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अखिलेश-चंद्रशेखर रावण का मिलाप सपा-बसपा गठबंधन से कितना अलग होगा?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 28 नवम्बर, 2021 04:41 PM
  • 28 नवम्बर, 2021 04:41 PM
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अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad) से मुलाकात में भी मायावती (Mayawati) का ही अक्स नजर आ रहा होगा, जिसमें पॉजिटिव से ज्यादा नेगेटिव एनर्जी का ही असर रहा होगा - लेकिन सवाल है कि क्या सपा की शर्तें चंद्रशेखर पूरी कर पाएंगे?

अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) से भी उत्तर प्रदेश में लोग वैसी ही उम्मीदों के साथ मिल रहे हैं, जैसे हाल तक पंजाब में भगवंत मान से मिलते रहे और अभी जम्मू-कश्मीर में गुलाम नबी आजाद से लगातार मिल रहे हैं. ओम प्रकाश राजभर से लेकर AAP नेता संजय सिंह तक से मिल चुके अखिलेश यादव से मिलने नये मेहमान पहुंचे थे - चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad), भीम आर्मी वाले जो अब आजाद समाज पार्टी के नाम से राजनीतिक दल भी बना चुके हैं.

चंद्रशेखर पहले अपना पूरा नाम चंद्रशेखर आजाद रावण लिखा करते थे, लेकिन गुजरते वक्त के साथ चलने की कोशिश में और प्रतिकूल परिस्थितियों से लगातार जूझते रहने के बाद वो नाम से रावण डिलीट कर चुके हैं - डिलीट इसलिए कह सकते हैं क्योंकि चंद्रशेखर का सोशल मीडिया पर जमीन से ज्यादा मजबूत मौजूदगी नजर आती है. चुनावी राजनीति में तो अब तक कोई खास कामयाबी मिली नहीं है. यूपी में हुए पंचायत चुनाव ताजातरीन उदाहरण हैं.

ये बात भी महत्वपूर्ण है कि अखिलेश यादव और चंद्रशेखर की मुलाकात में पहल किस तरफ से हुई है?

दलित वोटों को लेकर तो अखिलेश यादव की दिलचस्पी जगजाहिर है - और यही वो बड़ा फैक्टर रहा जो 2019 में मायावती के साथ सपा-बसपा गठबंधन का आधार बना था. अखिलेश यादव ने राहुल गांधी से भी कहीं बड़ी उम्मीदों के साथ मायावती (Mayawati) के साथ 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन फाइनल किया था.

कांग्रेस के साथ तो बिलकुल भी नहीं और बीएसपी के साथ भी शुरू में मुलायम सिंह यादव को गठबंधन से ऐतराज था, लेकिन अखिलेश यादव को लंबे सफर की अपेक्षा रही, लेकिन मायावती तो अगले ही स्टेशन पर अलग ट्रैक पकड़ लीं. घाटे में भी अखिलेश यादव ही रहे. पत्नी डिंपल यादव की हार का दोबारा दुख सहना पड़ा, जबकि 2014 में जीरो बैलेंस वाली मायावती 10 सीटें जीतने में कामयाब रहीं.

क्या चंद्रशेखर में भी अखिलेश यादव को मायावती का अक्स दिखायी देता है? अगर ऐसा वास्तव में है तो निश्चित तौर पर अखिलेश यादव एक बार चंद्रशेखर के साथ चुनावी गठबंधन को लेकर गंभीरता से...

अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) से भी उत्तर प्रदेश में लोग वैसी ही उम्मीदों के साथ मिल रहे हैं, जैसे हाल तक पंजाब में भगवंत मान से मिलते रहे और अभी जम्मू-कश्मीर में गुलाम नबी आजाद से लगातार मिल रहे हैं. ओम प्रकाश राजभर से लेकर AAP नेता संजय सिंह तक से मिल चुके अखिलेश यादव से मिलने नये मेहमान पहुंचे थे - चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad), भीम आर्मी वाले जो अब आजाद समाज पार्टी के नाम से राजनीतिक दल भी बना चुके हैं.

चंद्रशेखर पहले अपना पूरा नाम चंद्रशेखर आजाद रावण लिखा करते थे, लेकिन गुजरते वक्त के साथ चलने की कोशिश में और प्रतिकूल परिस्थितियों से लगातार जूझते रहने के बाद वो नाम से रावण डिलीट कर चुके हैं - डिलीट इसलिए कह सकते हैं क्योंकि चंद्रशेखर का सोशल मीडिया पर जमीन से ज्यादा मजबूत मौजूदगी नजर आती है. चुनावी राजनीति में तो अब तक कोई खास कामयाबी मिली नहीं है. यूपी में हुए पंचायत चुनाव ताजातरीन उदाहरण हैं.

ये बात भी महत्वपूर्ण है कि अखिलेश यादव और चंद्रशेखर की मुलाकात में पहल किस तरफ से हुई है?

दलित वोटों को लेकर तो अखिलेश यादव की दिलचस्पी जगजाहिर है - और यही वो बड़ा फैक्टर रहा जो 2019 में मायावती के साथ सपा-बसपा गठबंधन का आधार बना था. अखिलेश यादव ने राहुल गांधी से भी कहीं बड़ी उम्मीदों के साथ मायावती (Mayawati) के साथ 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन फाइनल किया था.

कांग्रेस के साथ तो बिलकुल भी नहीं और बीएसपी के साथ भी शुरू में मुलायम सिंह यादव को गठबंधन से ऐतराज था, लेकिन अखिलेश यादव को लंबे सफर की अपेक्षा रही, लेकिन मायावती तो अगले ही स्टेशन पर अलग ट्रैक पकड़ लीं. घाटे में भी अखिलेश यादव ही रहे. पत्नी डिंपल यादव की हार का दोबारा दुख सहना पड़ा, जबकि 2014 में जीरो बैलेंस वाली मायावती 10 सीटें जीतने में कामयाब रहीं.

क्या चंद्रशेखर में भी अखिलेश यादव को मायावती का अक्स दिखायी देता है? अगर ऐसा वास्तव में है तो निश्चित तौर पर अखिलेश यादव एक बार चंद्रशेखर के साथ चुनावी गठबंधन को लेकर गंभीरता से विचार कर सकते हैं, वरना बात एक मुलाकात तक ही खत्म हो सकती है.

अखिलेश यादव की नजर में चंद्रशेखर की अहमियत

समाजवादी पार्टी एक्सप्रेस में अभी तक तो जयंत चौधरी और उसके बाद कुछ हद तक ओम प्रकाश राजभर का ही टिकट कंफर्म लग रहा है. आम आदमी पार्टी के साथ भी अभी तक स्टेटस RAC ही लगता है - और बाकी सब तो खुद को वेटलिस्ट में ही समझ सकते हैं.

मायावती से जले अखिलेश यादव के लिए चंद्रशेखर को फूंक फूंक कर तौलना मजबूरी है!

चंद्रशेखर आजाद से अखिलेश यादव भले ही मिल चुके हों, लेकिन उनको वेटलिस्ट से ज्यादा तवज्जो मिल पाएगी अभी तो ऐसा नहीं लगता. हां, दलित कोटे से गठबंधन में बर्थ कंफर्म होने की संभावना बन सकती है, बशर्ते सीटों को लेकर चंद्रशेखर आजाद किसी तरह की जिद पर न अड़ने का फैसला कर लेते हैं.

1. अखिलेश-चंद्रशेखर गठबंधन में पेंच: जयंत चौधरी के साथ अखिलेश यादव का 2019 के आम चुनाव में भी गठबंधन रहा. बल्कि ऐसे समझें कि जयंत चौधरी को गठबंधन में अलग से सीटें नहीं दी गयी थीं, बल्कि अखिलेश यादव ने अपने कोटे की सीटें शेयर की थी. 2022 के हिसाब से देखें तो ये साथ अब भी उतना ही मजबूत बना हुआ है और नयी उम्मीदों के साथ आगे बढ़ रहा है.

किसान आंदोलन के बाद जयंत चौधरी का पश्चिम यूपी में राजनीतिक महत्व काफी बढ़ गया है. वैसे भी राकेश टिकैत के आंसू निकलने के बाद ढाढ़स बंधाने वालों में पहले आरएलडी नेता जयंत चौधरी के पिता अजीत सिंह ही रहे - और जब मुजफ्फरनगर में महापंचायत हुई तो भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने आरएलडी का साथ छोड़ने के फैसले को लेकर अफसोस भी जताया था. ज्यादा अफसोस बीजेपी के साथ जाने को लेकर रहा. हालांकि, ये शुरुआती दौर की बात है और अब चीजें काफी बदल भी चुकी हैं, लेकिन जयंत चौधरी का प्रभाव बरकरार है कोई इनकार नहीं कर सकता. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीनो कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले का भी असर तो होगा ही.

2017 में ओम प्रकाश राजभर जिन वजहों से बीजेपी के साथ रहे, वही अब अखिलेश यादव के करीब ला रही हैं. बीजेपी ने तो विकल्पों के सहारे आगे बढ़ने का फैसला आम चुनाव से पहले ही कर लिया था, लेकिन अखिलेश यादव को कई सीटों पर राजभर वोट बैंक साफ नजर आ रहा है, लिहाजा आम आदमी पार्टी के मुकाबले उनको तरजीह मिलेगी ही.

अखिलेश यादव को वैसे तो आम आदमी पार्टी के मुकाबले आजाद समाज पार्टी में संभावना ज्यादा ही नजर आ रही होगी, लेकिन जो खतरा वो चंद्रशेखर के चलते महसूस कर रहे होंगे, अरविंद केजरीवाल के मामले में बिलकुल भी परवाह नहीं होगी. माना जा रहा है कि गठबंधन की सूरत में आम आदमी पार्टी के साथ अखिलेश यादव नोएडा और एनसीआर के आस पास की कुछ सीटें शेयर कर सकते हैं.

देखा जाये तो अखिलेश यादव कहने को छोटे राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन कर रहे हैं, लेकिन मिलकर उनका भार किसी बड़े दल से ज्यादा लगता है. अखिलेश यादव किसी भी सूरत में समाजवादी पार्टी से टिकट चाहने वालों को नाराज करने से बचना चाहेंगे - क्योंकि ये तो तय है कि मजबूत उम्मीदवारों को बीजेपी लपक लेगी और बाकी सभी के लिए तो प्रियंका गांधी वाड्रा को इंतजार है ही - ऐसे हालात में अगर कोई मिसफिट हो सकता है तो वो चंद्रशेखर आजाद ही लगते हैं, बशर्ते वो अखिलेश यादव से मुलाकात में कोई असरदार प्रपोजल न पेश किये हों.

2. चंद्रशेखर की ताकत ही कमजोरी बन चुकी है: अखिलेश यादव दूध के जले हैं और अब तो फूंक कर भी छाछ पीने से परहेज करेंगे. पांच साल तक सत्ता से बाहर रहने के बाद तो कोई भी राजनीतिक दल एक छोटी सी भी चूक की आशंका से डरता है. मायावती का मामला अपवाद बनता जा रहा है - सपा-बसपा गठबंधन तोड़ने की जो भी मजबूरी रही हो, लेकिन नये सिरे से ब्राह्मण वोट की जो आस लगा बैठी हैं उसकी वजह समझना मुश्किल लगता है.

लखनऊ में सत्ता के गलियारों पर नजर रखने वाले पत्रकार अवतंस चित्रांश को अखिलेश यादव और चंद्रशेखर के बीच चुनावी गठबंधन की बहुत कम संभावना नजर आती है. कहते हैं, पहले तो अखिलेश यादव वो गलती तो दोहराने से रहे जो 90 के दशक में उनके पिता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव से हुई थी.

सही भी है, अगर मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम से हाथ मिलाने को लेकर आगे बढ़ने का फैसला न किया होता तो मायावती उतनी तेजी से चुनौती नहीं बन पातीं. फिर तो शायद गेस्ट हाउस कांड की भी नौबत नहीं आयी होती.

अवतंस चित्रांश का कहना है कि मायावती जैसा भले ही कोई न हो, लेकिन समाजवादी पार्टी के पास अपने दलित चेहरे तो हैं ही और 25 साल बाद मुलायम और मायावती को साथ लाने के बाद अखिलेश यादव को जो अनुभव हुआ है - भला वो अपने लिए किसी और को नया मायावती क्यों बनाने का जोखिम उठाना चाहेंगे?

भीम आर्मी के जरिये यूपी के सियासी मैदान में कूदे चंद्रशेखर आजाद के सामने सबसे बड़ा चैलेंज वो खुद ही हैं. दरअसल, चंद्रशेखर आजाद में मायावती अपने लिए एक प्रतियोगी देखती हैं - और बाकी सारे दल चंद्रशेखर आजाद में भी मायावती का अक्स देखते हैं. मतलब, चंद्रशेखर की असली ताकत ही यूपी के राजनीतिक समीकरणों में सबसे बड़ी कमजोरी बन चुकी है.

चंद्रशेखर का हाल भी कन्हैया-हार्दिक जैसा ही है

उत्तर प्रदेश में में चंद्रशेखर आजाद का संघर्ष अब तक वैसा ही रहा है, जैसा कांग्रेस ज्वाइन करने से पहले तक गुजरात में हार्दिक पटेल का हुआ करता था. थोड़ा आगे बढ़ें तो चंद्रशेखर आजाद की हालत कन्हैया कुमार की तरह भी लगती है, फर्क ये है कि कांग्रेस में आने से पहले कन्हैया कुमार के पास सीपीआई जैसा बड़ा बैनर रहा.

कन्हैया कुमार की तरह चंद्रशेखर आजाद को अब तक कोई ठिकाना नहीं मिल सका है. कन्हैया कुमार तो सिर्फ लालू परिवार के आंखों की किरकिरी बने, चंद्रशेखर आजाद ने तो सभी के सामने असुरक्षा की भावना ही भर दी है. जो खतरा तेजस्वी यादव के लिए बिहार में कन्हैया कुमार से लालू यादव महसूस कर रहे थे, चंद्रशेखर आजाद से वैसा ही खतरा हर किसी को लग रहा है. चंद्रशेखर को चुनावी राजनीति में अभी तक सफलता नहीं मिली है, जैसे ही ऐसा हुआ वो भी नेता बन जाएंगे और भला जान बूझ कर कोई भी ऐसा जोखिम क्यों उठाये.

गुजरात में हार्दिक पटेल जब तक बारगेन करते रहे, कांग्रेस ने बस जैसे तैसे लटकाये रखा. बीजेपी के विरोध के लिए राहुल गांधी सिर्फ ये संदेश देने की कोशिश करते रहे कि अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जितना ही वो हार्दिक पटेल को भी महत्व दे रहे हैं. हार्दिक पटेल से होटल में मुलाकात के बाद भी राहुल गांधी उनका मामला होल्ड ही रखा. बात तभी बनी जब हार्दिक पटेल कांग्रेस ज्वाइन करने को तैयार हुए - चंद्रशेखर को लेकर भी कांग्रेस का इरादा मिलता जुलता ही लगता है.

हार्दिक पटेल या कन्हैया कुमार की तरह अगर चंद्रशेखर कोई भी पार्टी ज्वाइन करना चाहें तो शायद ही किसी को आपत्ति हो, लेकिन वो दलितों के नेता बन कर अलग कुनबा खड़ा कर दें, इस डर से कोई भी आगे बढ़ कर हाथ मिलाना तो दूर लगता है जैसे नजरें भी चुराने की कोशिश कर रहा हो.

1. पहला ऑफर तो मायावती की तरफ से ही रहा: सबसे पहले तो मायावती ने ही बीएसपी ज्वाइन करने का ऑफर दिया था. सहारनपुर हिंसा के बाद मायावती ने कहा था कि ये युवा अगर बीएसपी के साथ आते हैं तो पार्टी का प्रोटेक्शन मिलेगा और उनके साथ कोई ऐसा वैसा नहीं कर पाएगा.

लेकिन तब चंद्रशेखर का जोश हाई था वो अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे. फिर हिंसा को लेकर पुलिस ने जेल तो भेजा ही, NSA भी लगाया और एक्स्टेंड भी होता गया, लेकिन फिर चुनावी माहौल को देखते हुए सरकार ने ही रिहाई का फैसला किया.

बाहर आने पर चंद्रशेखर को हकीकत का काफी हद तक एहसास हो चुका था. बुआ बोल कर चंद्रशेखर ने रिश्ता बढ़ाने की कोशिश की लेकिन मायावती ने सीधे सीधे बोल दिया कि वो किसी की बुआ नहीं हैं.

अब चंद्रशेखर ने अपनी तरफ से मायावती को ऑफर दिया है कि अगर 2022 चुनावों में वो उनका साथ दे दें तो 2024 के आम चुनाव में वो बीएसपी नेता को देश का प्रधानमंत्री बना देंगे. चंद्रशेखर का दावा है, 'हमारे अंदर वो क्षमता है... यूपी के 20 फीसदी दलित वोटों में से 17 फीसदी आजाद समाज पार्टी को मिलने जा रहे हैं.'

मायावती अगर प्रधानमंत्री बनने के लिए अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके तोड़ सकती हैं तो भला चंद्रशेखर को कहां भाव देने वाली हैं. देखा जाये तो मायावती भी चंद्रशेखर को ठिकाने लगाने की कोशिश में ही रहती हैं. जब भी चंद्रशेखर किसी वजह से सुर्खियों में आते हैं, मायावती बहुजन समाज को आगाह करने लगती हैं कि ऐसे लोगों से उनको सावधान रहने की जरूरत है.

2. प्रियंका की मुलाकात राजनीतिक क्यों नहीं: आम चुनाव से पहले एक बार तबीयत खराब होने पर प्रियंका गांधी वाड्रा मेरठ के अस्पताल जाकर चंद्रशेखर से मुलाकात भी की थीं, जिसे लेकर मायावती गुस्से से लाल हो गयी थीं. हालांकि, प्रियंका ने कहा था, 'चंद्रशेखर का जोश पसंद आया, इसलिए उनसे मिलने आई... इनके संघर्ष को जानती हूं... इस मुलाकात को राजनीतिक चश्मे से न देखिये.'

तब सपा-बसपा गठबंधन बना था और मायावती ने कुछ सीटों पर उम्मीदवार न खड़ा करने की घोषणा की थी, लेकिन प्रियंका की मुलाकात के बाद अमेठी और रायबरेली में भी गठबंधन प्रत्याशी उतारने पर अड़ गयीं. सुन कर भागे भागे अखिलेश यादव पहुंचे और जैसे तैसे ऐसा न करने के लिए मायावती को मना भी लिया.

अब तो लगता है प्रियंका सही कह रही थीं कि मुलाकात को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिये. मान लेते हैं कि प्रियंका गांधी चंद्रशेखर से भी मिलने वैसे ही गयी थीं जैसे सोनभद्र, हाथरस, आगरा या अभी अभी प्रयागराज के फाफामऊ जाकर दलित परिवार से मिलीं.

लेकिन चंद्रशेखर कोई वैसे आम पीड़ित तो हैं नहीं. फिर तो यही लगता है कि प्रियंका जिस प्रस्ताव के साथ मिली थीं, चंद्रशेखर ने सिरे से खारिज कर दिया होगा. हालांकि, बाद में भी चंद्रशेखर की दिल्ली में गिरफ्तारी पर भी प्रियंका ने ट्वीट कर विरोध जताया था.

3. चंद्रशेखर से मोहभंग क्यों होने लगा: पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा करने के बाद इरादा बदल चुके चंद्रशेखर आजाद अब योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने की बात करने लगे हैं - लेकिन लग तो ऐसा रहा है जैसे भीम आर्मी समर्थक का भी चंद्रशेखर के संघर्ष से भरोसा उठने लगा है.

यूपी की 403 सीटों पर आजाद समाज पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके चंद्रशेखर को छोड़ कर उनके कई साथी इसी महीने बीएसपी ज्वाइन कर चुके हैं. जो पदाधिकारी बीएसपी में लौटे हैं, उनमें भीम आर्मी के राष्ट्रीय सलाहकार सुजीत सम्राट, मीडिया प्रभारी रहे राहुल नागपाल, अजय कुंडलिया, सिंकदर बौद्ध, दिलीप कश्यप और देवेंद्र कुमारी शामिल हैं.

- फोटो -

वैसे ये नेता बीएसपी छोड़ कर ही चंद्रशेखर के साथ खड़े हुए थे, ऐसे में मायावती ने इनकी घर वापसी करा ली है - ऐसी चीजें चंद्रशेखर के लिए गहरी चिंता का विषय हो सकती हैं कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है? चंद्रशेखर को ही ये समझने की कोशिश करनी होगी कि चूक कहां हो रही है - और उनके लिए सही पॉलिटिकल लाइन क्या हो सकती है?

4. और TINA फैक्टर भी तो हावी है: यूपी के वोटर के सामने कांग्रेस बस एक्टिव नजर आ रही है, लेकिन बीजेपी के बाद अगर वे विकल्प देखते हैं तो पहले अखिलेश यादव फिर मायावती ही नजर आती हैं. सवाल ये है कि बीजेपी का वोटर योगी आदित्यनाथ से लाख नाराज हो जाये, लेकिन क्या उसे अखिलेश यादव या मायावती का शासन मंजूर होगा? समाजवादी पार्टी के यादव और बीएसपी के दलित वोटर के अलावा बीजेपी का नाराज वोटर भी मन को समझा नहीं पा रहा है - और ये बातें सामान्य बातचीत का हिस्सा नजर आती हैं. चाय पान की दुकानों से लेकर गली-मोहल्लों के जमावड़े तक.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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