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भारतीय राजनीति का ‘चींटी काल’

    • अश्विनी कुमार
    • Updated: 08 जून, 2018 01:45 PM
  • 08 जून, 2018 01:45 PM
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अपने आकार और इतिहास को लेकर बीजेपी-कांग्रेस हाथी होने का दावा कर सकती हैं, लेकिन उन्हें भी समझ में आ गया है कि 2019 शायद ‘गजराज के राज’के लिए नहीं, बल्कि ‘चींटी काल’ के लिए जाना जाएगा.

कहावत ही सुनी थी. देखा नहीं था कि एक चींटी अपनी पे आ जाए, तो हाथी का भी काम तमाम कर दे. उसे औकात दिखा दे. कहानी भारतीय राजनीति में जस-की-तस दोहराई जा रही है. दो हाथियों को चीटियों के अलग-अलग झुंड ने घेर रखा है. और इन दोनों हाथियों की हालत ये है कि वो चीटियों के आगे मिन्नतें कर रहे हैं. कभी न सताने के लिए, तो कभी जान बख्श देने के लिए.

एक ग्रैंड ओल्ड हाथी (कांग्रेस) है. इसने समय रहते अपनी दुर्बलता का आकलन कर लिया. समझदारी दिखाई. चीटियों के कई समूहों (क्षेत्रीय पार्टियों) से कह दिया कि आपका इलाका (यूपी, बिहार, बंगाल सरीखे राज्य) आपको मुबारक. हम वहां ज्यादा दखल नहीं देंगे. प्लीज हमारे इलाकों में हमारी जिंदगी थोड़ी सरल कर दो. और हो सके, तो अपने इलाके में बस पांव रखने भर की (महागठबंधन हुआ तो यूपी में 8-10 सीटें ही तो कांग्रेस को मिलती दिख रही है) जगह दे दो.

भारतीय राजनीति में चींटी और हाथी वाली कहावत सच हो रही है

देश के दक्षिण में इसी बूढ़े हाथी की चाहत दोबारा राज करने की थी. युवा और बलशाली हाथी (बीजेपी) ने सत्ता की दहलीज तक दस्तक दे दी. जान बची तो लाखों पाए. बूढ़ा हाथी चींटियों (जेडीएस) को सत्ता सौंप भाग खड़ा हुआ. मदमस्त गजराज काबू में जरूर आ गया, लेकिन हाथ मलते तो दोनों ही रह गए. कर्नाटक में चीटियों की सत्ता स्थापित हो गई.

नोट कर लीजिए, कर्नाटक ‘चींटी सत्ता’ की शुरुआत को लेकर टर्निंग प्वाइंट है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कुछ सीटों का शक्कर देकर चीटियों को पटाने की कवायद शुरू हो चुकी है. आकांक्षा दोहरे लाभ की है. एक तो चीटियों के खतरे को टालना (वोट कटने से रोकना) और दूसरा चुनाव बाद इन्हीं के सहारे सत्ता प्राप्ति को सुगम बनाना. तो मानेंगे न आप, राजनीति के इस ‘चींटी...

कहावत ही सुनी थी. देखा नहीं था कि एक चींटी अपनी पे आ जाए, तो हाथी का भी काम तमाम कर दे. उसे औकात दिखा दे. कहानी भारतीय राजनीति में जस-की-तस दोहराई जा रही है. दो हाथियों को चीटियों के अलग-अलग झुंड ने घेर रखा है. और इन दोनों हाथियों की हालत ये है कि वो चीटियों के आगे मिन्नतें कर रहे हैं. कभी न सताने के लिए, तो कभी जान बख्श देने के लिए.

एक ग्रैंड ओल्ड हाथी (कांग्रेस) है. इसने समय रहते अपनी दुर्बलता का आकलन कर लिया. समझदारी दिखाई. चीटियों के कई समूहों (क्षेत्रीय पार्टियों) से कह दिया कि आपका इलाका (यूपी, बिहार, बंगाल सरीखे राज्य) आपको मुबारक. हम वहां ज्यादा दखल नहीं देंगे. प्लीज हमारे इलाकों में हमारी जिंदगी थोड़ी सरल कर दो. और हो सके, तो अपने इलाके में बस पांव रखने भर की (महागठबंधन हुआ तो यूपी में 8-10 सीटें ही तो कांग्रेस को मिलती दिख रही है) जगह दे दो.

भारतीय राजनीति में चींटी और हाथी वाली कहावत सच हो रही है

देश के दक्षिण में इसी बूढ़े हाथी की चाहत दोबारा राज करने की थी. युवा और बलशाली हाथी (बीजेपी) ने सत्ता की दहलीज तक दस्तक दे दी. जान बची तो लाखों पाए. बूढ़ा हाथी चींटियों (जेडीएस) को सत्ता सौंप भाग खड़ा हुआ. मदमस्त गजराज काबू में जरूर आ गया, लेकिन हाथ मलते तो दोनों ही रह गए. कर्नाटक में चीटियों की सत्ता स्थापित हो गई.

नोट कर लीजिए, कर्नाटक ‘चींटी सत्ता’ की शुरुआत को लेकर टर्निंग प्वाइंट है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कुछ सीटों का शक्कर देकर चीटियों को पटाने की कवायद शुरू हो चुकी है. आकांक्षा दोहरे लाभ की है. एक तो चीटियों के खतरे को टालना (वोट कटने से रोकना) और दूसरा चुनाव बाद इन्हीं के सहारे सत्ता प्राप्ति को सुगम बनाना. तो मानेंगे न आप, राजनीति के इस ‘चींटी काल’को?

इस भविष्यवाणी को याद कर लीजिए. आने वाला एक साल चीटियों के लिए स्वर्णिम काल होने जा रहा है. शक्कर की डलिया लेकर दोनों गजराज इनके पीछे भागते नजर आएंगे. इनके नाज और नखरे उठाएंगे. और लक्षण तो यही है कि 2019 के नतीजों के बाद या तो चींटियों की सत्ता की पालकी ढोएंगे या फिर बड़ी अच्छी स्थिति रही, तो राज भले ही गजराज का रहे. राजसुख भोगती हुई चीटियां ही नजर आएंगी.

2019 चुनावों को कांग्रेस की एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है

2014 में ‘नए वाले गजराज’ अपने बूते बहुमत का आंकड़ा पाकर मदमस्त हो गए. चीटियों की उपेक्षा शुरू कर दी. दाना-पानी भी बंद किया और उनके छोटे-छोटे बिलों को भी बंद करने की कोशिश की. दम घुटता रहा, लेकिन बेचारी चीटियों ने भी वक्त की नजाकत को समझा. मौन धारण कर लिया. लेकिन मौके की तलाश में रहे. अब एक चींटी (भारत समाज पार्टी) प्रचंड ताकतवर हाथी के सूंड़ के अंदर जाकर, घूमकर और परेशान कर निकल आती है. हाथी विनती करता है. प्लीज चींटी जी अब बस करो. याराने का ख्याल करो. जियो और जीने दो.

महाराष्ट्र, पंजाब, बिहार समेत कई प्रदेशों में घर के अंदर ही बैठी चीटियों के संभावित हमले की आशंका में महाबली गजराज (बीजेपी) दुबले हुए जा रहे हैं. मातोश्री पर जाकर 2 घंटे से ज्यादा बिताते हैं. बिहार की एक चींटी 25 सीटों पर दावा ठोक चुकी है. दूसरी और तीसरी चीटियों की मान ली गई, तो गजराज के हिस्से में 40 सीटों में से सिर्फ 9 सीटें बचती हैं. फिर भी वे चुप हैं. महाराष्ट्र की चींटी अपने सारे उजड़े बिलों का हिसाब मांग रही है. गजराज उनके पुनर्निर्माण का वादा कर रहे हैं. पंजाब की चींटी को पुराने रिश्तों का वास्ता दिया जा रहा है. साथ ही नई ‘दोस्त चीटियों’ की तलाश भी है.

2019 का आम चुनाव लगभग सभी दलों के लिए रोचक साबित होगा

अब कोई ये न कहे कि देश में लोकतंत्र ही चींटी के बराबर रह गया है. दरअसल, अपना लोकतंत्र चींटी जितना नहीं हुआ है. मौजूदा दौर ही ‘लघु राजनीति’ का है. जिसमें सोच-विचार, नीति-रणनीति, एक-दूसरे के लिए मान-सम्मान सबकुछ लघु स्तरीय हो चला है. लघुता के इस दौर का अपना ही मजा है. लघुता के इसी दौर का एक बाय प्रॉडक्ट ये चींटीकाल है. बड़े-बड़ों का काल देख लिया. 2019 के लिए नारा दीजिये-

प्रभुता की नहीं, लघुता की दरकार

इस बार- चींटी सरकार.

हाथी करेगा हाहाकार

चींटियों की होगी सरकार.

एक प्रार्थना : प्लीज ऐसा न समझें कि मैंने किसी की तुलना चींटी से करके उसे नीचा दिखाने की कोशिश की है, बल्कि इसके उलट कोशिश चीटियों की महानता और उनके महत्व को समझाने की है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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