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अकबर से महाराण प्रताप की तुलना करना ठीक नहीं है

    • उदय माहुरकर
    • Updated: 09 जुलाई, 2015 11:49 AM
  • 09 जुलाई, 2015 11:49 AM
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हमारे देश में महाराणा प्रताप को हमेशा मुगल बादशाह अकबर के सामने खड़ा कर देना एक रणनीति सी बन गई है. खासकर कथित राष्ट्रवादी हिंदू ब्रिगेड के कुछ लोगों ने कई बार ऐसी तुलना करने की कोशिश की है.

ऐसा लगता है कि हमारे देश में महाराणा प्रताप को हमेशा मुगल बादशाह अकबर के सामने खड़ा कर देना एक रणनीति सी बन गई है. खासकर कथित राष्ट्रवादी हिंदू ब्रिगेड के कुछ लोगों ने कई बार ऐसी तुलना करने की कोशिश की है. अब इस बहस में एक और नया नाम जुड़ गया है. राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने हाल में यह कहकर नई बहस छेड़ दी कि राणा प्रताप हर हाल में अकबर से महान थे. कल्याण सिंह के अनुसार दोनों के बीच तुलना घिनौनी है क्योंकि अकबर एक विदेशी था. कल्याण सिंह यहीं नहीं रूके और इतिहास की कम जानकारी का एक और नमूना पेश किया. कल्याण सिहं के अनुसार, 'अकबर ने कभी राष्ट्र के लिए काम नहीं किया और इसलिए उनके नाम के आगे से 'महान' शब्द हटा देना चाहिए.'

लेकिन यह दोनों बिल्कुल विरोधी ऐतिहासिक पात्र क्या अलग-अलग कारणों से समाज और राष्ट्र के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं हुए हैं?

एक सच्चा देश भक्त कभी इतिहास की गलत बयानी नहीं करता. विभिन्न मौकों पर इतिहास को गलत तरीके से पेश करना भी हमारे समाज को कई बार तोड़ने का काम करता है और यह किसी भी राष्ट्र के विकास में बाधक है. यही भारत के साथ होता रहा है. कई वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास को बदल कर पेश करने की कोशिश की है. नतीजा यह हुआ कि भारतीयों का एक वर्ग इतिहास के कुछ हिस्सों को लेकर गौरव महसूस करता ही नहीं है. कुछ लोग सल्तनत काल में 350 वर्षों तक हिंदूओं पर हुए अत्याचार को कम करके आंकते हैं. यह अत्याचार उस समय शुरू हुआ जब शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी ने 1193 में पृथ्वीराज चौहान को हराया. कुछ लोगों ने राणा प्रताप की भूमिका कम कर के आंकने की कोशिश की. सभी अपने-अपने वैचारिक कारणों से ऐसा करते रहे हैं. ऐसे ही कई हिंदू ब्रिगेड भी उन मुस्लिम शासकों की सराहना नहीं करना चाहते, जो अपनी शासन व्यवस्था के कारण हिंदूओं के बीच भी काफी लोकप्रिय रहे. इसमें अकबर, कश्मीर के जैनुल आबेदिन, बिजापुर के इब्राहिम आदिल शाह, गोलकोंडा के अबुल हसन, अवध के वाजिद अली शाह, शाह आलम द्वितीय और यहां तक की जहांगीर भी शामिल हैं.

 इन वैचारिक...

ऐसा लगता है कि हमारे देश में महाराणा प्रताप को हमेशा मुगल बादशाह अकबर के सामने खड़ा कर देना एक रणनीति सी बन गई है. खासकर कथित राष्ट्रवादी हिंदू ब्रिगेड के कुछ लोगों ने कई बार ऐसी तुलना करने की कोशिश की है. अब इस बहस में एक और नया नाम जुड़ गया है. राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने हाल में यह कहकर नई बहस छेड़ दी कि राणा प्रताप हर हाल में अकबर से महान थे. कल्याण सिंह के अनुसार दोनों के बीच तुलना घिनौनी है क्योंकि अकबर एक विदेशी था. कल्याण सिंह यहीं नहीं रूके और इतिहास की कम जानकारी का एक और नमूना पेश किया. कल्याण सिहं के अनुसार, 'अकबर ने कभी राष्ट्र के लिए काम नहीं किया और इसलिए उनके नाम के आगे से 'महान' शब्द हटा देना चाहिए.'

लेकिन यह दोनों बिल्कुल विरोधी ऐतिहासिक पात्र क्या अलग-अलग कारणों से समाज और राष्ट्र के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं हुए हैं?

एक सच्चा देश भक्त कभी इतिहास की गलत बयानी नहीं करता. विभिन्न मौकों पर इतिहास को गलत तरीके से पेश करना भी हमारे समाज को कई बार तोड़ने का काम करता है और यह किसी भी राष्ट्र के विकास में बाधक है. यही भारत के साथ होता रहा है. कई वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास को बदल कर पेश करने की कोशिश की है. नतीजा यह हुआ कि भारतीयों का एक वर्ग इतिहास के कुछ हिस्सों को लेकर गौरव महसूस करता ही नहीं है. कुछ लोग सल्तनत काल में 350 वर्षों तक हिंदूओं पर हुए अत्याचार को कम करके आंकते हैं. यह अत्याचार उस समय शुरू हुआ जब शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी ने 1193 में पृथ्वीराज चौहान को हराया. कुछ लोगों ने राणा प्रताप की भूमिका कम कर के आंकने की कोशिश की. सभी अपने-अपने वैचारिक कारणों से ऐसा करते रहे हैं. ऐसे ही कई हिंदू ब्रिगेड भी उन मुस्लिम शासकों की सराहना नहीं करना चाहते, जो अपनी शासन व्यवस्था के कारण हिंदूओं के बीच भी काफी लोकप्रिय रहे. इसमें अकबर, कश्मीर के जैनुल आबेदिन, बिजापुर के इब्राहिम आदिल शाह, गोलकोंडा के अबुल हसन, अवध के वाजिद अली शाह, शाह आलम द्वितीय और यहां तक की जहांगीर भी शामिल हैं.

 इन वैचारिक ब्रिगेडों की एक नई कोशिश राणा प्रताप को अकबर की तुलना में खड़ा करना है. इसके बाद वे उन इतिहासकारों या लेखकों का हवाला देने लगते हैं जिन्होंने इतिहास को कभी निष्पक्ष नजरिए से नहीं देखा. अकबर उन इतिहासकारों की नजर में सबसे बड़ा खलनायक है. इस बहस में कूदने के मामले में कल्याण सिंह का नाम भले ही नया हो लेकिन आखिरी नहीं है. कोई शक नहीं कि राणा प्रताप की देशभक्ति की कोई बराबरी नहीं कर सकता. यही कारण है कि इश्वरी प्रसाद जैसे इतिहासकार ने अकबर के खिलाफ लड़ाई के दिनों में अरावली की पहाड़ियों और जगंलों में उनके संघर्ष को विशेष बताया है. उन्हें भारतीय देशभक्त के तौर पर बेहद ऊंचा दर्जा दिया है.

चितौड़ पर चढ़ाई और उसे जीतना अकबर की जिंदगी पर एक धब्बे की तरह पेश किया जाता रहा है. लेकिन क्या एक ईमानदार इतिहासकार इस बात से इंकार करेंगे कि चितौड़ प्रकरण के बाद अकबर ने कितनी उदारवादी नीतियां अपनाई. अकबर ने जैन और कई हिंदू संतों से मिलने के बाद मंदिरों को गिराने पर प्रतिबंध लगाया. हिंदूओं पर लगाए जाने वाले जजिया कर और गायों के वध पर रोक लगाई गई. 1193 और सुल्तान इल्तुतमिश के शासन काल के बाद से हर मुस्लिम शासक ने दमनकारी नीति अपनाई. लेकिन अकबर के बाद से इसमें बदलाव आया. खासकर 1571 के करीब गुजरात के जैन संत आचार्य हिरविजयजी से मुलाकात के बाद अकबर की उदारता के रोचक किस्से जैन किताबों में देखने को मिलते हैं.

अकबर को क्यों सुधारवादी मुस्लिम शासक के तौर पर देखा जा सकता है. इसका एक और कारण है. आज सुन्नी मुस्लिम दुनिया तीन भागों में बटी हुई है- वैसे वहाबी जो ISIS जैसे कट्टर आतंकी संगठनों का समर्थन करते हैं, दूसरे उदारवादी वहाबी और तीसरे दरगाह-पूजा करने वाले सूफी जो वहाबियों का विरोध करते हैं. यह दिलचस्प है कि कट्टर उपदेशक के तौर पर पहचाने जाने वाले शेख अहमद शिरहिंदी ने जब अकबर की उदारवादी नीतियों की आलोचना की तो इस मुगल शासक ने उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए. ऐसे में वे मुस्लिम, जो ISIS के खिलाफ लड़ रहे हैं उन्हें क्या अकबर ब्रिगेड के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए?

सरल शब्दों में कहें तो राणा प्रताप को अकबर के खिलाफ बार-बार खड़ा करने की कोशिश शायद आज की तेजी से बदलती दुनिया में आधुनिक मुसलमानों को कोई जगह न देने की कोशिश है. भारतीय संदर्भ में भी यह बात लागू होती है जहां वहाबी हार्डलाइनर्स के कुछ वर्गों से ही इस्लामिक आतंकवाद निकल रहा है न कि सुन्नी इस्लाम के सूफी वर्ग से. सूफी और वहाबी में एक बड़ा अंतर है. सूफी मुस्लिम हिंदू-मुस्लिम की साझा सभ्यता से उपजी कई दूसरी पद्धतियों का इस्तेमाल करते हैं. वहीं, वहाबी उन तरीकों को गैर-मुस्लिम बताकर उसका विरोध करते रहे हैं. ISIS की शुरुआत और वहाबी समर्थकों द्वारा पाकिस्तान में हाल में हुए कई बेरहम आतंकी घटनाओं ने जरूर वहाबियों के कुछ वर्गों को कट्टरता छोड़ने पर मजबूर किया है.

गौर करने वाली बात है कि भारत में अब भी 65 प्रतिशत सुन्नी मुस्लिम दरगाह की पूजा करने वालों में से हैं जबकि बाकी के वहाबी हैं. यह भारत सहित पाकिस्तान में भी हैं और देवबंद स्कूल और इससे जुड़ी संस्थाओं जैसे तबलिग जमात, एहले हदीस आदि अन्य तंजीमों के समर्थक हैं. इन्हीं तंजीमों की विचारधारा की परवरिश पाकिस्तान का लश्करे तैयबा भी करता है. इस लिहाज से अकबर को इस्लामिक उदारवाद बनाए रखने का श्रेय तो दिया ही जा सकता है.

मेरे एक दोस्त ने हाल में मुझसे पूछा कि 10 नवंबर, 1659 को छत्रपति शिवाजी द्वारा मारा गया अफजल खान क्या सूफी था या औरंगजेब. मैंने उससे कहा कि 9/11 के बाद से इस सवाल के कोई मायने नहीं रह गए हैं. क्योंकि आज के दौर में और दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई आतंकी दरगाह की पूजा करने वाले मुस्लिमों में से नहीं आता. इसलिए सूफियों को आपको उदारवादी छवि में रखना होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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