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समाज

तीन तलाक के झमेले को अब खत्म कर देना चाहिये !

    • अरविंद मिश्रा
    • Updated: 08 अक्टूबर, 2016 08:41 PM
  • 08 अक्टूबर, 2016 08:41 PM
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सती प्रथा, बाल विवाह या विधवा विवाह...हिंदू समाज भी समय के साथ बदला. ऐसे में सवाल उठता है कि जो सुधार हिन्दू धर्म में 19वीं सदी में हो सकते हैं वैसे ही सुधार 21वीं सदी में इस्लाम में क्यों नहीं हो सकते?

तीन तलाक का मामला आज कल सुर्खियां बटोर रहा है. तलाक़ एक ऐसा शब्द है जो फलते- फूलते परिवार को खत्म कर देता है, बर्बाद कर देता है. हमारे देश में बहुत सारी मुस्लिम महिलाएं हैं जो इस तलाक़ के किसी न किसी वजह से खास कर अपने समाज के डर से चुप रहती हैं. लेकिन शायद अब ऐसा लगता है कि उनके दिन फिरने वाले हैं क्योंकि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करके बोला है कि तीन तलाक़ कानूनी रूप से सही नहीं है. लेकिन इसके साथ ये भी देखना जरूरी होगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का क्या रुख होता है ?

कुछ महीनों पहले ही शायरा बानो नामक मुस्लिम महिला की वजह से तीन तलाक़ का मामला तूल पकड़ा था जब उसने सुप्रीम कोर्ट से इस परम्परा को ख़त्म करने की गुहार लगाई थी.

संविधान क्या कहता है ?

संविधान का Article 14 कहता है कि देश के हर नागरिक के अधिकार बराबर हैं और संविधान का Article 25 हर नागरिक को अपने मर्ज़ी से किसी धर्म को मानने और प्रचार करने का अधिकार देता है. लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस तीन तलाक़ के परंपरा को ख़त्म करने में सबसे बड़ा बाधक है.

यह भी पढ़ें- मुस्लिम महिलाओं की बात संविधान के मुताबिक होनी चाहिए, कुरान के नहीं

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट को कुरान पर बने पर्सनल लॉ कि समीक्षा का हक़ नहीं है. मुस्लिम पर्सनल लॉ एक सांस्कृतिक मामला है और इसे मज़हब से अलग नहीं किया जा सकता है. लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ को ये भी तो ध्यान में रखना चाहिए कि बहुत सारे मुस्लिम देश इस कुप्रथा को समाप्त कर चुके हैं. ऐसे देशों में सऊदी अरब, पाकिस्तान, इराक, सूडान जैसे देश भी शामिल हैं.

शाहबानो केस को नहीं भूला जा सकता

इस सन्दर्भ में हम शाहबानो केस को कैसे भूल सकते हैं? शाहबानो मामले...

तीन तलाक का मामला आज कल सुर्खियां बटोर रहा है. तलाक़ एक ऐसा शब्द है जो फलते- फूलते परिवार को खत्म कर देता है, बर्बाद कर देता है. हमारे देश में बहुत सारी मुस्लिम महिलाएं हैं जो इस तलाक़ के किसी न किसी वजह से खास कर अपने समाज के डर से चुप रहती हैं. लेकिन शायद अब ऐसा लगता है कि उनके दिन फिरने वाले हैं क्योंकि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करके बोला है कि तीन तलाक़ कानूनी रूप से सही नहीं है. लेकिन इसके साथ ये भी देखना जरूरी होगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का क्या रुख होता है ?

कुछ महीनों पहले ही शायरा बानो नामक मुस्लिम महिला की वजह से तीन तलाक़ का मामला तूल पकड़ा था जब उसने सुप्रीम कोर्ट से इस परम्परा को ख़त्म करने की गुहार लगाई थी.

संविधान क्या कहता है ?

संविधान का Article 14 कहता है कि देश के हर नागरिक के अधिकार बराबर हैं और संविधान का Article 25 हर नागरिक को अपने मर्ज़ी से किसी धर्म को मानने और प्रचार करने का अधिकार देता है. लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस तीन तलाक़ के परंपरा को ख़त्म करने में सबसे बड़ा बाधक है.

यह भी पढ़ें- मुस्लिम महिलाओं की बात संविधान के मुताबिक होनी चाहिए, कुरान के नहीं

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट को कुरान पर बने पर्सनल लॉ कि समीक्षा का हक़ नहीं है. मुस्लिम पर्सनल लॉ एक सांस्कृतिक मामला है और इसे मज़हब से अलग नहीं किया जा सकता है. लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ को ये भी तो ध्यान में रखना चाहिए कि बहुत सारे मुस्लिम देश इस कुप्रथा को समाप्त कर चुके हैं. ऐसे देशों में सऊदी अरब, पाकिस्तान, इराक, सूडान जैसे देश भी शामिल हैं.

शाहबानो केस को नहीं भूला जा सकता

इस सन्दर्भ में हम शाहबानो केस को कैसे भूल सकते हैं? शाहबानो मामले ने 1985-86 के दरम्यान भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया था. उस समय राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने शरिया के सामने घुटने टेक दिए थे. राजनीति पर साम्प्रदायिकता को हावी होने दिया गया था. नतीजा यह हुआ कि संसद के जरिये कानून बनवाकर मजहबी ठसक को पास किया गया और अदालती हुक्म को दरकिनार किया गया. संसद में यह कानून आसानी से पास हो गया था.

लेकिन अब समय बदल गया है और उम्मीद है कि इस तरह के वाक्ये दोहराये नहीं जाएंगे. यूनिफार्म सिविल कोड या सामान नागरिक संहिता भारत में लंबे समय से रानीतिक मुद्दा रहा है. यह मुद्दा भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में भी शामिल रहा है. बीजेपी के 2014 के लोकसभा के घोषणा पत्र में भी यह मुद्दा शामिल था.

यह भी पढ़ें- मुस्लिम महिलाओं का आधा धर्म और आधी नागरिकता

 तीन तलाक पर तकरार...

ऐसा नहीं है कि यह मुद्दा केवल बीजेपी के लिए रहा है. 2013 में तत्कालीन PA सरकार ने मुस्लिम महिलाओं कि स्थिति कि पड़ताल के लिए एक समिति बनाई थी. उस समिति ने भी अपने आकलन में कहा था कि तीन तलाक़ की परम्परा मुस्लिम महिलाओं को अत्यंत अशक्त और असुरक्षित बनाती है.

मुस्लिम महिलाओं की देश में स्थिति

- 2.5 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं ग्रेजुएट है देश में. 

- 15.58 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं कामकाज़ी हैं.

- 51.89 प्रतिशत साक्षरता दर है.

- पूरे भारत में 48.11 प्रतिशत यानी 8.39 करोड़ में से 4.03 करोड़ मुस्लिम महिलाएं ही लिख-पढ़ सकती हैं.

हिंदू समाज ने सती प्रथा का अंत किया

सती प्रथा जो कि हिन्दू धर्म से जुडी एक कुप्रथा हुआ करती थी, सुधारवादी आंदोलन के कारण अब इतिहास बन कर रह गई है. इस कुप्रथा के तहत महिला को अपने पति के मारने के बाद उसके साथ चिता पर जीवित जलन पड़ता था. लेकिन 19 वीं सदी में भारतीय सुधार आंदोलन के नेताओं ने इसका विरोध किया. तब ब्रिटिश राज ने इस पर पाबन्दी लगा दी. ऐसा ही बाल विवाह और विधवा विवाह को लेकर किया गया.

तो सवाल यह उठता है कि जो सुधार हिन्दू धर्म में 19वीं सदी में हो सकते हैं वैसे सुधार 21वीं सदी में इस्लाम में क्यों नहीं हो सकते?

यह भी पढ़ें- क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी बेतुकी दलीलों के जवाब दे पाएगा?

समय बदल रहा है, समाज बदल रहा है. मुस्लिम महिलाएं भी पढाई और रोजगार के लिए अपने घरों से बहार निकल रही हैं. खासतौर पर शहरी इलाकों में. अनेक संस्थाएं भी उनके अधिकारों की हिमायत कर रही हैं. ऐसे समय में उदारवादी मुस्लिम तबकों को चाहिए कि वे तीन तलाक़ के कुप्रथा के खिलाफ एकजुट हों और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़ने में योगदान करें.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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