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7 लाख मुसलमान साथ पढ़ेंगे नमाज; संख्‍या नहीं, उद्देश्‍य है ऐतिहासिक

    • चंदन कुमार
    • Updated: 24 सितम्बर, 2015 02:01 PM
  • 24 सितम्बर, 2015 02:01 PM
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भाइयों की लड़ाइयां आखिर कब तक! एक-दूसरे के खून के प्यासे शिया-सुन्नी इस ईद-उल-जुहा पर एक साथ नमाज अदा करेंगे. और लखनऊ की 'तहजीब' में एक और अध्याय जुड़ जाएगा.

लखनऊ अपनी पहचान के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी होने की मुहताज नहीं है. यह शहर नवाबों के शौक, तहजीब, खान-पान और चिकन कारीगरी के लिए मशहूर है. इनके अलावा अगर बदनामी से नाम मिलने को पैमाना माना जाए तो लखनऊ इसमें भी पीछे नहीं है. धर्मनिरपेक्ष भारत में इस्लाम को तो सभी जानते हैं, लेकिन इसमें शिया-सुन्नी जैसा भी कुछ होता है, इसे लखनऊ ने ही समझाया - दंगों के रूप में. लेकिन भाइयों की लड़ाइयां आखिर कब तक! एक-दूसरे के खून के प्यासे शिया-सुन्नी इस ईद-उल-जुहा पर एक साथ नमाज अदा करेंगे. और लखनऊ की 'तहजीब' में एक और अध्याय जुड़ जाएगा.   

शिया-सुन्नी के वर्चस्व और खुद को इस्लाम के रक्षक बताने के संघर्ष में जब इराक, सीरिया और पाकिस्तान में हर दिन लोग मारे जा रहे हैं, लखनऊ नई उम्मीद लेकर आया है. और इस उम्मीद को हवा दिया सोशल मीडिया ने. दरअसल इस पूरे मुहिम की शुरुआत ही एक वॉट्सएप ग्रुप - शोल्डर टू शोल्डर (Shoulder to Shoulder - S2S) से हुई. चूंकि एक ग्रुप में 100 से ज्यादा मेंबर नहीं हो सकते, ऐसे में S2S के ढेर सारे सिस्टर ग्रुप बने. इसके बाद फेसबुक पर इसे लेकर एक इवेंट भी तैयार किया गया. युवाओं की सोच सोशल मीडिया से होते हुए शिया-सुन्नी के धार्मिक गुरुओं तक पहुंची उन्हें भी आइडिया पसंद आया. हालांकि इस नेक काम में कुछ धार्मिक पेंच भी रोड़ा बन रहे थे लेकिन मिल-बैठ कर और सलाह लेकर उन्हें भी दूर कर लिया गया.

नमाज पर अड़ा था पेंचशिया और सुन्नी की नमाज में फर्क होता है. क्या दोनों एक साथ नमाज अदा कर सकते हैं, इसको लेकर इराक और इरान के इस्लामिक विद्वानों को लेटर लिखा गया और उधर से हां के जवाब आने पर लखनऊ में स्थानीय धार्मिक गुरुओं की बैठक हुई. दरअसल बकरीद की नमाज के बाद ही सुन्नी कुर्बानी दे सकते हैं जबकि शिया की नमाज दिन चढ़ने पर होती है. आपसी सलाह-मशविरा से 25 सितंबर की सुबह 8 बजे का समय तय किया गया - भाईचारे के लिए, इतिहास रचने के लिए.

लखनऊ में शिया-सुन्नी समीकरण : आंकड़े के अनुसार लगभग 1.25...

लखनऊ अपनी पहचान के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी होने की मुहताज नहीं है. यह शहर नवाबों के शौक, तहजीब, खान-पान और चिकन कारीगरी के लिए मशहूर है. इनके अलावा अगर बदनामी से नाम मिलने को पैमाना माना जाए तो लखनऊ इसमें भी पीछे नहीं है. धर्मनिरपेक्ष भारत में इस्लाम को तो सभी जानते हैं, लेकिन इसमें शिया-सुन्नी जैसा भी कुछ होता है, इसे लखनऊ ने ही समझाया - दंगों के रूप में. लेकिन भाइयों की लड़ाइयां आखिर कब तक! एक-दूसरे के खून के प्यासे शिया-सुन्नी इस ईद-उल-जुहा पर एक साथ नमाज अदा करेंगे. और लखनऊ की 'तहजीब' में एक और अध्याय जुड़ जाएगा.   

शिया-सुन्नी के वर्चस्व और खुद को इस्लाम के रक्षक बताने के संघर्ष में जब इराक, सीरिया और पाकिस्तान में हर दिन लोग मारे जा रहे हैं, लखनऊ नई उम्मीद लेकर आया है. और इस उम्मीद को हवा दिया सोशल मीडिया ने. दरअसल इस पूरे मुहिम की शुरुआत ही एक वॉट्सएप ग्रुप - शोल्डर टू शोल्डर (Shoulder to Shoulder - S2S) से हुई. चूंकि एक ग्रुप में 100 से ज्यादा मेंबर नहीं हो सकते, ऐसे में S2S के ढेर सारे सिस्टर ग्रुप बने. इसके बाद फेसबुक पर इसे लेकर एक इवेंट भी तैयार किया गया. युवाओं की सोच सोशल मीडिया से होते हुए शिया-सुन्नी के धार्मिक गुरुओं तक पहुंची उन्हें भी आइडिया पसंद आया. हालांकि इस नेक काम में कुछ धार्मिक पेंच भी रोड़ा बन रहे थे लेकिन मिल-बैठ कर और सलाह लेकर उन्हें भी दूर कर लिया गया.

नमाज पर अड़ा था पेंचशिया और सुन्नी की नमाज में फर्क होता है. क्या दोनों एक साथ नमाज अदा कर सकते हैं, इसको लेकर इराक और इरान के इस्लामिक विद्वानों को लेटर लिखा गया और उधर से हां के जवाब आने पर लखनऊ में स्थानीय धार्मिक गुरुओं की बैठक हुई. दरअसल बकरीद की नमाज के बाद ही सुन्नी कुर्बानी दे सकते हैं जबकि शिया की नमाज दिन चढ़ने पर होती है. आपसी सलाह-मशविरा से 25 सितंबर की सुबह 8 बजे का समय तय किया गया - भाईचारे के लिए, इतिहास रचने के लिए.

लखनऊ में शिया-सुन्नी समीकरण : आंकड़े के अनुसार लगभग 1.25 लाख शिया यहां रहते हैं जबकि सुन्नियों की आबादी लगभग 6.25 लाख है.

क्या है शिया और सुन्नी में अंतर  

मुसलमान मुख्य रूप से इन्हीं दो समुदायों में बंटे हैं. पूरी दुनिया में सुन्नी बहुसंख्यक हैं (85-90 प्रतिशत) जबकि शिया केवल (10-15 प्रतिशत, 12 से 17 करोड़ के बीच). मूल धर्म इस्लाम होने के बावजूद इनमें सिद्धांत, परम्परा, कानून, धर्मशास्त्र और धार्मिक संगठन का अंतर होता है.

इनमें सुन्नी वो मुसलमान हैं जो खुद को इस्लाम की सबसे धर्मनिष्ठ और पारंपरिक शाखा से मानते हैं. ये उन सभी पैगंबरों को मानते हैं, जिनका जिक्र कुरान में किया गया है और अंतिम पैगंबर के तौर पर ये पैगंबर मोहम्मद को मानते हैं. उनके बाद के सभी मुस्लिम नेताओं को ये सांसारिक शख्सियत के रूप में देखते हैं.  

शिया वो मुसलमान हैं, जो पैगंबर मोहम्मद की मौत के बाद उनके दामाद अली और उनके वंशजों को ही मुसलमानों का नेता मानते हैं. मुसलमानों का नेता या खलीफा कौन होगा, इसे लेकर हुए संघर्ष में अली मारे गए थे. उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी खलीफा होने के लिए संघर्ष किया था. इसमें हुसैन की मौत हुई थी, जबकि हसन को जहर दिया गया था. इसी कारण से शियाओं में शहादत और मातम मनाने को इतना महत्व दिया जाता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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