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इस विरासत का बोझ हमें उठाना ही पड़ेगा!

    • मौसमी सिंह
    • Updated: 09 सितम्बर, 2017 05:28 PM
  • 09 सितम्बर, 2017 05:28 PM
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मेनस्ट्रीम मीडिया के चश्मे पर सत्ता की परत चढ़ी है. प्रेस की आज़ादी पर सरकार की अडवाइजरी हावी है. जनता की हिमायत करने के बजाय हुकमरानों के ताल पर नाचने में मगन है मीडिया.

वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की निडर आवाज़ को ताबड़तोड़ गोलियों ने हमेशा के लिए खामोश कर दिया. सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनल और अखबार गौरी की हत्या की खबर से पटे और बटे पड़े थे. दोनो ही तरफ के आखिरी छोर उत्तेजित, असहनशील, नाराज़ और बेलगाम थे. देखते ही देखते इस खींचातनी ने पत्रकारों के भी दो से दर्जनों फाड़ कर दिये थे.

उस रात कभी मैं फ़ैज़ साहब की ये लाइने गुनगुनाती रही... 'दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है, लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है...'तो कभी टकटकी लगाए अपने फोन को ताकती रही. सोने की कोशिश करती, फिर फोन उठाकर कुछ ट्वीट पढ़ती और कभी फेसबुक पर पोस्ट. गम की रात लंबी थी...अजब सी बेचैनी ने मुझे रात भर सताया...ये और बात थी कि अंतर्द्वंद की ये पहली रात ना थी.

गौरी लंकेश

सुबह हुई तो उस पर भी रात का साया था...यही सोचती रही कि गौरी के निर्भीक, बेबाक और अडिग विचारों के सामने आज पत्रकारिता कितनी बौनी हो चली है. गौरी लंकेश की आवाज़ उनकी अकेली नहीं थी...ये उन लाखों लोगों की आवाज़ थी जो समाज की कतार मे आखिरी पंक्ति में खड़े हैं. जिनके धूल चटे हुए चेहरे, मैले कपड़े और लड़खड़ाते बोल चैनलों की टीआरपी के लिए घाटे का सौदा है.

लाइव चैट है तो सुंदर चेहरे होने चाहिए, लड़ना-लड़ाना हो तो माहौल और बंध जायेगा क्योंकि कुछ तो महिला पत्रकार के लाऊड मेक-अप और लहलहाती जुल्फे भी काम करेंगी. मगर टीआरपी मास्टर शायद ये भूल गये कि बाहरी मेक-अप से अपने भीतर की बदसूरती नहीं छुपता. ये वो दौर है जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की मीडिया की आंखों पर पट्टी बंधी है. मौसम खुशनुमा है, गुल-ए-गुलशन है. दिल्ली 'दरबार' के हमाम में मीडिया मद-मस्त-मगन है. मंत्रियों के बैठक में पत्रकार लाइन लगाए जी हजूरी करने और सलाम ठोकने में लगे हैं. बस गाड़ी का कार लोन, होम लोन अदा होता...

वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की निडर आवाज़ को ताबड़तोड़ गोलियों ने हमेशा के लिए खामोश कर दिया. सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनल और अखबार गौरी की हत्या की खबर से पटे और बटे पड़े थे. दोनो ही तरफ के आखिरी छोर उत्तेजित, असहनशील, नाराज़ और बेलगाम थे. देखते ही देखते इस खींचातनी ने पत्रकारों के भी दो से दर्जनों फाड़ कर दिये थे.

उस रात कभी मैं फ़ैज़ साहब की ये लाइने गुनगुनाती रही... 'दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है, लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है...'तो कभी टकटकी लगाए अपने फोन को ताकती रही. सोने की कोशिश करती, फिर फोन उठाकर कुछ ट्वीट पढ़ती और कभी फेसबुक पर पोस्ट. गम की रात लंबी थी...अजब सी बेचैनी ने मुझे रात भर सताया...ये और बात थी कि अंतर्द्वंद की ये पहली रात ना थी.

गौरी लंकेश

सुबह हुई तो उस पर भी रात का साया था...यही सोचती रही कि गौरी के निर्भीक, बेबाक और अडिग विचारों के सामने आज पत्रकारिता कितनी बौनी हो चली है. गौरी लंकेश की आवाज़ उनकी अकेली नहीं थी...ये उन लाखों लोगों की आवाज़ थी जो समाज की कतार मे आखिरी पंक्ति में खड़े हैं. जिनके धूल चटे हुए चेहरे, मैले कपड़े और लड़खड़ाते बोल चैनलों की टीआरपी के लिए घाटे का सौदा है.

लाइव चैट है तो सुंदर चेहरे होने चाहिए, लड़ना-लड़ाना हो तो माहौल और बंध जायेगा क्योंकि कुछ तो महिला पत्रकार के लाऊड मेक-अप और लहलहाती जुल्फे भी काम करेंगी. मगर टीआरपी मास्टर शायद ये भूल गये कि बाहरी मेक-अप से अपने भीतर की बदसूरती नहीं छुपता. ये वो दौर है जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की मीडिया की आंखों पर पट्टी बंधी है. मौसम खुशनुमा है, गुल-ए-गुलशन है. दिल्ली 'दरबार' के हमाम में मीडिया मद-मस्त-मगन है. मंत्रियों के बैठक में पत्रकार लाइन लगाए जी हजूरी करने और सलाम ठोकने में लगे हैं. बस गाड़ी का कार लोन, होम लोन अदा होता रहे और समय पर तनख्वा मिलती रहे, फिर दुनिया जले तो जले.

दरअसल मेनस्ट्रीम मीडिया के चश्मे पर सत्ता की परत चढ़ी है. प्रेस की आज़ादी पर सरकार की अडवाइजरी हावी है. जनता की हिमायत करने के बजाय हुकमरानों के ताल पर नाचने में मगन है मीडिया. ये रह रह कर रोती भी है, बिलखती है, पर फिर झुनझुना थमा दिए जाने पर झूम लेती है. लेकिन गौरी लंकेश डटी हुई थी. वो समय के बहाव के विरुद्ध लड़ रही थी. वो उन चंद में से थी जिन्होंने सत्ता के दबाव को ना सिर्फ झेला बल्कि उसका सामना किया. जीते जी अपनी लड़ाई में अकेली थी पर कमज़ोर नहीं. उनकी हत्या ने देश के चौथे स्तंभ को हिला कर रख दिया. उनके मरने के बाद मीडिया कमज़ोर और बटा हुआ दिखा.

गौरी लंकेश को हमने जीते जी और उनके मरने के बाद निराश ही किया है. अब औरों पर तंज कसने से पहले खुद अपने गिरेबान में झांकना होगा. उनकी विरासत का बोझा हमें उठाना ही पड़ेगा. ये इस देश के लोकतंत्र की दरकती दीवारों को सीमेंट करने के लिए ज़रूरी है. हम पत्रकारों को फिर से जूते चप्पल घिसने ही पड़ेंगे.

भले ही आपस मे झोटना नुच्चववर जारी रहे, वैचारिक मतभेद हो सकते हैं पर मंज़िल तो एक है. जनता की आवाज़ बनना ना की राजनीतिक पार्टियों के पीआर मैनेजर. फिर देखिए कैसे जाग उठेगी हमारे भीतर की गौरी लंकेश. क्योंकि सच ना झुक सकता है, ना छुप सकता है. सच तो तलवार की धार से भी तेज़ होती है. अगर 21वीं सदी का पत्रकार अपने ब्रांडेड बैग और डीज़ाईनर कपड़ों से ज़्यादा सच के ब्रैंड पर ध्यान दे तो वो समाज को आईना दिखाने की कुब्बत रखता है. फिर माफ कीजियेगा पर किसी चापलूस चैनल के पत्रकार पर एक पब्लिसिटी की भूख कथित नेता की गीदड़ भापकियो पर चुप्पी साधने की ज़रूरत नही पड़ेगी. अगर ज़मीन पर खाक छान रहा पत्रकार अपने पैर धरती में जमा कर खड़ा हो जाय, षड्यंत्र और फरेब को भेदने का मन बना ले, सच्चाई की मशाल उठा ले और ईमानदारी से अपना फ़र्ज़ निभा ले, तो वो गौरी लंकेश के लिए असल श्रद्धांजलि होगी.

सवाल वही क्या हम तैयार हैं?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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