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स्कूल, पिटाई और हलवा!

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 14 नवम्बर, 2018 05:16 PM
  • 14 नवम्बर, 2018 05:16 PM
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उन बच्चों में से दस प्रतिशत के भविष्य का खाका तो बस एक थप्पड़ ही तत्काल खींच देता था लेकिन बाकी नब्बे प्रतिशत के लिए यह क्रम किसी डेली सोप की तरह चला करता था, हर एपिसोड के अंतिम दृश्य में सबका मुंह खुला का खुला रह जाता था. क्या? क्या? क्या? (आज फिर पिटा?) की साइलेंट ध्वनि के साथ.

उन दिनों अच्छे स्कूलों का एक ही मतलब हुआ करता था... न्यूनतम छुट्टियां, जमकर पढ़ाई और जबरदस्त अनुशासन (+ कुटाई किसी inbuilt app की तरह). आजकल की तरह नहीं कि जितनी ज्यादा फ़ीस, उतना बढ़िया स्कूल! और हां, ये कुटाई भी आवश्यकता पड़ने पर पर्याप्त समय लेकर पूरी तसल्ली से ऐसे की जाती थी कि क़ब्र में उतरते समय तक के लिए उसका कलर्ड नक़्शा बालक के ज़हन में छप जाए! मज़ेदार (ही, ही अब लग रही) बात ये थी कि बच्चों को अपने लक्षणों और बदलते मौसम को देख पहले से ही ज्ञात होता था कि आज किसका खेला जोरदार होगा!

वो बचपन भी कितना प्यारा था

बड़े सर के आते ही वातावरण में गंभीर हवाएं चलने लगती थीं. उड़े हुए चेहरों को देख किसी नए उत्सुक बच्चे को उनके बारे में मुंह पर हाथ रख जानकारी कुछ यूं दी जाती थी कि जैसे कोई कह रहा हो, "मुख्तार सिंह का नाम सुना है तुमने? उसके नाम से शहर की पुलिस भी कांपती है और पब्लिक भी." या फिर वही गब्बरी आवाज़ गूंजती थी, "यहां से पचास-पचास कोस दूर..." कुल मिलाकर स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में नज़र आती थी. यद्यपि एक करारे थप्पड़ की मासूम ध्वनि के पश्चात बुहहाआआ, बुहहाआआ की दर्दीली चीत्कार इसी नीरवता को पल भर में तहस-नहस कर कक्षा का इतिहास और भूगोल एक साथ बदल देती थी. उन बच्चों में से दस प्रतिशत के भविष्य का ख़ाक़ा तो बस एक थप्पड़ ही तत्काल खींच देता था लेकिन बाकी नब्बे प्रतिशत के लिए यह क्रम किसी डेली सोप की तरह चला करता था, जहां बीस-पच्चीस एपिसोड तक तो स्टोरी लाइन आगे बढ़ती ही नहीं थी लेकिन हर एपिसोड के अंतिम दृश्य में सबका मुंह खुला का खुला रह जाता था. क्या? क्या? क्या? (आज फिर पिटा?) की साइलेंट ध्वनि के साथ.

मुख़्तार सिंह के जाने के बाद किसी परंपरागत रस्म की तरह बाकी बच्चे उस कुटे-पिटे बच्चे को पुचकारते हुए, अपनी दर्दभरी कहानियां...

उन दिनों अच्छे स्कूलों का एक ही मतलब हुआ करता था... न्यूनतम छुट्टियां, जमकर पढ़ाई और जबरदस्त अनुशासन (+ कुटाई किसी inbuilt app की तरह). आजकल की तरह नहीं कि जितनी ज्यादा फ़ीस, उतना बढ़िया स्कूल! और हां, ये कुटाई भी आवश्यकता पड़ने पर पर्याप्त समय लेकर पूरी तसल्ली से ऐसे की जाती थी कि क़ब्र में उतरते समय तक के लिए उसका कलर्ड नक़्शा बालक के ज़हन में छप जाए! मज़ेदार (ही, ही अब लग रही) बात ये थी कि बच्चों को अपने लक्षणों और बदलते मौसम को देख पहले से ही ज्ञात होता था कि आज किसका खेला जोरदार होगा!

वो बचपन भी कितना प्यारा था

बड़े सर के आते ही वातावरण में गंभीर हवाएं चलने लगती थीं. उड़े हुए चेहरों को देख किसी नए उत्सुक बच्चे को उनके बारे में मुंह पर हाथ रख जानकारी कुछ यूं दी जाती थी कि जैसे कोई कह रहा हो, "मुख्तार सिंह का नाम सुना है तुमने? उसके नाम से शहर की पुलिस भी कांपती है और पब्लिक भी." या फिर वही गब्बरी आवाज़ गूंजती थी, "यहां से पचास-पचास कोस दूर..." कुल मिलाकर स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में नज़र आती थी. यद्यपि एक करारे थप्पड़ की मासूम ध्वनि के पश्चात बुहहाआआ, बुहहाआआ की दर्दीली चीत्कार इसी नीरवता को पल भर में तहस-नहस कर कक्षा का इतिहास और भूगोल एक साथ बदल देती थी. उन बच्चों में से दस प्रतिशत के भविष्य का ख़ाक़ा तो बस एक थप्पड़ ही तत्काल खींच देता था लेकिन बाकी नब्बे प्रतिशत के लिए यह क्रम किसी डेली सोप की तरह चला करता था, जहां बीस-पच्चीस एपिसोड तक तो स्टोरी लाइन आगे बढ़ती ही नहीं थी लेकिन हर एपिसोड के अंतिम दृश्य में सबका मुंह खुला का खुला रह जाता था. क्या? क्या? क्या? (आज फिर पिटा?) की साइलेंट ध्वनि के साथ.

मुख़्तार सिंह के जाने के बाद किसी परंपरागत रस्म की तरह बाकी बच्चे उस कुटे-पिटे बच्चे को पुचकारते हुए, अपनी दर्दभरी कहानियां जमकर साझा करते कि उसका ग़म कुछ हल्क़ा हो सके. भाईचारे और वातावरण को सौहार्द्रपूर्ण बनाये रखने में क्षणिक एकता बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी. प्रायः ये घटनायें भीतर-ही- भीतर दबा ली जातीं थीं और घरों तक इस प्रकार के ऐतिहासिक किस्से तब ही पहुंचते थे जबकि उनके साक्ष्य लाख बार धो लेने के बाद भी चेहरे पर टिके रहते या फिर अंक सूची में से अंक नदारद होते और बस सूजे मुंह के साथ सन्नाटा लिए ख़ाली 'सूची' ही घर पहुंचती.

इधर मां सूजी का हलवा लिए इंतज़ार कर रही होती थी. परीक्षा परिणाम हाथ में आते ही वो हलवे में काजू-बादाम-किशमिश का गद्दा बनाना भूल जातीं. बेचारा बच्चा उस दिन चुपचाप ही बिना मेवे वाला हलवा गटक अपना गुजारा कर लेता.  

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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