600 से ज्यादा वैज्ञानिकों की टीम और 5 साल का अनवरत प्रयास. नतीजा भारत में बने पहले रीयूजेबल लॉन्च वेहिकल (RLV-TD) का सफल प्रयोग. यह पहली बार है कि इसरो ने पंखों वाले किसी यान के साथ प्रयोग किया है. हालांकि, इस क्षेत्र में इसरो का प्रयोग अभी प्रारंभिक दौर में है. लेकिन ये तो कह ही सकते हैं कि अमेरिका और रूस के बाद भारत तीसरा ऐसा देश बन गया है जिसके पास ऐसी टेक्नोलॉजी है कि वो किसी अंतरिक्ष यान को स्पेस में भेजने के बाद उसे वापस धरती पर उतारने में भी सक्षम है.
वैसे, माना जा रहा है कि असल या कह लीजिए कि स्पेस शटल का जो फाइनल वर्जन होगा उसे हकीकत की जमीन पर उतारने में अभी इसरो को 12 से 15 साल और लगेंगे. जाहिर है दो या तीन प्रयोग और होंगे. फिर भी इसरो का ये प्रयोग खास है. बेहद कम लागत में बड़े-बड़े प्रयोगों को अंजाम देने में माहिर इसरो का ये छोटा कदम भविष्य में स्पेस टेक्नोलॉजी में बड़ी भूमिका निभाने वाला है. खासकर लागत और बेहतर तकनीक के मामले में. बता दें कि RLV-TD को बनाने में 95 करोड़ का खर्च आया है.
स्पेस विज्ञान और कॉस्ट कटिंग..
अंतरिक्ष के क्षेत्र में प्रयोग एक महंगा सौदा है. इसलिए ज्यादातर देश सीधे तौर पर इस क्षेत्र में उतरने से बचते रहे हैं. 1960 और 70 के दशक में अमेरिका और रूस (तब सोवियत संघ) के आपसी प्रतिद्विदता के कारण स्पेस विज्ञान को खूब प्रचार-प्रसार मिला. अब आज के दौर में इन दोनों देशों ने भी अपने स्पेस प्रोग्राम के बजट में खासी कटौती की है.
स्पेस विज्ञान में भारत की धमक.. |
नासा की ही बात करें तो अमेरिकी सरकार से उसे मिलने वाले मदद में 1973 के अपोलो मिशन के बाद से भारी कटौती हुई है. तब...
600 से ज्यादा वैज्ञानिकों की टीम और 5 साल का अनवरत प्रयास. नतीजा भारत में बने पहले रीयूजेबल लॉन्च वेहिकल (RLV-TD) का सफल प्रयोग. यह पहली बार है कि इसरो ने पंखों वाले किसी यान के साथ प्रयोग किया है. हालांकि, इस क्षेत्र में इसरो का प्रयोग अभी प्रारंभिक दौर में है. लेकिन ये तो कह ही सकते हैं कि अमेरिका और रूस के बाद भारत तीसरा ऐसा देश बन गया है जिसके पास ऐसी टेक्नोलॉजी है कि वो किसी अंतरिक्ष यान को स्पेस में भेजने के बाद उसे वापस धरती पर उतारने में भी सक्षम है.
वैसे, माना जा रहा है कि असल या कह लीजिए कि स्पेस शटल का जो फाइनल वर्जन होगा उसे हकीकत की जमीन पर उतारने में अभी इसरो को 12 से 15 साल और लगेंगे. जाहिर है दो या तीन प्रयोग और होंगे. फिर भी इसरो का ये प्रयोग खास है. बेहद कम लागत में बड़े-बड़े प्रयोगों को अंजाम देने में माहिर इसरो का ये छोटा कदम भविष्य में स्पेस टेक्नोलॉजी में बड़ी भूमिका निभाने वाला है. खासकर लागत और बेहतर तकनीक के मामले में. बता दें कि RLV-TD को बनाने में 95 करोड़ का खर्च आया है.
स्पेस विज्ञान और कॉस्ट कटिंग..
अंतरिक्ष के क्षेत्र में प्रयोग एक महंगा सौदा है. इसलिए ज्यादातर देश सीधे तौर पर इस क्षेत्र में उतरने से बचते रहे हैं. 1960 और 70 के दशक में अमेरिका और रूस (तब सोवियत संघ) के आपसी प्रतिद्विदता के कारण स्पेस विज्ञान को खूब प्रचार-प्रसार मिला. अब आज के दौर में इन दोनों देशों ने भी अपने स्पेस प्रोग्राम के बजट में खासी कटौती की है.
स्पेस विज्ञान में भारत की धमक.. |
नासा की ही बात करें तो अमेरिकी सरकार से उसे मिलने वाले मदद में 1973 के अपोलो मिशन के बाद से भारी कटौती हुई है. तब अमेरिकी बजट का 1.35 फीसदी स्पेस विज्ञान के लिए था जो अब घटकर 0.6 फीसदी से भी कम रह गया है. लेकिन इन सब चुनौतियों के बावजूद ये भी सच है कि स्पेस विज्ञान में रोज नया शोध अब एक जरूरत बन चुकी है और इसे इग्नोर भी नहीं किया जा सकता.
जाहिर है पूरी दुनिया में कॉस्ट कटिंग और कम लागत में ज्यादा बेहतर और सफल प्रयोग करने के तरीकों पर बात हो रही है. इसमें इसरो के महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. चंद्रयान और मंगलयान के सफल प्रयोग से इसरो ने इसे साबित भी किया है.
अब तक इसरो पीएसएलवी और जीएसएलवी के जरिए सेटेलाइट्स को धरती की अलग अलग कंक्षाओं में स्थापित करता रहा है. इन सभी तकनीकों से सेटेलाइट्स को तो स्पेस में भेजा जा सकता था, लेकिन उसके बाद वो रॉकेट जल जाते या बेकार हो जाते थे. मतलब, हर लॉचिंग के समय एक नए रॉकेट की जरूरत पड़ती थी. RLV इससे जुदा है. मतलब, इसे फिर से जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जा सकेगा. हालांकि पहले प्रयोग में इस्तेमाल हुआ स्पेस शटल अब दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि इसे बंगाल की खाड़ी में उतारना पड़ा. इसकी वजह ये रही कि एक स्पेश शटल को लैंड कराने के लिए कम से कम 5 किलोमीटर लंबे रनवे की जरूरत होती है. भारत में ये कहीं भी फिलहाल उपलब्ध नहीं है. खैर, बंगाल की खाड़ी में ही सही लेकिन सफल लैंडिग साबित करता है कि भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिक की कोशिशें सही दिशा में हैं. और जाहिर है इस तकनीक में महारत हासिल करने के बाद कॉस्ट कटिंग में इसरो को बड़ी मदद मिलेगी.
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इसरो का मानना है कि वे इस स्पेस क्राफ्ट के लॉन्च और सफल होने के बाद सैटेलाइट्स आदि को स्पेस में लॉन्च करने में होने वाले खर्च को 10 गुना कमी करने में सफल होंगे. अभी फिलहाल दुनियाभर की स्पेस एजेंसिया एक किलोग्राम तक को भेजने के लिए 20,000 डॉलर खर्च करती हैं.
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