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महान खिलाड़ी कुंबले का 'महान' कोच बनना तय है, क्‍योंकि...

    • विक्रांत गुप्ता
    • Updated: 24 जून, 2016 11:49 AM
  • 24 जून, 2016 11:49 AM
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अनिल कुंबले का मैदानी करियर जितना प्रभावशाली दिखता है, उतना ही मैदान के बाहर वाला उनका व्‍यक्तित्‍व प्रेरणा देता है. उनके कुछ अनजाने पहलू शायद इस बारे में ज्‍यादा रोशनी डाल पाएं...

ऐसा क्‍या है जो अनिल कुंबले को सबसे ज्‍यादा सम्‍माननीय और प्रेरणादायी भारतीय खिलाड़ी की पहचान दिलाता है? सम्‍मान के ये तमगे हैं- फिरोजशाह कोटला में 74 रन देकर दस विकेट लेना? या वह नेतृत्‍व- जो विवादास्‍पद 'मंकीगेट' सीरीज के दौरान उन्‍होंने ऑस्‍ट्रेलिया में दिया था? या वह जज्‍बा- जो उन्‍होंने एंटीगा (2002) में जबड़ा टूटा होने के बावजूद गेंदबाजी करते हुए दिखाया था?

तो जवाब है: ऊपर दिए ये सभी. इस सबमें यह भी शामिल कर लीजिए कि उन्‍होंने अपने सम्‍मान और त्‍याग को टीम के हित से ऊपर कभी नहीं रखा. कोई यह कैसे भूल सकता है कि उन्‍हें उनके करियर के एकमात्र वर्ल्‍डकप फाइनल में नहीं खिलाया गया (ऑस्‍ट्रेलिया के विरुद्ध, जोहानेसबर्ग 2003). या, विदेशों में खेले गए दर्जनों टेस्‍ट में टीम के कप्‍तान ने कुंबले के बजाए उनके जूनियर हरभजन को एकमात्र स्पिनर के रूप में टीम में चुना. सौरव गांगुली ही थे, जिन्‍होंने कप्‍तान के रूप में ये कड़े फैसले लिए और फिर भी वे कुंबले को 'जेंटलमैन' कहते हैं क्‍योंकि उन्‍होंने कभी निजी मनमुटाव को सामने नहीं आने दिया.

गांगुली कहते हैं 'मेरी कप्‍तानी पारी का यह सबसे बड़ा खेद का विषय रहा, जब मुझे उन्‍हें कई बार टीम से बाहर रखना पड़ा. लेकिन कुंबले न कभी इससे विचलित हुए और न ही शिकायत की.' हां, एक बार हुआ था कुछ ऐसा.

2001 में अपनी कंधे की सर्जरी के बाद से कुंबले खराब दौर से गुजर रहे थे. 2003-04 की ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज के ब्रिसबेन टेस्‍ट के लिए गांगुली ने जो अंतिम 11 खिलाड़ी तय किए, उसमें कुंबले को बाहर कर हरभजन को शामिल किया. पहले दिन का खेल खत्‍म होने के बाद जब टीम होटल पहुंची तो गांगुली अपने परिवार के साथ हो लिए. लेकिन शाम को ही कुंबले ने उनके कमरे का दरवाजा खटखटाया और बोले, 'मैं इस टेस्‍ट के खत्‍म होते ही सन्‍यास लेना चाहता हूं और जल्‍द से जल्‍द घर वापस जाना चाहता...

ऐसा क्‍या है जो अनिल कुंबले को सबसे ज्‍यादा सम्‍माननीय और प्रेरणादायी भारतीय खिलाड़ी की पहचान दिलाता है? सम्‍मान के ये तमगे हैं- फिरोजशाह कोटला में 74 रन देकर दस विकेट लेना? या वह नेतृत्‍व- जो विवादास्‍पद 'मंकीगेट' सीरीज के दौरान उन्‍होंने ऑस्‍ट्रेलिया में दिया था? या वह जज्‍बा- जो उन्‍होंने एंटीगा (2002) में जबड़ा टूटा होने के बावजूद गेंदबाजी करते हुए दिखाया था?

तो जवाब है: ऊपर दिए ये सभी. इस सबमें यह भी शामिल कर लीजिए कि उन्‍होंने अपने सम्‍मान और त्‍याग को टीम के हित से ऊपर कभी नहीं रखा. कोई यह कैसे भूल सकता है कि उन्‍हें उनके करियर के एकमात्र वर्ल्‍डकप फाइनल में नहीं खिलाया गया (ऑस्‍ट्रेलिया के विरुद्ध, जोहानेसबर्ग 2003). या, विदेशों में खेले गए दर्जनों टेस्‍ट में टीम के कप्‍तान ने कुंबले के बजाए उनके जूनियर हरभजन को एकमात्र स्पिनर के रूप में टीम में चुना. सौरव गांगुली ही थे, जिन्‍होंने कप्‍तान के रूप में ये कड़े फैसले लिए और फिर भी वे कुंबले को 'जेंटलमैन' कहते हैं क्‍योंकि उन्‍होंने कभी निजी मनमुटाव को सामने नहीं आने दिया.

गांगुली कहते हैं 'मेरी कप्‍तानी पारी का यह सबसे बड़ा खेद का विषय रहा, जब मुझे उन्‍हें कई बार टीम से बाहर रखना पड़ा. लेकिन कुंबले न कभी इससे विचलित हुए और न ही शिकायत की.' हां, एक बार हुआ था कुछ ऐसा.

2001 में अपनी कंधे की सर्जरी के बाद से कुंबले खराब दौर से गुजर रहे थे. 2003-04 की ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज के ब्रिसबेन टेस्‍ट के लिए गांगुली ने जो अंतिम 11 खिलाड़ी तय किए, उसमें कुंबले को बाहर कर हरभजन को शामिल किया. पहले दिन का खेल खत्‍म होने के बाद जब टीम होटल पहुंची तो गांगुली अपने परिवार के साथ हो लिए. लेकिन शाम को ही कुंबले ने उनके कमरे का दरवाजा खटखटाया और बोले, 'मैं इस टेस्‍ट के खत्‍म होते ही सन्‍यास लेना चाहता हूं और जल्‍द से जल्‍द घर वापस जाना चाहता हूं.'

यह भी पढ़ें- यदि कुंबले दौड़ में रहेंगे तो वे ही जीतेंगे

घबराए हुए से गांगुली कुछ पल के लिए उनका चेहरा देखते रह गए. आखिर उन्‍होंने भीतर से अपनी पत्‍नी डोना को बुलवाया और कुंबले को समझाने को कहा. कम से कम सीरीज खत्‍म होने तक वे इस बारे में कुछ न सोचें. और जैसा कि भाग्‍य से होता है, हरभजन की उस टेस्‍ट में अंगुली टूट गई और उन्‍हें सर्जरी करानी पड़ी. बाकी सीरीज के लिए कुंबले टीम में आए और उन्‍होंने अगले तीन टेस्‍ट में 24 विकेट लिए. इसमें एडिलेड टेस्‍ट की वह ऐतिहासिक जीत भी शामिल है. फिर कुंबले ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा जब तक कि उन्‍होंने खुद सन्‍यास का फैसला नहीं किया (2 नवंबर 2008 की दोहपर कोटला में).

 कुंबले-टीम इंडिया के नए कोच (फाइल फोटो)  

कप्‍तानी भी कुंबले के पास अनायास ही आई. लेकिन जिस साल उन्‍होंने टीम इंडिया का नेतृत्‍व किया, टेस्‍ट में अपने खिलाडि़यों से उनका सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन करवाया. और जब उन्‍हें लगा कि वे यह जिम्‍मेदारी और नहीं संभाल पाएंगे तो उन्‍होंने बीच सीरीज में सन्‍यास ले लिया, जबकि ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ वह सीरीज भारत जीतने वाला था. उन्‍होंने गावस्‍कर-बॉर्डर ट्रॉफी के अंतिम मैच का इंतजार भी नहीं किया और कमान नए कप्‍तान एमएस धोनी को सौंप दी. बिलकुल एक जेंटलमैन की तरह.

अंतत: - एक संदेश टीम के नाम- अनिल कुंबले एक नो-नॉनसेंस प्‍लेयर भी थे. और वे मौजूदा टीम को मैदान पर इस मामले में एक इंच भी जमीन नहीं देंगे.

यह भी पढ़ें- कोचिंग ने किया भारतीय तेज गेंदबाजों का बंटाधार!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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