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मदरसों में नहीं होते फरिश्ते... करते हैं यौन शोषण!

    • चंदन कुमार
    • Updated: 02 दिसम्बर, 2015 02:10 PM
  • 02 दिसम्बर, 2015 02:10 PM
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धर्म की चादर बहुत मोटी होती है. और बहुत गंदी भी. तभी ऐसे तर्क सामने आ पाते हैं - मदरसे में फरिश्ते नहीं होते, इंसान होते हैं... उनमें भी सामाजिक बुराइयां होती हैं!!!

धर्म बड़ा या कर्म - स्कूल के दिनों में इस विषय पर एक भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था. जोरदार तर्क देते हुए मैंने कर्म को इंसानी जीवन की प्राथमिकता बताया था... जजों को प्रभावित करके इनाम भी जीत गया था. वक्त आगे बढ़ा. अब हर दिन देखता हूं कि कैसे राजनीति, सिनेमा से लेकर बाजार तक पर धर्म हावी है... कर्म के मेरे तर्क किताबों में सीमित होते चले गए. अफसोस लेकिन सच यही है... सच यही है क्योंकि मदरसों में यौन शोषण की खबरों पर हल्ला-हंगामा नहीं मचना किशोरावस्था के मेरे तर्कों पर हंसने का काम करता है.

धर्म की चादर बहुत मोटी होती है. और बहुत गंदी भी. इसका देश और संप्रदाय विशेष से कोई लेना-देना नहीं होता. क्या भारत, क्या यूरोप और अमेरिका... क्या हिंदुत्व, क्या इस्लाम और ईसाईयत! गंदगी भरी पड़ी है. बस दिखती नहीं है. क्योंकि चादर बहुत मोटी है. कभी-कभार कुछेक गलतियां सामने आ जाती हैं, वो भी गलती से. हंगामा विद्रोह की शक्ल ले, उससे पहले ही उसे झांप-पोत दिया जाता है. केरल की एक महिला पत्रकार राजीना द्वारा मदरसों में होने वाले यौन शोषण का खुलासा करने पर बवाल होना तो दूर उल्टे उन्हें ही धमकी दी गई. उनके फेसबुक अकाउंट तक को ब्लॉक कर दिया गया!

धर्म और वोट बैंक साथ-साथ चलता है. ऐसे में इन आरोपों को देखते हुए राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर कुछ कदम उठाए जाएं... यह असंभव है - जब तक पानी सिर से ऊपर न चला जाए, तब तक तो निश्चित ही. ऐसे में जो पीड़ित लोग हैं और साथ ही हिम्मती भी, वो ही आपके साथ खड़े होते हैं. मलयालम फिल्मों के डायरेक्टर अली अकबर ने राजीना का साथ दिया - मदरसे में एक उस्ताद (शिक्षक) के द्वारा यौन शोषण की आपबीती सुनाकर.

यह दोनों खबरें खबर तक ही सीमित रह गए. कोई वाद-विवाद-संवाद या हंगामा नहीं. और तो और, केरल के सुन्नी मुस्लिम नेता कांथापूरम अबूबकर मुस्लियार ने पूरे केरल के मदरसों को यौन शोषण से मुक्त करार दे दिया! ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) की राय भी तार्किक है - मदरसे में फरिश्ते नहीं होते,...

धर्म बड़ा या कर्म - स्कूल के दिनों में इस विषय पर एक भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था. जोरदार तर्क देते हुए मैंने कर्म को इंसानी जीवन की प्राथमिकता बताया था... जजों को प्रभावित करके इनाम भी जीत गया था. वक्त आगे बढ़ा. अब हर दिन देखता हूं कि कैसे राजनीति, सिनेमा से लेकर बाजार तक पर धर्म हावी है... कर्म के मेरे तर्क किताबों में सीमित होते चले गए. अफसोस लेकिन सच यही है... सच यही है क्योंकि मदरसों में यौन शोषण की खबरों पर हल्ला-हंगामा नहीं मचना किशोरावस्था के मेरे तर्कों पर हंसने का काम करता है.

धर्म की चादर बहुत मोटी होती है. और बहुत गंदी भी. इसका देश और संप्रदाय विशेष से कोई लेना-देना नहीं होता. क्या भारत, क्या यूरोप और अमेरिका... क्या हिंदुत्व, क्या इस्लाम और ईसाईयत! गंदगी भरी पड़ी है. बस दिखती नहीं है. क्योंकि चादर बहुत मोटी है. कभी-कभार कुछेक गलतियां सामने आ जाती हैं, वो भी गलती से. हंगामा विद्रोह की शक्ल ले, उससे पहले ही उसे झांप-पोत दिया जाता है. केरल की एक महिला पत्रकार राजीना द्वारा मदरसों में होने वाले यौन शोषण का खुलासा करने पर बवाल होना तो दूर उल्टे उन्हें ही धमकी दी गई. उनके फेसबुक अकाउंट तक को ब्लॉक कर दिया गया!

धर्म और वोट बैंक साथ-साथ चलता है. ऐसे में इन आरोपों को देखते हुए राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर कुछ कदम उठाए जाएं... यह असंभव है - जब तक पानी सिर से ऊपर न चला जाए, तब तक तो निश्चित ही. ऐसे में जो पीड़ित लोग हैं और साथ ही हिम्मती भी, वो ही आपके साथ खड़े होते हैं. मलयालम फिल्मों के डायरेक्टर अली अकबर ने राजीना का साथ दिया - मदरसे में एक उस्ताद (शिक्षक) के द्वारा यौन शोषण की आपबीती सुनाकर.

यह दोनों खबरें खबर तक ही सीमित रह गए. कोई वाद-विवाद-संवाद या हंगामा नहीं. और तो और, केरल के सुन्नी मुस्लिम नेता कांथापूरम अबूबकर मुस्लियार ने पूरे केरल के मदरसों को यौन शोषण से मुक्त करार दे दिया! ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) की राय भी तार्किक है - मदरसे में फरिश्ते नहीं होते, इंसान होते हैं... उनमें भी सामाजिक बुराइयां होती हैं. मामला यहीं कंफ्यूज करता है. इस मुद्दे पर अगर AIMPLB तार्किक है तो...


- राजीना कहां गलत है?
- मदरसों को साधारण स्कूल क्यों नहीं माना जाता, धर्म से जोड़ कर क्यों देखा जाता है?
- चर्च में भी इंसान ही होते हैं, वहां होने वाली यौन शोषणों को धर्म के नाम पर क्यों झांप-पोत दिया जाता है?
- मंदिरों में भी इंसान ही होते हैं, उनकी अकूत धन-संपदा आयकर के दायरे से बाहर क्यों?

4 साल की मेरी बिटिया भी स्कूल जाने लगी है. चाहता तो यही हूं कि जब वो बड़ी हो तो उसे अपने तर्क न बदलने पड़ें... लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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