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जब भाषा को लेकर सियासत हो, तो बैंक वाली नौकरी भी दाव पर लग सकती है

    • आईचौक
    • Updated: 09 अगस्त, 2017 02:01 PM
  • 09 अगस्त, 2017 02:01 PM
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कर्नाटक में भाषा को लेकर जो संग्राम मचा हुआ है वो ये बताने के लिए काफी है कि, अब हम उस ओर जा रहे हैं जहां से हमें विकासशील से विकसित राष्ट्र बनने में अभी बहुत लम्बा वक्त लगेगा.

एक वक्त से अब तक हम यही सुनते आ रहे थे कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जो लोकतांत्रिक है. एक ऐसा देश जहां का संविधान हमें खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, लिखने-पढ़ने की पूरी आजादी देता है. एक ऐसा संविधान जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत, साफ तौर पर हमें ये बताता है कि हम पर किसी भी तरह की कोई भी चीज या इच्छा नहीं थोपी जा सकती है. हम जो भी करेंगे उसपर हमारा सम्पूर्ण अधिकार होगा और उसे हम स्वेच्छा से करेंगे.

शायद ये गुजरे दौर की बात थी, आज हालात दूसरे हैं. खाने-पीने से लेकर उठने -बैठने तक हर चीज हमको सिखाई और बताई जा रही है. कहा जा सकता है कि आज के वक्त में हमारी सांस पर भी हमारा अधिकार नहीं है. उसे लेने के तरीके भी अब हमें दूसरों द्वारा बताए जा रहे हैं.

भाषा पर जिस तरह आज राजनीति हो रही है वो कई मायनों में चिंता का विषय

एक हद तक ये कहना भी अतिश्योक्ति न होगी कि अब हम बौद्धिक आपातकाल के दौर में हैं और एक ऐसा जीवन जी रहे हैं जिसमें हमारा अपना कोई अस्तित्व नहीं है. जी हां सही सुन रहे हैं आप. आज हम आपको जिस खबर से अवगत कराने जा रहे हैं उसके बाद कई चीजें और कई बातें अपने आप साफ हो जाएंगी. खबर कर्नाटक से है, जहां कर्नाटक डेवलपमेंट अथॉरिटी (केडीए) ने राष्ट्रीय, ग्रामीण और प्राइवेट बैंकों के रीजनल हेड्स को अनिवार्य रुप से कन्नड़ भाषा सीखने के आदेश दिए हैं.

इस आदेश पर एक नजर डालें तो मिलता है कि, राज्य के बैंकों में काम करने वाले गैर-कन्नड़ भाषी कर्मचारी यदि 6 महीनों के अन्दर कन्नड़ भाषा नहीं सीख पाए तो किसी भी क्षण उन्हें नौकरी से निकाला जा सकता है. राज्य में कन्नड़ को लेकर कर्नाटक डेवलपमेंट अथॉरिटी का मत है कि कन्नड़ भाषा में कामकाज को सभी तरह की बैंक शाखाओं में अनिवार्य किया जाना चाहिए.

इस विषय पर केडीए ये भी मानता है कि कन्नड़...

एक वक्त से अब तक हम यही सुनते आ रहे थे कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जो लोकतांत्रिक है. एक ऐसा देश जहां का संविधान हमें खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, लिखने-पढ़ने की पूरी आजादी देता है. एक ऐसा संविधान जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत, साफ तौर पर हमें ये बताता है कि हम पर किसी भी तरह की कोई भी चीज या इच्छा नहीं थोपी जा सकती है. हम जो भी करेंगे उसपर हमारा सम्पूर्ण अधिकार होगा और उसे हम स्वेच्छा से करेंगे.

शायद ये गुजरे दौर की बात थी, आज हालात दूसरे हैं. खाने-पीने से लेकर उठने -बैठने तक हर चीज हमको सिखाई और बताई जा रही है. कहा जा सकता है कि आज के वक्त में हमारी सांस पर भी हमारा अधिकार नहीं है. उसे लेने के तरीके भी अब हमें दूसरों द्वारा बताए जा रहे हैं.

भाषा पर जिस तरह आज राजनीति हो रही है वो कई मायनों में चिंता का विषय

एक हद तक ये कहना भी अतिश्योक्ति न होगी कि अब हम बौद्धिक आपातकाल के दौर में हैं और एक ऐसा जीवन जी रहे हैं जिसमें हमारा अपना कोई अस्तित्व नहीं है. जी हां सही सुन रहे हैं आप. आज हम आपको जिस खबर से अवगत कराने जा रहे हैं उसके बाद कई चीजें और कई बातें अपने आप साफ हो जाएंगी. खबर कर्नाटक से है, जहां कर्नाटक डेवलपमेंट अथॉरिटी (केडीए) ने राष्ट्रीय, ग्रामीण और प्राइवेट बैंकों के रीजनल हेड्स को अनिवार्य रुप से कन्नड़ भाषा सीखने के आदेश दिए हैं.

इस आदेश पर एक नजर डालें तो मिलता है कि, राज्य के बैंकों में काम करने वाले गैर-कन्नड़ भाषी कर्मचारी यदि 6 महीनों के अन्दर कन्नड़ भाषा नहीं सीख पाए तो किसी भी क्षण उन्हें नौकरी से निकाला जा सकता है. राज्य में कन्नड़ को लेकर कर्नाटक डेवलपमेंट अथॉरिटी का मत है कि कन्नड़ भाषा में कामकाज को सभी तरह की बैंक शाखाओं में अनिवार्य किया जाना चाहिए.

इस विषय पर केडीए ये भी मानता है कि कन्नड़ में कामकाज न होने के कारण ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों को बैंकिंग सुविधाओं में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जिस कारण वो इसका इस्तेमाल नहीं कर पाते. आपको बताते चलें कि, अपनी भाषा को लेकर फिक्रमंद केडीए ने राज्य में कार्यरत बैंकों को ये भी निर्देश दिया है कि वो हिंदी यूनिट की तर्ज पर अपने बैंकों की सभी शाखाओं में एक कन्नड़ यूनिट खोले और वहां एक कर्मचारी की नियुक्ति की जाए.

ध्यान रहे कि इस पूरे प्रकरण को राज्य के मुख्यमंत्री का भी संरक्षण प्राप्त है और इस मामले की गंभीरता को लेकर उनका तर्क है कि वो और उनकी सरकार, बैंकों द्वारा स्थानीय कन्नड़ भाषी लोगों के साथ किए जा रहे इस भेदभाव को सहन नहीं करेगी और इसपर उचित कार्यवाही करेगी.

गौरतलब है कि ऐसा पहली बार नहीं है कि राज्य में भाषा को लेकर बवाल मचा है. इससे पहले कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर में भी मेट्रो में कन्नड़ के बजाए हिन्दी के इस्तेमाल को लेकर भारी बवाल देखने को मिला था, जहां राजधानी बैंगलोर के लोगों का मत था कि उन पर जबरन हिन्दी को थोपा जा रहा है.

बहरहाल, इस पूरे मामले पर यही कहा जा सकता है कि अब इस देश में हर चीज को लेकर युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है और आज हालात ये हैं कि लोग खान-पान से लेकर भाषा-बोली जैसी हर छोटी बड़ी बात से आहत हो जाते हैं और एक दूसरे के प्रति आक्रामक रुख अख्तियार कर लेते हैं. कर्नाटक में भाषा को लेकर जो कुछ भी हो रहा है वो ये बताने के लिए काफी है कि अभी भी हम उन बातों से कोसों दूर हैं जो हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं.

जिस दौर में लोगों को अच्छी शिक्षा, नौकरी, महंगाई जैसी चीजों के विषय में सोचना चाहिए, यदि उस दौर में लोग भाषा जैसी चीज पर बहस कर, जान ले और दे रहे हैं तो ये बात इस ओर साफ इशारा कर रही है कि अभी हमें विकासशील से विकसित बनने में लम्बा वक्त लगेगा.  

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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