहता है. अभी अभी ये बिहार का चुनावी मैदान रहा, जहां राहुल गांधी के निशाने पर विधानसभा चुनाव के हिसाब से असली चुनौती नीतीश कुमार कम और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ज्यादा हुआ करते रहे. बनारस की इस राजनीतक कवायद से राहुल गांधी दूर जरूर हैं, लेकिन उनके राजनीतिक साथी बिलकल अपने नेता जैसा ही सियासी तौर तरीका अपना रहे हैं.

30 नवंबर को देव दीपावली के विशेष अवसर पर अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी पहुंच रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'वाराणसी-प्रयागराज 6 लेन हाइवे' की सौगात देने वाले हैं. कांग्रेस नेता राजेश मिश्रा ने इसी चीज को लेकर सवाल उठाते हुए चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज करायी है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, राजेश मिश्रा की नजर में प्रधानमंत्री मोदी के दौरे में बनारस के लोगों को तोहफे दिया जाना चुनाव आचार संहिता का सीधा सीधा उल्लंघन है. राजेश मिश्रा ने चुनाव आयोग को लिखे पत्र में आशंका जतायी है कि प्रधानमंत्री के दौरे से चुनाव प्रभावित हो सकते हैं क्योंकि अगले ही दिन MLC चुनाव के लिए वोटिंग होनी है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी से ही सांसद हैं और किसी भी परिस्थिति में उनके दौरे को तो चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने से नहीं जोड़ा जा सकता, लेकिन मौका विशेष पर सरकारी घोषणाओं को लेकर चुनाव आयोग को नियमों पर विचार जरूर करना चाहिये. अगर एमएलसी का चुनाव अप्रत्यक्ष होता तो बात और होती, लेकिन इस चुनाव में तो सीधे सीधे शिक्षक और स्नातक की भागीदारी होनी है.

प्रधानमंत्री के दौरे का विरोध तो समाजवादी पार्टी ने भी किया है, उसने अलग मुद्दा उठाया है. समाजवादी पार्टी ने प्रधानमंत्री की सभा में अपेक्षित भीड़ की संख्या में कोरोना प्रोटोकॉल का उल्लंघन बताया है. ऐसे में जबकि यूपी में सार्वजनिक समारोहों के लिए मेहमानों की संख्या निर्धारित की हुई है. वैसे समाजवादी पार्टी अगर बिहार की चुनावी रैलियों का वीडियो एक बार फिर यू-ट्यूब पर देख ले तो ज्यादा सुकून मिलेगा.

अपने अपने कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में अजय राय और राजेश मिश्रा आमने सामनेएमएलसी चुनाव से ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रम को लेकर चुनाव आयोग का जो भी स्टैंड हो, लेकिन समाजवादी पार्टी की तरह ही कांग्रेस नेता भी मई, 2018 की प्रधानमंत्री मोदी की बागपत रैली को याद कर लें तो चुनाव आयोग से ज्यादा शिकायत नहीं रहेगी. तब कैराना उपचुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रम पर भी सवाल उठाये गये थे, लेकिन अंग्रेजों के जमाने के नियमों से बंधे चुनाव आयोग ने तमाम शिकायतों को एक झटके में ही खारिज कर दिया - क्योंकि रैली स्थल और वोटिंग बूथों में किलोमीटर का फासला तय मानकों से ज्यादा पाया गया.

ये तब की बात है जब यूपी में गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों की शिकस्त से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बीजेपी के अंदर ही निशाने पर आ चुके थे और मदद के लिए प्रधानमंत्री मोदी को मौर्चे पर उतरना पड़ा. वैसे मोदी का कार्यक्रम भी बेअसर साबित हुआ और कैराना का भी वही नतीजा रहा जो उसके पहले के दो उपचुनावों में दर्ज किया गया - बीजेपी उम्मीदवार विपक्ष की मजबूत गोलबंदी के आगे चुनाव हार गये थे. वे तीन उपचुनाव ही कालांतर में सपा-बसपा गठबंधन का आधार बने लेकिन वो भी सीजनल साबित हुआ. 2019 के आम चुनाव में मायावती ने अखिलेश यादव की पांच सीटों के मुकाबले 10 सीटें जीत कर गठबंधन तोड़ लिया. अखिलेश यादव पर तो तुषारापात ही हुआ, कभी निर्विरोध संसद पहुंची डिंपल यादव अपने पहले चुनाव की तरह ही हार गयीं.

कांग्रेस पहले आपसी लड़ाई से तो उबर जाये

वाराणसी क्षेत्र से बीजेपी ने एक बार फिर केदारनाथ सिंह पर भी भरोसा किया है - और कांग्रेस की तरफ से उनको डबल चुनौती मिल रही है. यहां डबल चैलेंज से आशय ये है कि कांग्रेस की गुटबाजी के चलते मैदान में दो-दो उम्मीदवार उतर चुके हैं - और दोनों ही निर्दलीय बन कर केदारनाथ सिंह को शिकस्त देने की कोशिश कर रहे हैं.

कांग्रेस में गुटबाजी की जो अखिल भारतीय कहानी है वही बनारस में भी बरकार है. इलाके में कांग्रेस की एक लॉबी की अगुवाई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वाराणसी लोक सभा सीट पर चैलेंज करने वाले अजय राय करते हैं, तो दूसरा गुट 80 के दशक में बीएचयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे डॉक्टर राजेश मिश्रा को फॉलो करता है. 2004 में बीजेपी उम्मीदवार शंकर प्रसाद जायसवाल को शिकस्त देकर संसद पहुंचने से पहले राजेश मिश्रा 1996 से दो बार विधान परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं. 2017 के चुनाव में वो शहर दक्षिणी सीट से कांग्रेस उम्मीदवार थे, लेकिन श्यामदेव रॉय चौधरी का टिकट काट कर चुनाव लड़ रहे नीलकंठ तिवारी से शिकस्त खानी पड़ी. नीलकंठ तिवारी फिलहाल योगी सरकार में मंत्री हैं.

ये विधान परिषद का चुनाव ही था जिसे जीतने के बाद राजेश मिश्रा कांग्रेस के औरंगाबाद (बनारस) घराने की नजर में चढ़ गये थे. औरंगाबाद किसी जमाने में उत्तर प्रदेश का सबसे मजबूत पावर सेंटर हुआ करता रहा जब कमलापति त्रिपाठी यूपी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और बाद में केंद्र में भी मंत्री रहे.

कांग्रेस खेमे से निर्दलीय एमएलसी उम्मीदवार नागेश्वर सिंह को अजय राय का सपोर्ट हासिल है, जबकि संजीव सिंह को राजेश मिश्रा चुनाव लड़ा रहे हैं. नागेश्वर सिंह को लेकर समझा जाता है कि अजय राय के साथ साथ जिला और शहर कांग्रेस कमेटी का भी समर्थन हासिल है, जबकि संजीव सिंह को कमजोर न पड़ने देने के लिए राजेश मिश्रा ने अपने घर में ही उनका चुनाव कार्यालय बनवा दिया है.

दोनों की उम्मीदवारों को लेकर दोनों गुटों की अपनी अपनी दावेदारी भी कम दिलचस्प नहीं है. टाइम्स ऑफ इंडिया के सवाल पर राजेश मिश्रा बताते हैं, 'जब संजीव सिंह ने ज्वाइन किया तो कांग्रेस महासचिव मुकुल वासनिक की तरफ से लेटर जारी किया गया था और साफ तौर पर बताया गया कि वाराणसी से एमएलसी चुनाव के लिए संजीव सिंह का नाम कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरफ से अधिकृत किया गया है.'

मुकुल वासनिक के पत्र को लेकर राजेश मिश्रा के दावे को खारिज तो अजय राय भी नहीं कर रहे हैं, लेकिन TOI से बातचीत में ही कहते हैं, 'संजीव सिंह के नाम पत्र जारी तो हुआ था लेकिन तब पार्टी ने उम्मीदवारों की सूची नहीं फाइनल की थी. संजीव सिंह को प्रदेश प्रभारी की तरफ से अथॉरिटी लेटर नहीं मिला है और यही वजह है कि उनको बतौर निर्दलीय उम्मीदवार नामांकन करना पड़ा है.

अजय राय ने नागेश्वर सिंह की उम्मीदवारी के समर्थन के पीछे जो दलील पेश की है, उसके मुताबिक, एक, नागेश्वर सिंह की शिक्षक समाज में मजबूत पकड़ है और पिछले चुनाव में अपने ही बूते वो 13 हजार वोट हासिल किये थे. राजेश मिश्रा का मानना है कि संजीव सिंह ने पिछले 10 महीने में जो कड़ी मेहनत की है उसका मीठा फल उनको जरूर मिलना चाहिये - लब्बोलुआब तो यही है कि बनारस में पार्टी की अंदरूनी लड़ाई की वजह से ही कांग्रेस ने किसी को भी अधिकृत प्रत्याशी नहीं घोषित किया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे को लेकर चुनाव आयोग को पत्र लिखने से पहले राजेश मिश्रा तब सुर्खियों में रहे जब वो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को सुझाव देने के लिए बनी कांग्रेस की सलाहकार परिषद में शामिल होने से इंकार कर दिया था. ये सलाहकार परिषद तब बनायी गयी थी जब अजय कुमार लल्लू को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया था.

बाकी बातें अपनी जगह है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से एमएलसी चुनाव के प्रभावित होने की फिक्र कांग्रेस को आपसी लड़ाई से उबर जाने के बाद फिक्र करनी चाहिये. अभी तो बनारस की ये लड़ाई भी बिहार चुनाव के शुरुआती दौर की तरह एकतरफा लग रही है. अगर ऐसा न होता तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, असदुद्दीन ओवैसी के गढ़ हैदराबाद में 'जियो रे बाहुबली...' म्यूजिक के साथ निश्चिंत होकर रोड शो कर रहे होते. हालांकि, ये नहीं भूलना चाहिये कि चुनावी वैतरणी में ऊंट कब किस करवट बैठ जाये - बिहार चुनाव 2020 के नतीजे इस बात की बेहतरीन मिसाल हैं! है कि नहीं?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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