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मैं कार थी तेरे आंगन की...

    • श्रुति दीक्षित
    • Updated: 21 फरवरी, 2017 05:37 PM
  • 21 फरवरी, 2017 05:37 PM
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80 और 90 के दशक का शायद ही कोई इंसान हो जिसने मारुति 800 को ना चाहा हो. जिनके पास ये थी उन्हें जान से प्यारी थी और जिनके पास नहीं उन्हें इसकी चाह थी. पर अब कहां है आपकी वो गाड़ी?

एक जमाना था जब मेरी एक आवाज पर पूरा परिवार झूम उठता था. हर कोई मुझे पाना चाहता था. बच्चे खिलखिला उठते थे. पापा जैसे ही हॉर्न बजाते मम्मी झट से नई साड़ी में घर के आंगन में आ जातीं और फिर हम सब घूमने जाते. जब मैं नई-नई आपके घर आई थी तो बड़ी शान से गली में पूजा की थी. एक वो दौर था और एक ये दौर है. पिछले कई सालों से गराज को ही मेरा घर बना दिया है. पहचाना आपने मुझे? मैं हूं, आपकी मारुति 800.

आज जैसे लोग बीएमडब्लू और फरारी को देखते हैं, उसी तरह से एक मेरा जमाना था. उस समय मेरी बात ही अलग हुआ करती थी. जब पहली बार सफेद रंग में चमचमाती मैं यहां आई थी तो लोग रुककर देखते थे. जनाब जब मेरा चेरी रेड मॉडल आया था तब मैं किसी यलो फरारी से कम नहीं थी. जिनके पास मैं थी उन्हें गुरूर था और जिनके पास मैं नहीं थी उन्हें मलाल था कि आखिर क्यों नहीं.

- मारुति 800 से जुड़े रोचक तथ्य: हरपाल सिंह को पहली मारुति 800 की चाभी देने के लिए एक समारोह का आयोजन किया गया था और चाभी खुद इंदिरा गांधी ने दी थी.

उस समय लोग मुझपर भरोसा करते थे. आप खुद ही बताइए क्या आज के समय में मुझ जैसी सस्ती और भरोसेमंद कार है कहीं? एक अच्छी कार लेने के लिए 5 लाख तक खर्च करना होता है मिडिल क्लास को. मजाल है जो कोई कार मेरा मुकाबला कर पाए. याद कीजिए 50 हजार रुपए में 1983 में पहली बार आई थी मैं. उस समय लोग लाख रुपए तक दे देते थे मेरे लिए. मुझे याद है जब हरपाल जी मुझे अपने घर लाए थे. 20 सालों तक उन्होंने मेरी ही सवारी की. शर्मा जी, वर्मा जी, तिवारी जी, खान साहब, सभी के पास थी मैं. हरे, नीले, पीले, सफेद रंगों में घर-घर की कार बन चुकी थी मैं. ये वो दौर था जब अम्बैसेडर वाले मुझे माचिस का डिब्बा कहा करते थे और फिर भी मुझे चलाने वाले शान से मेरी सवारी करते...

एक जमाना था जब मेरी एक आवाज पर पूरा परिवार झूम उठता था. हर कोई मुझे पाना चाहता था. बच्चे खिलखिला उठते थे. पापा जैसे ही हॉर्न बजाते मम्मी झट से नई साड़ी में घर के आंगन में आ जातीं और फिर हम सब घूमने जाते. जब मैं नई-नई आपके घर आई थी तो बड़ी शान से गली में पूजा की थी. एक वो दौर था और एक ये दौर है. पिछले कई सालों से गराज को ही मेरा घर बना दिया है. पहचाना आपने मुझे? मैं हूं, आपकी मारुति 800.

आज जैसे लोग बीएमडब्लू और फरारी को देखते हैं, उसी तरह से एक मेरा जमाना था. उस समय मेरी बात ही अलग हुआ करती थी. जब पहली बार सफेद रंग में चमचमाती मैं यहां आई थी तो लोग रुककर देखते थे. जनाब जब मेरा चेरी रेड मॉडल आया था तब मैं किसी यलो फरारी से कम नहीं थी. जिनके पास मैं थी उन्हें गुरूर था और जिनके पास मैं नहीं थी उन्हें मलाल था कि आखिर क्यों नहीं.

- मारुति 800 से जुड़े रोचक तथ्य: हरपाल सिंह को पहली मारुति 800 की चाभी देने के लिए एक समारोह का आयोजन किया गया था और चाभी खुद इंदिरा गांधी ने दी थी.

उस समय लोग मुझपर भरोसा करते थे. आप खुद ही बताइए क्या आज के समय में मुझ जैसी सस्ती और भरोसेमंद कार है कहीं? एक अच्छी कार लेने के लिए 5 लाख तक खर्च करना होता है मिडिल क्लास को. मजाल है जो कोई कार मेरा मुकाबला कर पाए. याद कीजिए 50 हजार रुपए में 1983 में पहली बार आई थी मैं. उस समय लोग लाख रुपए तक दे देते थे मेरे लिए. मुझे याद है जब हरपाल जी मुझे अपने घर लाए थे. 20 सालों तक उन्होंने मेरी ही सवारी की. शर्मा जी, वर्मा जी, तिवारी जी, खान साहब, सभी के पास थी मैं. हरे, नीले, पीले, सफेद रंगों में घर-घर की कार बन चुकी थी मैं. ये वो दौर था जब अम्बैसेडर वाले मुझे माचिस का डिब्बा कहा करते थे और फिर भी मुझे चलाने वाले शान से मेरी सवारी करते थे.

माचिस का डिब्बा मुझे तब तक कहा गया जब मैं अपग्रेड नहीं हो गई. हां, उस समय कीमत भी थोड़ी बढ़ गई थी, लेकिन ऐसा नहीं था कि मुझे लोगों का प्यार मिलना बंद हो गया था. यकीन तो तब भी लोगों का उतना ही रहा जब पहली बार मेरा AC मॉडल भारत आया था. यकीन मानिए गर्मियों में लोगों का सफर और सुहाना हो गया था. मैं ही तो थी बच्चों के साथ जब उन्होंने पहली बार कार चलाना सीखा था, मैं ही तो थी वो घर की पहली कार.  

- मारुति 800 से जुड़े रोचक तथ्य: मारुति भारत की दूसरी सबसे ज्यादा बिकने वाली कार है. इस गाड़ी के 27 लाख यूनिट्स बिके थे.

90 का वो दौर था जब ऐसा शायद ही कोई बच्चा रहा हो जिसने मेरा सपना ना देखा हो. घर-बाहर तो छोड़ो फिल्मों में भी मैं ही छाई रहती थी. मजाल है जो किसी बड़े हीरो ने मुझे ना चलाया हो. हीरो ही नहीं क्रिकेटर, नेता सभी मेरे मुरीद थे. सचिन तेंदुलकर की पहली गाड़ी थी मैं. मुझे आम लोग अपने लंबे सफर का साथी मानते थे. दिल्ली से भोपाल जैसे कई सफर किए होंगे मैंने. हां सर्दियों में चलने में थोड़ा आलस आता था मुझे जब तक लोग धक्का नहीं देते थे स्टार्ट नहीं होती थी मैं, पर ऐसा हर बार नहीं होता था. मेरी खूबी थी कि माचिस का डिब्बा होने के बाद भी मैं पूरे परिवार को समेट लेती थी अपने अंदर चार लोगों की गाड़ी तो बस कहने को थी 8 लोग तो आसानी से बन जाते थे मुझमें और फिर शुरू होता था मजा, मस्ती, बातें और ढेर सारा प्यार.

- मारुति 800 से जुड़े रोचक तथ्य: मारुति की सबसे लंबी वेटिंग लिस्ट 3 साल की थी. लोग 50 हजार की गाड़ी के लिए 1 लाख तक देने को तैयार थे.

मैं तो जी माचिस की डिब्बी ही ठीक थी. उस समय ट्रैफिक में भी नहीं फंसती थी. आज की हवाई जहाज जैसी गाड़ियां देखो, बैठे सिर्फ दो लोग होते हैं और ट्रैफिक जाम में फंस जाती हैं. अरे दो लोगों के लिए बजाज स्कूटर क्या बुरा था जिसमें पूरा परिवार बैठ जाता था. खैर, आपको याद है वो मेरा स्टियरिंग? आज की तरह पावर स्टियरिंग नहीं था मुझमें जिसमें कई बटन हों. मैं आसानी से चलने वाली गाड़ी थी. जरा बताइए, मेरी मेंनटेनेंस पर कितना खर्च हुआ होगा भला?

संडे का वो दिन याद है जब मेरी धुलाई होती थी. क्या बड़े क्या बच्चे सब लग जाते थे मुझे चमकाने में और आज देखो सालों से पड़ी धूल खा रही हूं, लेकिन किसी को फिक्र ही नहीं. दिल्ली के जगजीत सिंह का नाम सुना है आपने. मेरे सबसे पुराने मॉडल को वो स्पोर्ट्स कार में बदल चुके हैं वो भी कनवर्टिबल. उन्होंने भी अपने हिसाब से मुझे बदल दिया, लेकिन फिर भी कम से कम प्यार तो जताया. आज कई लोग मुझे भूल चुके हैं, लेकिन दिल और घर के किसी कोने में अब भी मैं हूं.

- मारुति 800 से जुड़े रोचक तथ्य: मारुति 800 से जुड़ी मौतों की संख्या 3 लाख से भी ज्यादा है.

क्या आपको याद हूं मैं? वो पिकनिक जहां मेरी सवारी कर आप पहुंचे थे, वो छुट्टी वाले दिन की दोपहर जब आप गराज में खेला करते थे? बच्चों के साथ-साथ मैं भी तो बड़ी हुई हूं. या यूं कहूं अब बूढ़ी हो गई हूं. अब जमाना भी बदल गया है और लोगों को मेरी जरूरत नहीं रही, लेकिन क्या आप भूल पाएंगे कभी मुझे. जरा याद करिए. मैं ही तो थी.. कार आपके आंगन की.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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