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वीर सैनिक की शहादत से बड़ी जाति कैसे हो गई?

    • आईचौक
    • Updated: 27 जून, 2016 08:07 PM
  • 27 जून, 2016 08:07 PM
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जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हुए जवान वीर सिंह के अंतिम संस्कार को लेकर उनके ही गांव के ऊंची जातियों के लोगों ने जताई आपत्ति, शहादत से बड़ी जाति कैसे हो गई?

देश की रक्षा के लिए अपनी जान न्यौछावर करने से पहले कोई भी सैनिक भले ही ये न सोचता हो कि मैं किस जाति और धर्म के लिए ये कर रहा हूं. लेकिन शायद उसके देशवासी उसकी शहादत का सम्मान करने से पहले उसकी जाति देखकर उसका सम्मान करते हैं. फला जाति का हुआ तो सम्मान होगा, नहीं हुआ तो सम्मान नहीं होगा. फिर इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिस सैनिक ने अपने प्राणों की आहुति दी, उसके लिए कोई जाति या धर्म नहीं बल्कि ये देश ही सबकुछ था.

भले ही आपको ये बातें हैरान कर रही हों लेकिन यकीन मानिए जातिवाद इस देश में इस कदर हावी हो चला है कि अब शहीदों का सम्मान भी उसकी जाति देखकर किया जाने लगा है. ये वाकया उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के शिकोहाबाद का है, जहां के सैनिक वीर सिंह हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पंपोर में आतंकियों के हमले में शहीद हो गए थे, वीर सिंह इस हमले में शहीद होने वाले आठ अन्य जवानों में से एक हैं.

शहादत का सम्मान जाति देखकर क्यों?

एक ओर जहां वीर सिंह की शहादत पर पूरा देश आंसू बहा रहा था तो उनके ही गांव के लोगों के लिए इस वीर की शहादत से ज्यादा महत्पवूर्ण उसकी जाति बन गई. शायद इसीलिए जब वीर सिंह का पार्थिव शरीर उनके यूपी के शिकोहाबाद स्थित उनके गांव नगला केवल अंतिम संस्कार के लिए पहुंचा और वीर सिंह के परिवार वालों ने गांव की  सार्वजनिक जमीन पर उन्हें दफानाए जाने और वहीं उनकी स्मृति में उनकी मूर्ति बनाए जाने की इच्छा जताई.

लेकिन गांव के उच्च जाति के लोगों ने उनके परिवार वालों को इसकी इजाजत देने से मना कर दिया. दरअसल शहीद वीर सिंह नट समुदाय से आते हैं, जोकि यूपी में अनुसूचित जाति में आते हैं. यानी की पिछड़ी जाति से संबंधित होने के कारण देश के लिए जान देने वाले शहीद के अंतिम संस्कार की इजाजत उनके ही गांव के लोगों ने इसलिए नहीं दी क्योंकि उनके लिए शहादत से ज्यादा जरूरी जाति है.

देश की रक्षा के लिए अपनी जान न्यौछावर करने से पहले कोई भी सैनिक भले ही ये न सोचता हो कि मैं किस जाति और धर्म के लिए ये कर रहा हूं. लेकिन शायद उसके देशवासी उसकी शहादत का सम्मान करने से पहले उसकी जाति देखकर उसका सम्मान करते हैं. फला जाति का हुआ तो सम्मान होगा, नहीं हुआ तो सम्मान नहीं होगा. फिर इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिस सैनिक ने अपने प्राणों की आहुति दी, उसके लिए कोई जाति या धर्म नहीं बल्कि ये देश ही सबकुछ था.

भले ही आपको ये बातें हैरान कर रही हों लेकिन यकीन मानिए जातिवाद इस देश में इस कदर हावी हो चला है कि अब शहीदों का सम्मान भी उसकी जाति देखकर किया जाने लगा है. ये वाकया उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के शिकोहाबाद का है, जहां के सैनिक वीर सिंह हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पंपोर में आतंकियों के हमले में शहीद हो गए थे, वीर सिंह इस हमले में शहीद होने वाले आठ अन्य जवानों में से एक हैं.

शहादत का सम्मान जाति देखकर क्यों?

एक ओर जहां वीर सिंह की शहादत पर पूरा देश आंसू बहा रहा था तो उनके ही गांव के लोगों के लिए इस वीर की शहादत से ज्यादा महत्पवूर्ण उसकी जाति बन गई. शायद इसीलिए जब वीर सिंह का पार्थिव शरीर उनके यूपी के शिकोहाबाद स्थित उनके गांव नगला केवल अंतिम संस्कार के लिए पहुंचा और वीर सिंह के परिवार वालों ने गांव की  सार्वजनिक जमीन पर उन्हें दफानाए जाने और वहीं उनकी स्मृति में उनकी मूर्ति बनाए जाने की इच्छा जताई.

लेकिन गांव के उच्च जाति के लोगों ने उनके परिवार वालों को इसकी इजाजत देने से मना कर दिया. दरअसल शहीद वीर सिंह नट समुदाय से आते हैं, जोकि यूपी में अनुसूचित जाति में आते हैं. यानी की पिछड़ी जाति से संबंधित होने के कारण देश के लिए जान देने वाले शहीद के अंतिम संस्कार की इजाजत उनके ही गांव के लोगों ने इसलिए नहीं दी क्योंकि उनके लिए शहादत से ज्यादा जरूरी जाति है.

सीआरपीएफ के कॉन्स्टेबल वीर सिंह जम्मू-कश्मीर के पंपोर में आतंकियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हो गए थे

'कंथारी ग्राम पंचायत के ग्राम प्रधान विजय सिंह ने मीडिया से कहा, सुबह कुछ स्थानीय ग्रामीणों ने शहीद सैनिक के परिवार की सार्वजनिक जमीन पर दफनाए जाने और फिर उनकी मूर्ति बनाए जाने की मांग पर आपत्ति जताई. लेकिन बाद में एसडीएम से कई घंटो की बातचीत के बाद ग्रामीण शहीद के परिवार की बात मानने पर सहमत हो गए.'

गरीबी में दिन गुजार रहा है शहीद का परिवारः

शहीद वीर सिंह का परिवार बेहद गरीबी में दिन गुजार रहा है. पूरी जिंदगी देश की सेवा करने के बावजूद उनके परिवार की आर्थिक हालत बेहद खराब है. 52 वर्षीय शहीद वीर सिंह अपने परिवार के एकमात्र कमाऊ व्यक्ति थे और उन्होंने 1981 में सीआरपीएफ ज्वाइन की थी. उनका परिवार महज 500 स्कॉयर फीट के एक कमरे वाले घर में रहता है जिसकी छट टिन शेड की है. उनके तीन बच्चे हैं, जिनमें 22 वर्षीय बेटी  रजनी एमएससी कर रही है जबकि दो बेटे 18 वर्षीय रमनदीप बीएससी कर रहा है और 16 वर्षीय संदीप इंटरमीडिएट में है.

उनके छोटे भाई रंजीत मजदूरी करते हैं जबकि उनके पिता रामस्नेह फिरोजाबाद में रिक्शा चलाते हैं. अपने बहादुर बेटे के बारे में वह कहते हैं, 'मेरे बेटे ने अपने देश की भूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण दिए हैं. लेकिन यहां अपने ही लोग उसके अंतिम संस्कार के लिए 10 स्कॉवर मीटर की भूमि देने पर भी आपत्ति जता रहे हैं. मुझे नहीं पता कि अब उसके बच्चों की देखभाल कौन करेगा.'

एक शहीद के पिता का ये डर बेवजह नहीं है. जहां लोग एक सैनिक की शहादत का सम्मान करने से ज्यादा जरूरी जाति को मानते हों, वहां एक शहीद के परिवार वालों के प्रति भला किसी को कोई लगाव क्यों होने लगा. भले ही उनके बेटे ने एक वीर सैनिक के रूप में अपने देश की रक्षा में प्राण गंवाए हों लेकिन उनके गांववालों के लिए एक पिछड़ी जाति के व्यक्ति की शहादत कोई मायने नहीं रखती.

जातिवाद की सोच से जकड़े लोगों के लिए इंसानियत से बड़ी जाति प्रथा है. इसीलिए उन्हें पिछड़ी जाति के व्यक्ति की शहादत की कीमत समझ ही नहीं आती. सोचिए अगर वीर सिंह जैसे सैनिक देश की रक्षा की जगह अपनी-अपनी जातियों की रक्षा में लग जाएं तो न तो ये देश बचेगा और न ही जाति के नाम पर अपनी झूठी शान दिखाने वाले लोग!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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