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जल्द ही रिलीज हो सकती है ये फिल्म, 'जब तेल बना अंगारा'

    • अश्विनी कुमार
    • Updated: 22 मई, 2018 10:55 AM
  • 21 मई, 2018 07:05 PM
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कर्नाटक चुनाव के ठीक बाद जिस तरह पेट्रोल पर सियासत तेज हुई है लगता है जल्द ही एक फिल्म आएगी जिसमें पेट्रोल खुद सबसे बदला लेता हुआ नजर आएगा.

भारतीय राजनीति के थियेटर में 'Now Showing' के नीचे का पोस्टर बदल गया है. पहले जहां 'कर्नाटक का नाटक' चस्पा था, उसकी जगह अब 'जब तेल बना अंगारा-2' फिल्म ने ले ली है. नाम से किसी सी-ग्रेड फिल्म का अहसास हो सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं. ये एक सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म है. अगर आपको 2012-13 के वर्षों की याद हो, तो तब इस फिल्म का पहला भाग आया था. फिल्म खूब हिट रही थी. मनमोहन सरकार की चूलें हिला गई थी. कहानी में कोई बदलाव नहीं है. बस दोनों मुख्य किरदारों ने आपस में रोल बदल लिए हैं.

राजनीति का 'कर्नाटक राउंड' जीतने वाले विपक्ष के लिए तेल की अंगार से पैदा ये आंच कलेजे पर ठंडक डालने वाली है. विपक्ष के पास 2013 का बताया जा रहा एक वीडियो क्लिप है, जिसमें पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि- जिस तरह से पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए हैं, ये सरकार की शासन चलाने की नाकामी का जीता-जागता सबूत है. देश की जनता के अंदर भारी आक्रोश है. मैं आशा करूंगा कि प्रधानमंत्री जी देश की स्थिति को गंभीरता से लेंगे. ठीक यही डायलॉग अब कांग्रेसी गुनगुना रहे हैं.

कर्नाटक चुनाव के बाद जिस तरह पेट्रोल के दाम बढ़े इसके लिए मोदी सरकार की आलोचना शुरू हो गयी है.

मोदी जी भी कई बार फालतू के पंगे ले लेते हैं. चार साल पहले एक पंगा पाल लिया था. कच्चे तेल की घटती कीमत को खुद की किस्मत से कनेक्ट कर दिया था. तब तेल की राजनीति और तेल का अर्थशास्त्र समझने वाले भी भौंचक थे. और मीडिया वाले भी विस्मित कि तेल की कीमत घटने-बढ़ने की वजहों में मोदी जी के 'किस्मत फैक्टर' को कहां समायोजित करें? अब बढ़ती कीमत पर विपक्षी उनकी उसी किस्मत को कोस रहे हैं. वैसे भी चार साल का काल राजनीति में बहुत बड़ा होता है. भांति-भांति के मुगालतों के बीच खुशकिस्मती कब बदकिस्मती में बदलती चली जाती है, पता...

भारतीय राजनीति के थियेटर में 'Now Showing' के नीचे का पोस्टर बदल गया है. पहले जहां 'कर्नाटक का नाटक' चस्पा था, उसकी जगह अब 'जब तेल बना अंगारा-2' फिल्म ने ले ली है. नाम से किसी सी-ग्रेड फिल्म का अहसास हो सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं. ये एक सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म है. अगर आपको 2012-13 के वर्षों की याद हो, तो तब इस फिल्म का पहला भाग आया था. फिल्म खूब हिट रही थी. मनमोहन सरकार की चूलें हिला गई थी. कहानी में कोई बदलाव नहीं है. बस दोनों मुख्य किरदारों ने आपस में रोल बदल लिए हैं.

राजनीति का 'कर्नाटक राउंड' जीतने वाले विपक्ष के लिए तेल की अंगार से पैदा ये आंच कलेजे पर ठंडक डालने वाली है. विपक्ष के पास 2013 का बताया जा रहा एक वीडियो क्लिप है, जिसमें पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि- जिस तरह से पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए हैं, ये सरकार की शासन चलाने की नाकामी का जीता-जागता सबूत है. देश की जनता के अंदर भारी आक्रोश है. मैं आशा करूंगा कि प्रधानमंत्री जी देश की स्थिति को गंभीरता से लेंगे. ठीक यही डायलॉग अब कांग्रेसी गुनगुना रहे हैं.

कर्नाटक चुनाव के बाद जिस तरह पेट्रोल के दाम बढ़े इसके लिए मोदी सरकार की आलोचना शुरू हो गयी है.

मोदी जी भी कई बार फालतू के पंगे ले लेते हैं. चार साल पहले एक पंगा पाल लिया था. कच्चे तेल की घटती कीमत को खुद की किस्मत से कनेक्ट कर दिया था. तब तेल की राजनीति और तेल का अर्थशास्त्र समझने वाले भी भौंचक थे. और मीडिया वाले भी विस्मित कि तेल की कीमत घटने-बढ़ने की वजहों में मोदी जी के 'किस्मत फैक्टर' को कहां समायोजित करें? अब बढ़ती कीमत पर विपक्षी उनकी उसी किस्मत को कोस रहे हैं. वैसे भी चार साल का काल राजनीति में बहुत बड़ा होता है. भांति-भांति के मुगालतों के बीच खुशकिस्मती कब बदकिस्मती में बदलती चली जाती है, पता कहां चलता.

ये देश भी दिलचस्प है. बड़े-बड़े राष्ट्रीय अखबारों में विज्ञापन छपते हैं. वशीकरण के. प्रेमी को वश में करने के. प्रेमिका को वश में करने के. और पता नहीं किस-किस को वश में करने के? बीजेपी वालों को पकड़ना चाहिए इन वशीकरण में माहिर उस्तादों को. दो विकल्प देने चाहिए- 1. तेल के दामों का वशीकरण करो या 2. बंद करो अपनी ये दुकान.

सॉरी. दुकान बंद करने के लिए नहीं कह सकते. आखिर ये भी (वशीकरण) तो एक रोजगार है. उसी तरह का, जैसे पकौड़े तलना. वैसे भी राजनीति वालों को ये वशीकरण वाले क्यों बुरे लगें? हैं तो दोनों एक ही कुनबे के. राजनीति भी तो वशीकरण ही है. अच्छे दिन- गारंटी के साथ. काला धन वापसी (गड़ा धन पढ़ें) - गारंटी के साथ. रोजगार- गारंटी के साथ. गारंटी वाले बाबाओं की जय हो.

बताया जा रहा है कि पेट्रोल के दाम अभी और बढ़ेंगे

अभी-अभी बात पकौड़े की आई थी, तो बताते चलें कि पकौड़े का भी 'तेल' से कनेक्शन है. दूसरे वाले तेल से. हालांकि तेल के ये दोनों ही प्रकार पकाने की ही सामग्री हैं. एक में पकौड़ा पकता है, दूसरे में राजनीति पकती है. पक भी रही है. पहले (खाद्य) तेल में पकौड़ा पकाकर सत्ता पक्ष दोबारा वोट मांग रहा है, दूसरे (अखाद्य) तेल में राजनीति पकाकर विपक्षी वोट पका रहे हैं. देश दोनों ही तेलों में पक रहा है.

एक देसी मुहावरा है- तेल निकालना. राष्ट्र की सीमाएं बदल जाती हैं, इस मुहावरे का मौजूपन नहीं बदलता. गौर कीजिए. तेल निकालने वाले हर कहीं समृद्ध हैं और अपना तेल निकलवाने वाले हर जगह दरिद्र. अरब के शेख तेल निकालकर शोहरतमंद हो जाते हैं. हमारी तेल कंपनियां उपभोक्ताओं के तेल निकालकर दौलतमंद हो रही हैं. तो विपक्षी दल सत्ता पक्ष की राजनीति का तेल निकालकर वोट बैंक भरने की जुगत में है.

जबकि जिनका तेल निकलता है, उनकी दुर्दशा भी हर कहीं एकसमान होती है. तेल निकल-निकलकर अरब की धरती कुछ समय में बेकार और बंजर होने वाली है. हम भारतीय तेल निकलवा-निकलवा कर बेजान हो चुके हैं. हमारा देश कच्चा तेल खरीदने में अपना तेल निकलवाकर मौद्रिक कुपोषण का शिकार हो रहा है. आप ठीक समझे हैं. दुनिया तेल है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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