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पगला वोटर, चुनाव और स्वप्न: दिल की सुनें या दिमाग़ की...

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 12 दिसम्बर, 2017 01:44 PM
  • 12 दिसम्बर, 2017 01:44 PM
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चुनाव के समय उम्मीदवारों द्वारा देशभक्ति की उत्पन्न बयार हृदय को ऐसे मंत्रमुग्ध कर देती है, जो 15 अगस्त 1947 को भी न चली होगी. पूरा वातावरण भारतीय संस्कृति की रक्षा, सभ्यता और देशप्रेम की सुरभित वादियों में मचल-मचल भाईचारे के गीत गाता है.

जब-जब चुनाव का समय आता है, मेरे दिलेर दिल के मेहंदी भरे हाथ बल्लियों उछल, "हो गई तेरी बल्ले-बल्ले, हो जाएगी बल्ले-बल्ले... आ धमचिक, धमचिक, धमचिक" गीत-नृत्य का अनोखा, अद्भुत, अकल्पनीय संगम प्रस्तुत करने लगते हैं. मैं भी इन बेताब, अनियंत्रित भावनाओं को जीने का पूर्ण अवसर प्रदान कर स्वर्गीय होने की अनुभूति ले ही लेती हूं.

अब ऐसा भी नहीं कि चुनाव आने से हमारे घर का कंटीला कागज़ी बोगनविला, गुलाब की पंखुड़ी की नज़ाक़त से भर जाएगा और वैलेंटाइन की ख़ुश्बू देने लगेगा. न हमने लेखन के पैसे पाकर, बेरोज़गारी दूर करने का बेहूदा स्वप्न ही देखा है. हम ओज़ोन लेयर के छेद में 'एम-सील' का ढक्कन लगाने की तो बिल्कुलै नई सोच रहे. आम गृहिणी की तरह टमाटर-प्याज के सस्ते होने की भी क़तई उम्मीद न कर रहे. वो क्या है न कि ज़माने के (दही नहीं, समाज) ज़ुल्मो-सितम ने हमारे मस्तिष्कवा में थोड़ी समझदारी की जी.एस.टी. लगा दी है.

दरअसल हमारी भयंकर वाली चिंता का विषय है, बच्चे. बच्चे जो टीवी पे समाचार देख-सुन, आदर्श आचार-संहिता का अपूर्व ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं. समाज में उठने-बैठने, बोलचाल की शिष्टता और शिल्पकारी में भी प्रवीण हो ही रहे. दुर्भाग्य से उन्हें इस बात की जानकारी भी प्राप्त हो चुकी है कि इस क्षेत्र (व्यवसाय ही है, जी) में कोई भी प्रवेश परीक्षा नहीं. न प्रतिस्पर्द्धा. न पुस्तकें. न पाठ्यक्रम. और तो और भइए, न्यूनतम योग्यता भी न पूछता कोई.

इसमें तो कोई परीक्षा भी नहीं देनी होती!

अब वो अलग बात है कि इन शुभचिंतकों के मुख-मंडल से टपकती अमृत वाणी इनके वृहद ज्ञान का इल्म खुदै करा देती है. ख़ैर, तो मुद्दा यह है (देखो, मिल ही गया न!) नन्हे कर्णधारों तक यह गोपनीय रिपोर्ट लीक हो चुकी है कि उनके माता-पिता, उन्हें अब तक यह कहकर मूर्ख बनाते रहे कि "पढ़कर ही आगे बढ़ा जा...

जब-जब चुनाव का समय आता है, मेरे दिलेर दिल के मेहंदी भरे हाथ बल्लियों उछल, "हो गई तेरी बल्ले-बल्ले, हो जाएगी बल्ले-बल्ले... आ धमचिक, धमचिक, धमचिक" गीत-नृत्य का अनोखा, अद्भुत, अकल्पनीय संगम प्रस्तुत करने लगते हैं. मैं भी इन बेताब, अनियंत्रित भावनाओं को जीने का पूर्ण अवसर प्रदान कर स्वर्गीय होने की अनुभूति ले ही लेती हूं.

अब ऐसा भी नहीं कि चुनाव आने से हमारे घर का कंटीला कागज़ी बोगनविला, गुलाब की पंखुड़ी की नज़ाक़त से भर जाएगा और वैलेंटाइन की ख़ुश्बू देने लगेगा. न हमने लेखन के पैसे पाकर, बेरोज़गारी दूर करने का बेहूदा स्वप्न ही देखा है. हम ओज़ोन लेयर के छेद में 'एम-सील' का ढक्कन लगाने की तो बिल्कुलै नई सोच रहे. आम गृहिणी की तरह टमाटर-प्याज के सस्ते होने की भी क़तई उम्मीद न कर रहे. वो क्या है न कि ज़माने के (दही नहीं, समाज) ज़ुल्मो-सितम ने हमारे मस्तिष्कवा में थोड़ी समझदारी की जी.एस.टी. लगा दी है.

दरअसल हमारी भयंकर वाली चिंता का विषय है, बच्चे. बच्चे जो टीवी पे समाचार देख-सुन, आदर्श आचार-संहिता का अपूर्व ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं. समाज में उठने-बैठने, बोलचाल की शिष्टता और शिल्पकारी में भी प्रवीण हो ही रहे. दुर्भाग्य से उन्हें इस बात की जानकारी भी प्राप्त हो चुकी है कि इस क्षेत्र (व्यवसाय ही है, जी) में कोई भी प्रवेश परीक्षा नहीं. न प्रतिस्पर्द्धा. न पुस्तकें. न पाठ्यक्रम. और तो और भइए, न्यूनतम योग्यता भी न पूछता कोई.

इसमें तो कोई परीक्षा भी नहीं देनी होती!

अब वो अलग बात है कि इन शुभचिंतकों के मुख-मंडल से टपकती अमृत वाणी इनके वृहद ज्ञान का इल्म खुदै करा देती है. ख़ैर, तो मुद्दा यह है (देखो, मिल ही गया न!) नन्हे कर्णधारों तक यह गोपनीय रिपोर्ट लीक हो चुकी है कि उनके माता-पिता, उन्हें अब तक यह कहकर मूर्ख बनाते रहे कि "पढ़कर ही आगे बढ़ा जा सकता है और वे बुद्धिबल से धनार्जन कर सुखकारी जीवन जी सकते हैं."

अब तो हमारा चिंतित होना स्वाभाविक था. हमने तुरंत ही आपातकालीन बैठक बुला सभी बच्चों को उसमें आमंत्रित किया. उन्हें बहुत समझाया कि चलो ठीक है, पढ़ लिखकर टाइम ख़राब नहीं करते सब लोग (अच्छे वाले 10% तो हैं न) पर मेहनत तो इस बिज़नेस में भी खूब है. ये भी एक तरह का 'आर्ट' है 'आर्ट'.

देखो, अब समझ ही लो-

* तुम्हें आत्मस्तुति की पराकाष्ठा तक पहुंचना होगा. इतना कि मन से भी आवाज आने लगे "यार, ये कुछ ज्यादा नहीं हो गया?"

* थोड़ी गाली-गलौज़ लेकिन प्रवाहमयी, अबाध गति से और बातों से पलटकर निर्लज़्ज़ता वाली हंसी भी सीखनी होगी. * याददाश्त पत्नियों वाली होनी चाहिए कि किसने आज से 25 वर्ष पहले, बारिश के मौसम में कीचड़ में फंसी चप्पल को खींचते हुए क्या कहा था! समय क्या था? क्यों कहा था? उसके पीछे की मंशा आख़िर क्या थी?

* और हां, अब इस भ्रम में न रहना कि 'काला अक्षर भैंस बराबर' भी चल जाएगा! ना मुन्ना ना! देखो, विपत्ति के समय को ध्यान में रखते हुए थोड़े वाक्य तो याद करने ही पड़ते हैं.

भिन्न-भिन्न, भिनभिनाती परिस्थितियों के लिए इन विविध संजीवन शब्द-गुच्छ का प्रयोग उचित रहेगा-

गांठ बांध लो, कब क्या बोलना है (इसे वर्षों दोहराने की खुली छूट है): 

* जब फंस जाओ- विदेशी शक्तियों का हाथ है. घिनौना षड्यंत्र है.

* जब आरोप लगाओ - मामले की सीबीआई जांच हो. इसे कड़ी-से- कड़ी सज़ा दी जाए.

* जब कुछ भी न समझ आये- इस सन्दर्भ में शीघ्र ही एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जाएगा.

* जब जवाब पता हो पर देने का मन न हो- मामला कोर्ट में है.

* जब गुनहगार सिद्ध हो जाओ तो सामने वाले को यह कहकर अपनी खिसियाहट का बेशरम खम्बा नोचो कि उनके घोटालों और गुनाहों की सूची तो हमसे भी ज्यादा लम्बी है.

इस दिव्य-ज्ञान के बाद पुन: मूल विषय की अनुपम मनोहरता पर आगमन करते हैं. तो साब जी, चुनाव के समय उम्मीदवारों द्वारा देशभक्ति की उत्पन्न बयार ह्रदय को ऐसे मंत्रमुग्ध कर देती है, जो 15 अगस्त 1947 को भी न चली होगी. पूरा वातावरण भारतीय संस्कृति की रक्षा, सभ्यता और देशप्रेम की सुरभित वादियों में मचल-मचल भाईचारे के गीत गाता है. खुशियां सर्वत्र पसरी दृष्टिगोचर होती हैं.

इधर पगला वोटर भी खुश होकर गुनगुनाता है.. "जिसका मुझे था इंतज़ार, जिसके लिए दिल था बेक़रार.. वो घड़ी आ गई"

आखिर एक दिन का राजा बनना किसे न भायेगा? यही वो पावन समय है जब वह दरवाजे की घंटी का इंतज़ार यूं करता है, जैसा अपने पहले प्रेम (कई होते हैं न) वाली प्रेमिका का भी न किया था. "दिल तड़प-तड़प के कह रहा है, आ भी जा... तुझे क़सम है आ भी जा."

उधर उम्मीदवार के चेहरे का शांत भाव, स्मित मुस्कान, दमकता मस्तक देखकर यूं प्रतीत होता है कि श्रीराम जी ने स्वयं साक्षात् दर्शन देकर हमारा जीवन धन्य कर दिया है और प्रत्याशी की पलटन की साष्टांग अवस्था हनुमान जी की अपार शक्ति और भक्ति की चीख-चीखकर गवाही दे रही हो. गेंदे और सेवंती के फूलों की महक़, सीधा सतयुग में ही जाकर ड्रॉप करती है. सड़कों पर दो-दो बार झाड़ू लग रही, ट्रैफिक भयंकर है पर इनके व्यवहार से टपकता उदार भाव सबको नतमस्तक कर देता है. कहां मिलते हैं ऐसे विहंगम, दुर्लभ, अलौकिक दृश्य!

इसलिए हे ख़ुदा! बस इतनी-सी मासूम तमन्ना है मेरी कि हर माह चुनाव हों. बार-बार हों. क्योंकि यही वो समय है जब, सब अपनी गलती मान लेते हैं. झुकने को तैयार रहते हैं. सौहार्द्र भाव दिखता है. लड़ाई-झगड़े नहीं होते. आदर-भाव की गंगा-जमुना सर-सर-सर बहती भावनाओं को जलमग्न कर देती है.

भोली जनता का क्या है वो तो वफ़ा की सलोनी मूरत है. हंस-हंसकर वोट देते हुए चैनल पे फोटू भेज प्रसन्न हो जाती है. इससे ज्यादा और कर ही क्या सकती है! इसका दिल भी बड़ा ख़ूबसूरत है जिसका एक ही फेवरिट सॉन्ग है... "इसलिए तुझसे मैं प्यार करूं कि तू एक बादल आवारा.. जनम जनम से हूं साथ तेरे, है नाम मेरा जल की धारा."

चुनाव की नाव, चलती रहे!

दिल की सुनें या दिमाग़ की.. जेब तो जनता की ही ढीली होनी है. हक़ीक़त की राहें बड़ी पथरीली हैं रे.

प्यारे देशवासियों, पिलीज़ इस ब्रह्म वाक्य को कभी न भूलना-'चुने जोई, भरे वोई'

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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