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समाज

अरुणा नहीं, हमारी संवेदना 42 साल कोमा में रही

    • धीरेंद्र राय
    • Updated: 18 मई, 2015 06:54 AM
  • 18 मई, 2015 06:54 AM
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पिछले 42 साल से कोमा में रही नर्स अरुणा शानबाग का सोमवार को निधन हो गया. अरुणा ने समाज के सामने जो सवाल रखे, उनके प्रति समाज में बेरुखी ने जता दिया कि वह भी कोमा में ही है.

वैसा तो उसका नाम था अरूणा शानबाग. लेकिन पिछले 42 वर्षों से हमारे समाज के सामने वह एक सवाल के रूप में थी. इस दौरान वह जिस पीड़ा से गुजरी उसे बयां तो कभी नहीं कर पाई, लेकिन उसके आसपास मौजूद लोगों ने खूब महसूस किया. कसमसाए. अरुणा का दर्द दूर करने के लिए कोर्ट से मदद मांगी गई, लेकिन राहत नहीं मिली. कभी लोगों की सेवा करने घर से निकली इस नर्स के साथ उसके अस्पताल के ही सहकर्मी ने दुष्कर्म किया. उसकी क्रूरता ने अरुणा को 42 साल कोमा में रखा. और अरुणा की पीड़ा से मुंह मोड़े हमारा सिस्टम भी वहीं कोमा में पड़ा रहा.

1980 में बीएमसी ने केईएम हॉस्पिटल से अरुणा को बाहर करके वह बेड खाली कराने की कोशिश की, जिस पर वह सात साल से लेटी थी. लेकिन अस्पताल की नर्सों ने हड़ताल कर दी. उन्होंने न केवल अरुणा के बहतर इलाज की मांग की, बल्कि काम के दौरान बाकी नर्सों की सुरक्षा कड़ी करने का आश्वासन भी मांगा. बीएमसी को अपनी मुहिम रोकनी पड़ी.

वह 1966 में नर्स के पेशे से जुड़ी थी. 1973 में उस पर एक वहशी की नजर पड़ गई. उसने क्रूरता की सारी हदें पार कर करते हुए बलात्कार के दौरान कुत्ता बांधने वाली चेन से अरूणा के गले को ऐसे कसा कि उसके मस्तिष्क का रक्त प्रवाह ही रुक गया. वह कोमा में चली गई. अरूणा को इलाज के लिए  के.ई.एम. अस्पताल में भर्ती कराया गया. लेकिन अच्छे से अच्छा इलाज भी उसे कोमा से बाहर न निकाल सका.

तब से अरूणा शानबाग वार्ड नं. 4 की स्थाई मरीज बन गई. एक जिंदा लाश. डॉक्टरों ने साफ कर दिया कि वे कभी कोमा से बाहर नहीं आएंगी. और यदि आएंगी तो वह कोई चमत्कार ही होगा. कोई फर्क न देख उसकी संरक्षक पिंकी वीरानी ने 2010 में आखिर सुप्रीम कोर्ट में...

वैसा तो उसका नाम था अरूणा शानबाग. लेकिन पिछले 42 वर्षों से हमारे समाज के सामने वह एक सवाल के रूप में थी. इस दौरान वह जिस पीड़ा से गुजरी उसे बयां तो कभी नहीं कर पाई, लेकिन उसके आसपास मौजूद लोगों ने खूब महसूस किया. कसमसाए. अरुणा का दर्द दूर करने के लिए कोर्ट से मदद मांगी गई, लेकिन राहत नहीं मिली. कभी लोगों की सेवा करने घर से निकली इस नर्स के साथ उसके अस्पताल के ही सहकर्मी ने दुष्कर्म किया. उसकी क्रूरता ने अरुणा को 42 साल कोमा में रखा. और अरुणा की पीड़ा से मुंह मोड़े हमारा सिस्टम भी वहीं कोमा में पड़ा रहा.

1980 में बीएमसी ने केईएम हॉस्पिटल से अरुणा को बाहर करके वह बेड खाली कराने की कोशिश की, जिस पर वह सात साल से लेटी थी. लेकिन अस्पताल की नर्सों ने हड़ताल कर दी. उन्होंने न केवल अरुणा के बहतर इलाज की मांग की, बल्कि काम के दौरान बाकी नर्सों की सुरक्षा कड़ी करने का आश्वासन भी मांगा. बीएमसी को अपनी मुहिम रोकनी पड़ी.

वह 1966 में नर्स के पेशे से जुड़ी थी. 1973 में उस पर एक वहशी की नजर पड़ गई. उसने क्रूरता की सारी हदें पार कर करते हुए बलात्कार के दौरान कुत्ता बांधने वाली चेन से अरूणा के गले को ऐसे कसा कि उसके मस्तिष्क का रक्त प्रवाह ही रुक गया. वह कोमा में चली गई. अरूणा को इलाज के लिए  के.ई.एम. अस्पताल में भर्ती कराया गया. लेकिन अच्छे से अच्छा इलाज भी उसे कोमा से बाहर न निकाल सका.

तब से अरूणा शानबाग वार्ड नं. 4 की स्थाई मरीज बन गई. एक जिंदा लाश. डॉक्टरों ने साफ कर दिया कि वे कभी कोमा से बाहर नहीं आएंगी. और यदि आएंगी तो वह कोई चमत्कार ही होगा. कोई फर्क न देख उसकी संरक्षक पिंकी वीरानी ने 2010 में आखिर सुप्रीम कोर्ट में अरूणा की मृत्यु के लिए आवेदन किया. उसने कहा कि लगातार 36 साल से कोमा में पड़ी 59 साला अरूणा शानबाग को इच्छा मृत्यु की अनुमति दी जाए.

इस सवाल पर तत्कालीन चीफ जस्टिस के.जी. बालकृष्णन की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय बेंच ने कहा कि ‘हम किसी व्यक्ति को मरने की अनुमति नहीं दे सकते.’ लेकिन जब अरुणा के वकील ने कहा कि यह इच्छा मृत्यु का मामला नहीं है, तब महाराष्ट्र सरकार और केन्द्र सरकार को नोटिस इश्यू किया गया. अंत तक कोई नतीजा नहीं निकल पाया. अरुणा की मांग ठुकरा दी गई.

तीन दिन पहले हालत बिगड़ने पर अरुणा को फिर वेंटीलेटर पर रखा गया. जहां उसने सोमवार की सुबह अंतिम सांस ली. और पीछे छोड़ गई कई सवाल-

1. हमारा कानून अपराधी के प्रति मानवता दिखाने की बात करता है, पीडि़त के लिए ऐसा क्यों नहीं है?

2. अरुणा का बलात्कारी सात साल बाद रिहा होकर आराम की जिंदगी गुजारता रहा, तो अरुणा इतने साल किस बात की सजा भुगती?

3. असहनीय पीड़ा और लाइलाज बीमारियों से जूझ रहे लोगों को इच्छा मृत्यु की इजाजत मिले, क्या इस पर गंभीर और तर्कपूर्ण बहस की जरूरत नहीं है, जो किसी नतीजे तक पहुंचे?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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