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तपस्या के नाम पर एक बच्ची की मौत को हत्या क्यों न माना जाए?

    • आईचौक
    • Updated: 08 अक्टूबर, 2016 08:48 PM
  • 08 अक्टूबर, 2016 08:48 PM
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एक 13 साल की बच्ची की 68 दिन का उपवास रखने से मौत. क्या इसे सुनकर आपके मन में कोई सवाल नहीं आ रहा? क्या गुस्से से मन अशांत नहीं हुआ? आखिर क्या गलती थी उस बच्ची की?

एक 13 साल की बच्ची ने 68 दिनों का उपवास रखा..नतीजा मौत. क्या इसे सुनकर आपके मन में कोई सवाल नहीं आ रहा? क्या गुस्से से मन अशांत नहीं हुआ? आखिर क्या गलती थी उस बच्ची की? उसने उपवास क्यों रखा? क्या वो वाकई तपस्वी बन गई थी?

उपवास, तपस्या या फिर फायदा?

आखिर क्यों हुआ उसके साथ ऐसा? इस सवाल का जवाब जानकर शायद आप स्तब्ध हो जाएं. हैदराबाद की 13 साल की अाराधना समदड़िया के पिता गहनों के व्यापार में हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्हें बिजनेस में लगातार घाटा हो रहा था. इसके बाद किसी संत ने उन्हें सलाह दे डाली कि बच्ची को व्रत रखवाओ और फिर मुनाफा होगा. अगर ये सच है तो फिर आप इसे आस्था की जगह फायदा कहिए.

आराधना की मौत पिछले हफ्ते 2 अक्टूबर को हुई, उपवास खोलने के दो दिन बाद. अब मौत के बाद सब एक दूसरे की गलती गिना रहे रहे हैं. लेकिन पिछले दो महीनों से जब ये तमाशा हो रहा था, तब किसी का कलेजा नहीं फटा.

 आराधना की फाइल फोटो

बचपन से ही लेना चाहती थी दीक्षा

आराधना 11 साल की उम्र से दीक्षा लेना चाहती थी. पिता लक्ष्मीचंद सामदड़िया के अनुसार उन्होंने आराधना को 16 साल की उम्र तक रुकने को कहा. पिता के अनुसार उन्होंने किसी से कुछ छुपाया नहीं, फिर अब क्यों उनपर उंगली उठाई जा रही है?

ये भी पढ़ें- भारतीय परम्पराओं का पर्यावरण संरक्षण से नाता पुराना है...

परिवार...

एक 13 साल की बच्ची ने 68 दिनों का उपवास रखा..नतीजा मौत. क्या इसे सुनकर आपके मन में कोई सवाल नहीं आ रहा? क्या गुस्से से मन अशांत नहीं हुआ? आखिर क्या गलती थी उस बच्ची की? उसने उपवास क्यों रखा? क्या वो वाकई तपस्वी बन गई थी?

उपवास, तपस्या या फिर फायदा?

आखिर क्यों हुआ उसके साथ ऐसा? इस सवाल का जवाब जानकर शायद आप स्तब्ध हो जाएं. हैदराबाद की 13 साल की अाराधना समदड़िया के पिता गहनों के व्यापार में हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्हें बिजनेस में लगातार घाटा हो रहा था. इसके बाद किसी संत ने उन्हें सलाह दे डाली कि बच्ची को व्रत रखवाओ और फिर मुनाफा होगा. अगर ये सच है तो फिर आप इसे आस्था की जगह फायदा कहिए.

आराधना की मौत पिछले हफ्ते 2 अक्टूबर को हुई, उपवास खोलने के दो दिन बाद. अब मौत के बाद सब एक दूसरे की गलती गिना रहे रहे हैं. लेकिन पिछले दो महीनों से जब ये तमाशा हो रहा था, तब किसी का कलेजा नहीं फटा.

 आराधना की फाइल फोटो

बचपन से ही लेना चाहती थी दीक्षा

आराधना 11 साल की उम्र से दीक्षा लेना चाहती थी. पिता लक्ष्मीचंद सामदड़िया के अनुसार उन्होंने आराधना को 16 साल की उम्र तक रुकने को कहा. पिता के अनुसार उन्होंने किसी से कुछ छुपाया नहीं, फिर अब क्यों उनपर उंगली उठाई जा रही है?

ये भी पढ़ें- भारतीय परम्पराओं का पर्यावरण संरक्षण से नाता पुराना है...

परिवार वाले कह रहे हैं कि अब लोग क्यों उनका विरोध कर रहे हैं जबकि पहले आराधना के साथ सेल्फी खिंचवाते थे और उसे इसी व्रत के कारण सेलेब्रिटी बना दिया था. उपवास खुलवाने के लिए 'पाराना' की रस्म में तैलांगना के मंत्री पद्मा राव भी मौजूद थे. आराधना का व्रत खुलवाने का विज्ञापन अखबार में भी दिया गया था और अब उसकी शवयात्रा में 600 लोगों के हिस्सा लेने की बात कही जा रही है.

 उपवास खोलने की रस्म के लिए भेजा गया कार्ड

आराधना ने इसके पहले भी कई बार उपवास रखा है. इसके पहले एक बार 41 दिन का उपवास रखने के बाद भी वो ठीक रही थी, लेकिन सवाल ये है कि क्या एक बच्ची को इसकी इजाज़त दी जानी चाहिए?

शिक्षा जरूरी या उपवास?

जैन धर्म के विद्वानों का कहना है कि किसी बच्चे को पढ़ाई छोड़कर उपवास करने क्यों दिया गया? क्या वाकई पहले किसी को नहीं पता था कि आराधना ने स्कूल जाना भी छोड़ दिया है. हैदराबाद के सेंट फ्रांसिस स्कूल में पढ़ने वाली आठवीं कक्षा की आराधना एक अच्छे खासे सभ्य और पढ़े-लिखे परिवार से थी. उसके परिवार में दो लोग डॉक्टर हैं. पिता गहनों के व्यापार में हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि शिक्षा पर उपवास क्यों भारी पड़ गया?

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पहले कहां थे सब?

बच्ची 13 साल की थी, उपवास करना चाहती थी, लेकिन क्या उसे ऐसा करने देना चाहिए था? भले ही परिवार वालों ने ये कहा हो कि उन्हें ऐसी अनहोनी का अंदाजा नहीं था, लेकिन क्या उन्हें अपनी बिटिया की हालत भी नहीं दिख रही थी. जैन धर्म में उपवास कठिन होता है. जिस धर्म में कीड़े मकोड़ों की मौत भी सही नहीं मानी जाती वहां उपवास के दौरान उन्हीं की एक बेटी की मौत हो जाती है, क्या ये सोचने वाली बात नहीं? अब इस पर बलाला हकूला संघ (Balala Hakkula Sangh) जो एक बच्चों का एनजीओ है लक्ष्मीचंद सामदड़िया पर सवाल उठा रहा है. ये एनजीओ तब कहां था जब जोर-शोर से आराधना के उपवास का जश्न मनाया जा रहा था. आखिर देर होने पर ही सब क्यों जागते हैं.

लोग बाल तपस्वी कहकर उसे याद कर रहे हैं, लेकिन क्या उस मां का कलेजा नहीं फट रहा जिसकी आराधना अधूरी रह गई? क्या उस पिता को अब भी व्यापार की चिंता होगी, उन्हें काम पर जाने से पहले रोज अपनी दुलारी की याद नहीं आएगी? और सवाल ये भी कि ये तपस्या थी या हत्या? 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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