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तो क्या सारथी ऐप के बाद ट्रेनों के गुलाम मग्गे आजाद होंगे, वो सफेद चादरें कलरफुल होंगी?

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 16 जुलाई, 2017 06:04 PM
  • 16 जुलाई, 2017 06:04 PM
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तमाम मूलभूत चीजों को भूलकर भारतीय रेलवे ने एक इंटीग्रेटेड ऐप 'सारथी' लॉन्च किया है. सारथी, आपके रेलवे से जुड़े हर मसले का हल कर देगा. लेकिन जो चीजें तमाम यात्रियों को परेशान किए हुए हैं उनका क्या ??

मुझे दो काम बहुत अच्छे लगते हैं एक है खाना और दूसरा है घूमना. जब मैं कुछ नहीं कर रहा होता हूं तो आप मुझे इन्हीं दोनों में से किसी एक काम को करते हुए पाएंगे. मेरा मानना है है कि खाने और घूमने से व्यक्ति ईश्वर के ज्यादा करीब अनुभव करता है. इस कारण मेरे फोन में ऐसी कई सारी ऐप हैं जिससे मुझे घूमने और खाने पीने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी होती है.

खैर, बात अभी-अभी कुछ देर पहले की है काम से उकताकर मैंने अपने फेसबुक का रुख किया तो न्यूज़ फीड में एक दोस्त का पोस्ट आया. दोस्त भी मेरी ही तरह घूमने-फिरने और खाने-पीने के शौकीन हैं. पोस्ट देखा तो पता चला कि भारतीय रेलवे ने एक इंटीग्रेटेड ऐप 'सारथी' लॉन्च किया है.

सारथी, आपको रेलवे से जुड़े हर मसले का हल कर देगा. मतलब ये कि इस ऐप के जरिये इंडियन रेलवे ने 'गागर में सागर' भरने का काम किया है. कहा जा सकता है कि, सारथी एक ऐसी ऐप है जिससे आप रेल टिकट बुक करा पाएंगे, पूछताछ कर पाएंगे और तो और इससे आप अपनी रेलवे से जुड़ी शिकायत भी दर्ज करा पाएंगे.

सारथी, रेलवे की वो ऐप है जिससे उसने गागर में सागर भरने का काम किया है

चूंकि बात रेलवे की है, इसलिए आज रेल और रेलवे स्टेशनों पर ही बात होगी. मैंने अब तक ट्रेन में कई हजार किलोमीटर का सफर किया है. मैं कुछ बातों और चीजों को लेकर से बहुत आहत हूं.

पहली बात है ट्रेन के बाथरूम में मोटी- मोटी चेनों से बंधे मग्गे और दूसरा एसी कम्पार्टमेंट में बंटने वाले कम्बल और चादरें. ट्रेन में बंधे मग्गों ने आपको भी आहत किया होगा और कहीं न कहीं आप भी मेरी बात से सहमत ही होंगे. ध्यान रहे कि चाहे मैं हूं या आप, 'भारतीय रेल' के विषय में हम अक्सर ही अखबारों में पढ़ते हैं कि अब ट्रेनों में रेडी टू ईट खाना मिलेगा, स्टेशन पर फूड कोर्ट बनेंगे, वाई फाई लगेगा, फेसबुक और ट्विटर पर...

मुझे दो काम बहुत अच्छे लगते हैं एक है खाना और दूसरा है घूमना. जब मैं कुछ नहीं कर रहा होता हूं तो आप मुझे इन्हीं दोनों में से किसी एक काम को करते हुए पाएंगे. मेरा मानना है है कि खाने और घूमने से व्यक्ति ईश्वर के ज्यादा करीब अनुभव करता है. इस कारण मेरे फोन में ऐसी कई सारी ऐप हैं जिससे मुझे घूमने और खाने पीने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी होती है.

खैर, बात अभी-अभी कुछ देर पहले की है काम से उकताकर मैंने अपने फेसबुक का रुख किया तो न्यूज़ फीड में एक दोस्त का पोस्ट आया. दोस्त भी मेरी ही तरह घूमने-फिरने और खाने-पीने के शौकीन हैं. पोस्ट देखा तो पता चला कि भारतीय रेलवे ने एक इंटीग्रेटेड ऐप 'सारथी' लॉन्च किया है.

सारथी, आपको रेलवे से जुड़े हर मसले का हल कर देगा. मतलब ये कि इस ऐप के जरिये इंडियन रेलवे ने 'गागर में सागर' भरने का काम किया है. कहा जा सकता है कि, सारथी एक ऐसी ऐप है जिससे आप रेल टिकट बुक करा पाएंगे, पूछताछ कर पाएंगे और तो और इससे आप अपनी रेलवे से जुड़ी शिकायत भी दर्ज करा पाएंगे.

सारथी, रेलवे की वो ऐप है जिससे उसने गागर में सागर भरने का काम किया है

चूंकि बात रेलवे की है, इसलिए आज रेल और रेलवे स्टेशनों पर ही बात होगी. मैंने अब तक ट्रेन में कई हजार किलोमीटर का सफर किया है. मैं कुछ बातों और चीजों को लेकर से बहुत आहत हूं.

पहली बात है ट्रेन के बाथरूम में मोटी- मोटी चेनों से बंधे मग्गे और दूसरा एसी कम्पार्टमेंट में बंटने वाले कम्बल और चादरें. ट्रेन में बंधे मग्गों ने आपको भी आहत किया होगा और कहीं न कहीं आप भी मेरी बात से सहमत ही होंगे. ध्यान रहे कि चाहे मैं हूं या आप, 'भारतीय रेल' के विषय में हम अक्सर ही अखबारों में पढ़ते हैं कि अब ट्रेनों में रेडी टू ईट खाना मिलेगा, स्टेशन पर फूड कोर्ट बनेंगे, वाई फाई लगेगा, फेसबुक और ट्विटर पर रेलवे की सारी जानकारी मिलेगी, काम पेपरलेस होगा और तो और अब ये सारथी वाली ऐप भी लोगों के बीच चर्चा का केंद्र बन गयी है.

अब क्या कोई माई का लाल या मिनिस्टर, ब्यूरोक्रेट ये दावा कर सकता है, ये बता सकता है कि वो किसी भी पल रेल शौचालयों में लगे गुलाम मग्गों को जंज़ीरों से आज़ाद कर देगा. जी हां, सही सुना आपने. आज भी ये गुलामी की जंजीरों में फंसे मग्गे, न सिर्फ खुद परेशान हैं, बल्कि इनके चलते एक यात्री को भी काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

उम्मीद पर दुनिया कायम है, मुझे पूरी उम्मीद है कि एक न एक दिन ये गुलाम मग्गे भी आजाद होकर इतिहास रचेंगे. मैं सरकार से मांग करता हूं कि वो सदन में कोई ऐसा बिल पास करे जिससे गुलामी की बंदिशों में फंसे इन मग्गों को पूर्ण स्वराज मिल जाए और साथ ही आजादी भी.

इसी तरह हो सकता है कि मेरी चिंता के दूसरे बिन्दु पर भी आप मेरे साथ हों. निश्चित ही आपने ट्रेन के एसी कोच में यात्रा की होगी और तब आपने अनुभव किया होगा कि वहां आपको ओढ़ने बिछाने के लिए अटेंडेंट द्वारा भूरे रंग का कम्बल और सफेद रंग की चादर दी जाती है.

रेलवे ने ऐप तो लॉन्च कर दी मगर उन बातों को भूल गया जो एक आदमी से जुड़ी हुई हैं

मैं अपनी बात की शुरुआत, पहले कम्बल को ध्यान में रखकर करूंगा. यदि आप इन कंबलों को देखें तो मिलेगा कि ये खुद कई बरसों से गंदे पड़े हैं जिन्हें रेलवे द्वारा, नेप्थिलीन की गोली डाल-डालकर जिंदा रखने का अथक प्रयास किया जा रहा है. हालांकि बहुत कम ही लोग है जो इन्हें ओढ़ते हैं और इनका ज्यादातर इस्तेमाल तकिया बनाने के लिए ही किया जाता है. अब अगर एसी की शीतल हवा से लगने वाली ठंड के चलते किसी ने इन्हें ओढ़ लिया तो फिर अगले एक हफ्ते तक वो बेचारा कुछ ओढ़ने काबिल नहीं बचता. इनको ओढ़कर एक करवट के बाद ही ऐसा लगता है कि किसी ने पूरे शरीर में रंदा चला दिया हो. अगर आपने लम्बी दूरी की यात्रा के वक़्त इसे कभी ओढ़ा होगा तो आप होने वाली खुजली से वाकिफ होंगे.

अब आते हैं उन सफेद चादरों पर. रेलवे की चादरें सफेद क्यों होती हैं यही मेरी चिंता का सबसे बड़ा विषय है. जी हां, क्यों नहीं इन्हें रंगीन किया गया कभी इसपर विचार करियेगा. महसूस करिए उस पल को जब आप ट्रेन के एसी कोच में हों और रात का समय हो, वो समय जब ज्यादातर लोग सो रहे हों और डिम ब्लू लाइट के बीच उन्होंने वो सफेद चादर ओढ़ी हो. मैं आपका नहीं जानता मगर मुझे महसूस होता है कि मैं किसी ऐसी जगह हूं जहां मुर्दे लेटे हैं. ये एक ऐसा दृश्य होता है जिसको देखकर मजबूत से मजबूत ह्रदय वाले व्यक्ति को डर लग जाये.

अंत में, मैं रेलवे से अनुरोध करूंगा कि वो भले ही ऐप एक आध दो साल के बाद लॉन्च करे मगर पहले इन सफेद चादरों, इन बदबूदार कंबलों को बदले, गुलामी की जिंदगी जी रहे उन मग्गों को आजादी दे. बात बहुत सीधी है, पहले रेलवे को ये चाहिए कि वो उन चीजों पर काम करे जिनसे एक आदमी अपने को जोड़ पाता है. वैसे भी मग्गा, चादर कम्बल ये मूलभूत चीजें हैं रेलवे का इसपर ध्यान न देना और ऐप को लांच करके 'हैप्पी जर्नी' कहना मुझे व्यक्तिगत रूप से बड़ा अजीब लग रहा है.  

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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