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क्यों अफ्रीकी लोगों को नहीं मिलती दिल्ली के दिल में जगह

    • विवेक शुक्ला
    • Updated: 26 अक्टूबर, 2015 07:01 PM
  • 26 अक्टूबर, 2015 07:01 PM
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अफ्रीकियों को इस बात का अफसोस है कि उनके साथ गांधी के देश में भेदभाव हो रहा है. उस गांधी के देश में जिसने अश्वेतों के हक में पहली लड़ाई लड़ी थी.

भले ही साउथ अफ्रीका में रंगभेद की नीति खत्म हो गई हो, पर हमारे यहां जारी है. अगर दिल्ली की बात करें तो अफ्रीकी नागरिकों को रेंट पर घर मिलने में दिन में तारे नजर आ जाते हैं. यही नहीं, इन्हें कालू से लेकर हब्शी कहकर लोग बुलाते हैं. ये बात उन्हें समझ आ रही हैं.

अगर बात रेंट पर घर की करें तो लंबी मशक्कत के बाद उन्हें घर मिलता है. दिल्ली में रह रहे केन्या के मोरिस टी कहते हैं कि हमें 15 बार कोशिश करने के बाद कोई मकान मालिक रेंट पर घर देने के लिए तैयार होता है.

दिल्ली-एनसीआर में एक अनुमान के मुताबिक, करीब 50 हजार अफ्रीकी नागरिक रहते हैं. करीब दो दर्जन देशों के तो यहां पर एंबेसी हैं. इनके अलावा बहुत से यूरोपीय देशों के भी डिप्लोमेट अश्वेत हैं.

रोनाल्ड नोएडा के एक मीडिया संस्थान में पत्रकारिता का कोर्स कर रहे हैं. वे कहते हैं कि भारत में सभी अफ्रीकियों को नाइजीरिया का ही माना जाता है. दिल्ली-एनसीआर में युंगाडा,सोमालिया, कांगो और केन्या के भी नागरिक खासी तादाद में हैं. राजधानी में खिड़की, ईस्ट विनोद नगर, द्वारका, सफदरजंग एन्क्लेव से सटे कृष्णा नगर वगैरह में अफ्रीकी खासतौर पर रहते हैं.

भारत या दिल्ली में ये ज्यादातर स्टुड़ेंट के रूप में या कारोबारी के रूप में रह रहे हैं। नोएडा के एमिटी यूनिवर्सिटी के स्टुडेंट डेरिक भी कांगों से हैं। वे कहते हैं कि जो अफ्रीकी यहां पर स्टुडेंट के तौर पर आए हुए हैं,उन्हें तो कोई दिक्कत नहीं होती। उन्हें तो कालेज के हॉस्टल में ही जगह मिल जाती है। पर जो बिजनेस के इरादे से यहां पर आते हैं, उनके सामने चुनौती बड़ी होती है।

राजधानी की प्रमुख रीयल एस्टेट एडवाइजरी 21 सैंचुरी के सीईओ डा. देवेन्द्र गुप्ता कहते हैं कि अफ्रीकी नागरिकों के अजीबो-गरीब लाइफ स्टाइल के चलते भी बहुत से लोग अपने घर इन्हें रेंट पर नहीं देते। इन्हें तेज म्युजिक ही सुनना पसंद होता है। इन पर कुत्तों, चूहों,खरगोशों के मांस बनाने और खाने के भी आरोप लगते हैं।

हालांकि कुत्तों, चूहों, खरगोशों वगैरह के मांस को खाने...

भले ही साउथ अफ्रीका में रंगभेद की नीति खत्म हो गई हो, पर हमारे यहां जारी है. अगर दिल्ली की बात करें तो अफ्रीकी नागरिकों को रेंट पर घर मिलने में दिन में तारे नजर आ जाते हैं. यही नहीं, इन्हें कालू से लेकर हब्शी कहकर लोग बुलाते हैं. ये बात उन्हें समझ आ रही हैं.

अगर बात रेंट पर घर की करें तो लंबी मशक्कत के बाद उन्हें घर मिलता है. दिल्ली में रह रहे केन्या के मोरिस टी कहते हैं कि हमें 15 बार कोशिश करने के बाद कोई मकान मालिक रेंट पर घर देने के लिए तैयार होता है.

दिल्ली-एनसीआर में एक अनुमान के मुताबिक, करीब 50 हजार अफ्रीकी नागरिक रहते हैं. करीब दो दर्जन देशों के तो यहां पर एंबेसी हैं. इनके अलावा बहुत से यूरोपीय देशों के भी डिप्लोमेट अश्वेत हैं.

रोनाल्ड नोएडा के एक मीडिया संस्थान में पत्रकारिता का कोर्स कर रहे हैं. वे कहते हैं कि भारत में सभी अफ्रीकियों को नाइजीरिया का ही माना जाता है. दिल्ली-एनसीआर में युंगाडा,सोमालिया, कांगो और केन्या के भी नागरिक खासी तादाद में हैं. राजधानी में खिड़की, ईस्ट विनोद नगर, द्वारका, सफदरजंग एन्क्लेव से सटे कृष्णा नगर वगैरह में अफ्रीकी खासतौर पर रहते हैं.

भारत या दिल्ली में ये ज्यादातर स्टुड़ेंट के रूप में या कारोबारी के रूप में रह रहे हैं। नोएडा के एमिटी यूनिवर्सिटी के स्टुडेंट डेरिक भी कांगों से हैं। वे कहते हैं कि जो अफ्रीकी यहां पर स्टुडेंट के तौर पर आए हुए हैं,उन्हें तो कोई दिक्कत नहीं होती। उन्हें तो कालेज के हॉस्टल में ही जगह मिल जाती है। पर जो बिजनेस के इरादे से यहां पर आते हैं, उनके सामने चुनौती बड़ी होती है।

राजधानी की प्रमुख रीयल एस्टेट एडवाइजरी 21 सैंचुरी के सीईओ डा. देवेन्द्र गुप्ता कहते हैं कि अफ्रीकी नागरिकों के अजीबो-गरीब लाइफ स्टाइल के चलते भी बहुत से लोग अपने घर इन्हें रेंट पर नहीं देते। इन्हें तेज म्युजिक ही सुनना पसंद होता है। इन पर कुत्तों, चूहों,खरगोशों के मांस बनाने और खाने के भी आरोप लगते हैं।

हालांकि कुत्तों, चूहों, खरगोशों वगैरह के मांस को खाने के आरोपों को कई अफ्रीकी खारिज करते हैं. कृष्ण नगर में रहने वाले एडम्स कहते हैं कि ये आरोप बेबुनियाद हैं. हम तो मटन,चिकन,फिश ही खाते हैं. आईएनए से ले आते हैं.राजधानी के एक प्रमुख रीयल एस्टेट फर्म आईएलडी डवलपर्स की डायरेक्टर नूजत अलीम ने बताया कि दिल्ली-एनसीआर में अफ्रीकी डिप्लोमट को भी मकान मालिक अपना किराएदार बनाने से पहले कई बार सोचते हैं. ये अफसोस की बात है. भारतीय समाज को इनको लेकर अपना नजरिया बदलना होगा.

ईस्ट दिल्ली में रहने वाले एक सज्जन संदीप सिंह ने बताया कि उन्होंने अपना एक बार फ्लैट कुछ अफ्रीकियों को दिया था. पर उनके घर के किचन से इतनी गंदी बदबू आने लगी कि पड़ोसियों का रहना भी मुश्किल होने लगा.

बहरहाल युगांडा के नागरिक सोलोमन ट्रेवर को अफसोस है कि अफ्रीकियों के साथ गांधी के देश में भेदभाव हो रहा है. उस गांधी के देश में जिसने अश्वेतों के हक में पहली लड़ाई लड़ी थी. खिड़की में रहने वाले ट्रेवर फिर भी भारत को पसंद करते हैं. कहते हैं, कुल मिलाकर यहां के लोग मिलनसार हैं. इसलिए मुझे पसंद आता है इंडिया.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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