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Pillow Fighting अब रिंग में पहुंच गई है, जिसका खून न खौले, खून नहीं वो पानी है!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 24 नवम्बर, 2021 05:31 PM
  • 24 नवम्बर, 2021 05:31 PM
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पिलो फाइटिंग बेडरूम से बाहर निकलकर रिंग की तरफ कूच कर गयी है. पिलो फाइट चैंपियनशिप (पीएफसी) जनवरी 2022 में फ्लोरिडा में अपना पहला लाइव, पे-पर-व्यू इवेंट आयोजित करेगी जिसपर पूरी दुनिया की नजर है. अब वो वक़्त आ गया है जब भारत को पिलो फाइट को कहीं ज्यादा गंभीरता से लेना चाहिए.

ईश्वर ने सबसे पहले दुनिया बनाई. फिर अमीबा बना और एक वक़्त वो भी आया जब इंसान की रचना हुई. इंसान को धरती पर भेजा गया. एंथ्रोपोलॉजी कहती है कि इंसान पहले समूह में रहता और शिकार करता था. फिर जैसे जैसे एवोल्यूशन हुआ समूह टूटे और इंसान ने न्यूक्लियर रहने को तरजीह दी. इस समय तक इंसान स्टोन टूल बनाना सीख गया था इसलिए छोटे जानवरों का शिकार कर वो पेट पालने लग गया. स्टोन टूल के बाद पहिया बना और चूंकि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है एक समय वो भी आया जब मनुष्य ने अपने लिए तकिया का निर्माण किया. कोई कुछ कहे तकिया होती बड़ी सही चीज है. मतलब इसके जैसे गुण हैं दुनिया की लिखन्तु बिरादरी 1000 या 2000 शब्दों के लेख नहीं 180 से लेकर 250 पेज तक की किताब लिख दें. वाक़ई तमाम गुण हैं तकिया में. इंसान कुंवारा हो और प्यार में हो तो तकिया को महबूब बनाकर सीने से लगा लें. उदास हो तो मुंह को इसपर रखे और रोकर मन हल्का कर लें. गुस्सा आए तो इसपर एक आत दो पंच जड़कर थोड़ी राहत पा ले.

तकिया सिर्फ गुलाबी सपने देखने के लिए नहीं है. तकिया की एक खूबी ये भी है कि ये जहां एक तरफ काफी सहिष्णु है तो वहीं दूसरी तरफ ये हद दर्जे की ढीठ भी है. तमाम गुणों को दरकिनार करते हुए तकिया का यही गुण शायद विदेशियों को समझ आया है.

घर के बंद कमरों में खेली जाने वाली पिलो फाइट का विस्तार हुआ है इसलिए इसपर चर्चा होनी चाहिए

कह सकते हैं कि शायद यही वो कारण हो जिसके चलते क्यूट सी 'पिलो' को फाइटिंग की कैटेगरी में लाया गया है और पिलो फाइटिंग जिसे यहां भारत में अब तक जीजा साली, पति पत्नी, भाई- बहन, ननद- भौजाई के बीच का तफरीह मजाक समझा गया उसे स्पोर्ट्स में न केवल लाया गया बल्कि जिसे अब कॉम्बैट स्पोर्ट्स एरीना में एंट्री मिल गयी है.

मतलब उपरोक्त बातों में मॉरल ऑफ द स्टोरी ये है...

ईश्वर ने सबसे पहले दुनिया बनाई. फिर अमीबा बना और एक वक़्त वो भी आया जब इंसान की रचना हुई. इंसान को धरती पर भेजा गया. एंथ्रोपोलॉजी कहती है कि इंसान पहले समूह में रहता और शिकार करता था. फिर जैसे जैसे एवोल्यूशन हुआ समूह टूटे और इंसान ने न्यूक्लियर रहने को तरजीह दी. इस समय तक इंसान स्टोन टूल बनाना सीख गया था इसलिए छोटे जानवरों का शिकार कर वो पेट पालने लग गया. स्टोन टूल के बाद पहिया बना और चूंकि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है एक समय वो भी आया जब मनुष्य ने अपने लिए तकिया का निर्माण किया. कोई कुछ कहे तकिया होती बड़ी सही चीज है. मतलब इसके जैसे गुण हैं दुनिया की लिखन्तु बिरादरी 1000 या 2000 शब्दों के लेख नहीं 180 से लेकर 250 पेज तक की किताब लिख दें. वाक़ई तमाम गुण हैं तकिया में. इंसान कुंवारा हो और प्यार में हो तो तकिया को महबूब बनाकर सीने से लगा लें. उदास हो तो मुंह को इसपर रखे और रोकर मन हल्का कर लें. गुस्सा आए तो इसपर एक आत दो पंच जड़कर थोड़ी राहत पा ले.

तकिया सिर्फ गुलाबी सपने देखने के लिए नहीं है. तकिया की एक खूबी ये भी है कि ये जहां एक तरफ काफी सहिष्णु है तो वहीं दूसरी तरफ ये हद दर्जे की ढीठ भी है. तमाम गुणों को दरकिनार करते हुए तकिया का यही गुण शायद विदेशियों को समझ आया है.

घर के बंद कमरों में खेली जाने वाली पिलो फाइट का विस्तार हुआ है इसलिए इसपर चर्चा होनी चाहिए

कह सकते हैं कि शायद यही वो कारण हो जिसके चलते क्यूट सी 'पिलो' को फाइटिंग की कैटेगरी में लाया गया है और पिलो फाइटिंग जिसे यहां भारत में अब तक जीजा साली, पति पत्नी, भाई- बहन, ननद- भौजाई के बीच का तफरीह मजाक समझा गया उसे स्पोर्ट्स में न केवल लाया गया बल्कि जिसे अब कॉम्बैट स्पोर्ट्स एरीना में एंट्री मिल गयी है.

मतलब उपरोक्त बातों में मॉरल ऑफ द स्टोरी ये है कि अगर कल हम ईएसपीएन, स्टार स्पोर्ट्स, सोनी लिव पर दो हट्टे कट्टे सिक्स पैक वाले पहलवानों को हाथ में तकिया लिए एक दूसरे पर टूटते देखें. तो हमें मौज नहीं लेनी चाहिए बल्कि सीरियस होकर उस टूर्नामेंट को देखना चाहिए और खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाना चाहिए.

बात आगे बढ़ाने से पहले ये बताना बहुत जरूरी है कि मौजूदा वक्त में जब क्रांति की सारी इबारतें विदेशों में लिखी जा रही हों. कल अगर ओलंपिक या कॉमन वेल्थ खेलों में हम तकिया फाइट न केवल देखें, बल्कि ये देखें कि और स्पोर्ट्स की तरह अमेरिका, रूस, चीन, यूके, जैसे देश सिर्फ एक दूसरे पर तकिया मार मरकर गोल्ड पर अपनी दावेदारी ठोंक रहे हों तो भी हमें किसी भी प्रकार की हैरत में नहीं पड़ना चाहिए.

वाक़ई कितना अजीब है ये देखना कि पिलो फाइट को अगर किसी ने सीरियसली लिया है तो वो विदेशी हैं. ये एक ऐसा खेल था जिसका उदगम हिंदुस्तान में होना चाहिए था. भारत में आज शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां पिलो फाइट न होती हो. सवाल ये है कि क्या हम भारतीयों ने पिलो फाइट को महज हंसी ठिठोली या अपना गुस्सा निकालने के लिए लिया?

आखिर क्यों पिलो फाइट का टूर्नामेंट कराने का विचार हम भारतीयों को नहीं आया? यकीन मानिए ये वो खेल था जिसके विषय में न तो कभी हमने सोचा और न ही कभी सोचने की जहमत उठाई. गर जो उठाई होती तो टूर्नामेंट फ्लोरिडा में न होकर दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, पुणे, भोपाल, उज्जैन या बेंगलुरु में हो रहा होता.

अब जबकि पिलो फाइटिंग जाने माने स्पोर्ट्स में शामिल हो गयी है तो पत्नी प्रताड़ित पतियों से लेकर देश की सभी सास बहू, मां बेटी, जीजा, साली को मैदान में आ जाना चाहिए और प्रैक्टिस शुरू कर देनी चाहिये. वो खेल जो उन्होंने अपने सोने पसंद के साथी के साथ बंद कमरों या फिर खुले हॉलो में खेला है अब वही खेल उन्हें सुर्खियां दिलाएगा.

बहरहाल हम फिर इस बात को कह रहे हैं कि वो तो जानकारी का अभाव ही था. वरना मजाल थी कि गोल्ड से लेकर ब्रॉन्ज तक कोई भी दूसरा मुल्क भारत के सामने अपनी दावेदारी ठोंक पाता.इस खेल में भारत का बच्चा बच्चा अच्छा है बस उसे मौका मिलने की देर है.

कह सकते हैं कि पिलो फाइटिंग के मामले में अगर किसी आम भारतीय को मौका दे दिया गया तो चाहे वो मैडल हो या कप कुछ भी भारत से बाहर नहीं जाएगा. चाहे यूपी बिहार के लोग हों या फिर असम और बंगाल के सभी तू सेर तो मैं सवा सेर की कहावत को चरितार्थ करेंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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