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कोटा की कोचिंग: क्या फेल होने का मतलब मौत है?

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 03 जनवरी, 2016 11:43 AM
  • 03 जनवरी, 2016 11:43 AM
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मेडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए जिस शहर का नाम सबसे पहले आता है, वो है कोटा. मां-बाप की उम्मीदों और छात्रों के सपनों का ये शहर अब छात्रों की बढ़ती आत्महत्याओं की खबरों से डराने लगा है.

आए दिन कोटा से किसी न किसी छात्र की मौत की खबर आ जाती है. पिछले पांच सालों में यहां पढ़ने वाले छात्रों में से करीब 70 से ज्यादा बच्चों ने आत्महत्या कीं. इसी साल 30 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया. पर क्यों? प्रवेश परीक्षा में सलेक्शन की गारंटी देने वाला कोटा, असफल होने पर मौत का अलार्म क्यों बनता जा रहा है?  

सफलता की उम्मीदों को पंख देते हैं ये कोचिंग सेंटर

हमारे देश में IIT और मेडिकल प्रवेश परीक्षा का स्तर इस तरह का है कि इसमें चयन होने वाले छात्रों पर गर्व किया जाता है और चयन न होने पर छात्रों को बेकार या नालायक भी घोषित कर दिया जाता है. सुनहरे भविष्य के लिए हर छात्र अच्छे संस्थान में प्रवेश पाना चाहता है और वहां तक पहुंचने की गलियां कोटा से ही होकर जाती हैं. एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी छात्रों को ऐसी किसी भी गली से गुजरना नहीं पड़ता, वो अपने दिमाग और टेलेंट की बदौलत कम्पटीशन क्लीयर कर लेते हैं. लेकिन ऑर्डनरी या फिर सामान्य छात्रों की संख्या इन ब्रेनीज़ से कहीं ज्यादा होती है. लिहाजा कोचिंग सेंटर ही उन्हें वो रास्ता दिखाते हैं. हर कोई अपने बच्चों को सफल देखना चाहता है. सफलता की उम्मीदों को पंख देते हैं ये कोचिंग सेंटर. 10वीं 12वीं करते ही मां बाप अपने बच्चों को इनके सुपुर्द कर देते हैं.

क्या है कोचिंग सेंटर और हॉस्टल की भूमिका- 

कोटा के कोचिंग सेंटर सलेक्शन की गरंटी देते हैं. बच्चों को बारीकियां समझाते हैं, मेहनत करना सिखाते हैं और ये भी बताते हैं कि उनके बिना सलेक्शन लेना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है. इसीलिए मनमाफिक फीस वसूलने के लिए वो पूरी तरह से आजाद हैं. कोचिंग सेंटर पर शिक्षा बेची जाती है, वो भी लाखों में. कोटा का कोचिंग बिजनेस करीब एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का हो चुका है, कोटा में करीब ढ़ाई लाख छात्र तैयारी करते हैं, जो रहने के लिए सिर्फ हॉस्टल और पीजी पर ही निर्भर हैं. एक छोटे से कमरे का किराया करीब 10,000रुपए होता है, खाने और बिजली का अलग. हाल ही में...

आए दिन कोटा से किसी न किसी छात्र की मौत की खबर आ जाती है. पिछले पांच सालों में यहां पढ़ने वाले छात्रों में से करीब 70 से ज्यादा बच्चों ने आत्महत्या कीं. इसी साल 30 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया. पर क्यों? प्रवेश परीक्षा में सलेक्शन की गारंटी देने वाला कोटा, असफल होने पर मौत का अलार्म क्यों बनता जा रहा है?  

सफलता की उम्मीदों को पंख देते हैं ये कोचिंग सेंटर

हमारे देश में IIT और मेडिकल प्रवेश परीक्षा का स्तर इस तरह का है कि इसमें चयन होने वाले छात्रों पर गर्व किया जाता है और चयन न होने पर छात्रों को बेकार या नालायक भी घोषित कर दिया जाता है. सुनहरे भविष्य के लिए हर छात्र अच्छे संस्थान में प्रवेश पाना चाहता है और वहां तक पहुंचने की गलियां कोटा से ही होकर जाती हैं. एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी छात्रों को ऐसी किसी भी गली से गुजरना नहीं पड़ता, वो अपने दिमाग और टेलेंट की बदौलत कम्पटीशन क्लीयर कर लेते हैं. लेकिन ऑर्डनरी या फिर सामान्य छात्रों की संख्या इन ब्रेनीज़ से कहीं ज्यादा होती है. लिहाजा कोचिंग सेंटर ही उन्हें वो रास्ता दिखाते हैं. हर कोई अपने बच्चों को सफल देखना चाहता है. सफलता की उम्मीदों को पंख देते हैं ये कोचिंग सेंटर. 10वीं 12वीं करते ही मां बाप अपने बच्चों को इनके सुपुर्द कर देते हैं.

क्या है कोचिंग सेंटर और हॉस्टल की भूमिका- 

कोटा के कोचिंग सेंटर सलेक्शन की गरंटी देते हैं. बच्चों को बारीकियां समझाते हैं, मेहनत करना सिखाते हैं और ये भी बताते हैं कि उनके बिना सलेक्शन लेना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है. इसीलिए मनमाफिक फीस वसूलने के लिए वो पूरी तरह से आजाद हैं. कोचिंग सेंटर पर शिक्षा बेची जाती है, वो भी लाखों में. कोटा का कोचिंग बिजनेस करीब एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का हो चुका है, कोटा में करीब ढ़ाई लाख छात्र तैयारी करते हैं, जो रहने के लिए सिर्फ हॉस्टल और पीजी पर ही निर्भर हैं. एक छोटे से कमरे का किराया करीब 10,000रुपए होता है, खाने और बिजली का अलग. हाल ही में जिले के खाद्य सुरक्षा प्रकोष्ठ ने जांच की जिसमें 228 मेस और फूड सेंटर पर खाने की क्वालिटी खराब पाई गई. आप खुद ही अंदाजा लगाएं कि बच्चों को क्या परोसा जा रहा होगा. कोचिंग सेंटर और हॉस्टल के लिए ये बच्चे महज कमाई का साधन हैं. ऐसे में अगर कोई छात्र आत्महत्या करता है तो ये दोनों ही पल्ला छाड़ लेते हैं. क्योंकि इनका कहना है कि वो बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं ले रहे, सिर्फ अपना बिजनेस कर रहे हैं.

क्यों बढ़ रही हैं आत्महत्याएं-

अथाह उम्मीदें- आत्महत्याओं के लिए अभिभावक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. बचपन से ही बच्चों के दिमाग में ये फीड किया जाता है कि उन्हें डॉक्टर और इंजीनियर बनाना है, क्योंकि ये उनके माता-पिता का सपना है. अपने बच्चे की योग्यताओं को परखे बिना अभिभावक बच्चों से उम्मीदें लगाते हैं, प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बच्चे अभिभावकों का खिलौना बनते हैं. सलेक्शन होना न होना पेरेंट्स की इज्जत का सवाल बन जाता है. इधर सलेक्शन नहीं हुआ उधर बच्चे ने फांसी लगा ली.

खर्च का दबाब- कंपटीशन की तैयारी आसान नहीं होती. पढ़ाई के तनाव के साथ-साथ बच्चों के दिमाग पर खर्च का दबाव भी रहता है. कोचिंग में एडमीशन के वक्त ही साल भर की फीस ले ली जाती है. अगर कोचिंग छोड़ना भी चाहें तो छोड़ नहीं सकते क्योंकि फीस रिफंड नहीं होगी.

खुद को गुनहगार समझते हैं बच्चे- आज के अभिभावक पेट काटकर भी अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे भेजते हैं. जो संपन्न हैं वो अपना काम धंधा और करियर छोड़ बच्चों के साथ सिर्फ इसलिए रहते हैं कि उनका ध्यान रख सकें. इतना करता देख बच्चों पर न चाहते हुए भी दबाव बन जाता है. सलेक्शन नहीं होने पर वो खुद को गुनहगार मानते हैं और जान दे देते हैं.

लगाम लगाने के हैं बहुत से उपाये-

1.समय समय पर बच्चों की काउंसलिंग करना जरूरी है.

2.कोचिंग सेंटरों में मनोवैज्ञानिक भी एक लैक्चर दें जिससे बच्चे अपने मन की बात कर सकें.

3.शहर में मन बहलाने की जगह बनें, जो बच्चों को ध्यान में रखकर बनी हों, जैसे आउटडोर गेम वगैरह.

4.हॉस्टल में खाने-पीने की चीजों पर निगरानी हो. साथ ही बच्चों की पसंद का भी ख्याल रखा जाये.

5.कोचिंग में हर महीने पेरेंट्स मीटिंग हो जिससे वो भी अपने बच्चों की प्रोग्रेस पर नजर रख सकें.

6.छात्र अगर कोचिंग बदलना चाहें तो उसकी फीस रीफंड की जाए.

7.कोटा में बेलगाम किराया वसूलने वाले हॉस्टल और मैस रेगुलेट किए जाएं.

8.साथ ही कोचिंग सेंटर की फीस भी रेगुलेट हो.

9.स्कूल और कॉलेजों में शिक्षा का स्तर सुधारा जाए जिससे कोचिंग जाने की जरूरत ही न पड़े.

10.माता-पिता अपने सपने पूरा करने के लिए बच्चों का सहारा न लें. बच्चों के सपने पूरा करने में ही खुशी महसूस करें.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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